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आपराधिक कानून

निर्दोषता की पूर्वधारणा

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 04-Sep-2024

चंद्र बाबू उर्फ ​​बाबू बनाम केरल राज्य और अन्य

"हर आरोपी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए। निर्दोष होने की यह धारणा सिर्फ़ एक विधिक सिद्धांत नहीं बल्कि एक मौलिक मानव अधिकार है।"

न्यायमूर्ति राजा विजयराघवन वी. तथा न्यायमूर्ति जी. गिरीश

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने चंद्र बाबू उर्फ ​​बाबू बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले में माना है कि:

  • दोषी सिद्ध होने तक पूर्वधारणा लगाना न केवल एक विधिक अधिकार है, बल्कि एक व्यक्ति का मौलिक मानव अधिकार है।
  • न्यायालयों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गारंटीकृत तर्कसंगतता के मानकों का पालन करना चाहिये।

चंद्र बाबू उर्फ ​​बाबू बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, चार आरोपी थे, जिनमें से एक की मामले के लंबित रहने के दौरान मृत्यु हो गई (अपीलकर्त्ता )।
  • अभियोजन पक्ष का साक्षी पीड़ित का भाई था, जिसकी अपीलकर्त्ताओं द्वारा कथित हमलों के कारण मृत्यु हो गई थी।
  • सत्र न्यायालय के समक्ष अभियोजन पक्ष ने यह तर्क दिया कि आरोपियों ने मृतक पीड़ित के पेट में चाकू घोंपकर हमला किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
  • सत्र न्यायालय ने साक्षी द्वारा दिये गए बयानों और अन्य प्रासंगिक साक्ष्यों के आधार पर आरोपियों को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 सहपठित धारा 34 के अधीन दोषी पाया तथा उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई।
  • सत्र न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर आरोपियों ने केरल उच्च न्यायालय में अपील की।
  • ​​आरोपियों ने कहा कि साक्षी के बयान में विसंगतियाँ थीं तथा हत्या के हथियार की बरामदगी के विषय में साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं थे।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध को सिद्ध करने में विफल रहा क्योंकि कथित अपराध स्थल पर खून के कोई निशान नहीं पाए गए।
  • न्यायालय ने यह भी देखा कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य में विसंगतियाँ थीं तथा अपीलकर्त्ता उचित संदेह पैदा करने में सफल रहे।
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष ने न्यायालय के समक्ष पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत नहीं की थी और प्रस्तुत सामग्री विकृत थी।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष के मामले में कई विसंगतियाँ हैं तथा जाँच एजेंसी अपराध की जाँच करने एवं उसे स्थापित करने में विफल रही है।
  • न्यायालय ने कहा कि मामले को उचित संदेह से परे सिद्ध किया जाना चाहिये, न कि केवल संदिग्ध परिस्थितियों के आधार पर।
  • इसलिये, केरल उच्च न्यायालय ने आरोपी की अपील स्वीकार कर ली तथा सत्र न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया।

निर्दोषता की धारणा क्या है?

परिचय:

  • आपराधिक कार्यवाही के दौरान न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये दोनों पक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिये।
  • ऐसे मामलों में लापरवाही न्याय की विफलता का कारण बन सकती है।
  • अभियुक्त को तब तक निर्दोष माना जाने का अधिकार है जब तक कि उसका अपराध उचित संदेह से परे सिद्ध न हो जाए।
  • तथ्यों को सिद्ध करने का भार हमेशा उस व्यक्ति पर होता है जो इसे सिद्ध करने का दावा करता है, जैसा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 101 एवं धारा 102 के अधीन स्पष्ट रूप से दिया गया है। (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 104 एवं धारा 105 के अधीन शामिल किया गया है)
  • निर्दोषता की धारणा अभियोजन पक्ष पर बोझ नहीं डालती है, लेकिन यह बताती है कि बोझ अभियोजन पक्ष से ही प्रारंभ होता है।

निर्दोषता की धारणा का महत्त्व:

  • निर्दोषता की धारणा का सिद्धांत केवल एक अधिकार नहीं है, बल्कि राज्य के लिये अपनी बलपूर्वक शक्तियों का प्रयोग करने का सिद्धांत है।
  • पूर्वधारणा का सिद्धांत गलत दोषसिद्धि के विरुद्ध व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करता है।
  • निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष मानने के अधिकार को लाने की कुंजी है।
  • यह अभियोजन पक्ष को आरोपी के विरुद्ध लगाए गए अपराध के सभी तत्त्वों को सिद्ध करने के लिये बाध्य करता है।
  • निर्दोषता की धारणा के सिद्धांत के विपरीत कुछ भी न्याय के विरुद्ध होगा तथा न्याय की विफलता का कारण बनेगा।
  • निर्दोषता की धारणा एक मानव अधिकार है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
  • COI के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 में इस सिद्धांत को शामिल किया गया है जो इसे एक मौलिक अधिकार बनाता है।

निर्दोषिता की धारणा पर आधारित मामले कौन-से हैं?

  • काली राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (1973):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसके विरुद्ध कोई उचित संदेह सिद्ध न हो जाए।
    • उचित संदेह से परे सिद्ध होने से तात्पर्य यह है कि जब तक अभियोजन पक्ष विश्वसनीय साक्ष्यों के साथ अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत किये गए तर्कों का खंडन करने में सफल नहीं हो जाता, तब तक उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
  • के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1962):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि सामान्य सिद्धांत निर्दोषता की धारणा है।
    • साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियोजन पक्ष पर है।