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आपराधिक कानून

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत अनुमान

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 29-Jan-2025

इवान रथिनम बनाम मियालन जोसेफ 

“यद्यपि, यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि ‘अतिरिक्त’ सहवास या ‘एकाधिक’ सहवास स्वयं ही पति-पत्नी के बीच हुए सहवास को मना नहीं करता तथा उनकी असहवासिता (non-access) को साबित नहीं करता।” 

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ 

सोर्स: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ की पीठ ने यह निर्णय दिया कि यदि यह साबित हो जाता है कि विवाहिता दंपत्ति के बीच संतान की गर्भाधान अवधि के दौरान सहवास की संभावना थी, तो संतान को वैध (वैध संतान) माना जाएगा, जिससे दंपत्ति की पितृत्व की पुष्टि होती है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने इवान रथिनम बनाम मिलन जोसेफ (2025) के मामले में यह निर्णय दिया। 

इवान रथिनम बनाम मिलन जोसेफ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • प्रतिवादी की माता का विवाह श्री राजू कुरियन से हुआ था, तथा वर्ष 1991 में उनकी एक पुत्री उत्पन्न हुई। 
  • प्रतिवादी का जन्म 11.06.2001 को हुआ था और जन्म रजिस्टर में श्री राजू कुरियन को उसके पिता के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। 
  • दांपत्य मतभेदों के कारण, प्रतिवादी की माता एवं श्री राजू कुरियन वर्ष 2003 में पृथक् हो गए तथा वर्ष 2006 में उन्हें विधिवत विवाह-विच्छेद प्राप्त हुआ। 
  • प्रतिवादी की माता ने दावा किया कि अपीलकर्त्ता ही जैविक पिता है, क्योंकि उसका उसके साथ विवाहेतर संबंध था, और जन्म रजिस्टर में नाम परिवर्तन हेतु निवेदन किया, जिसे न्यायालय के आदेश के बिना अस्वीकार कर दिया गया। 
  • मुकदमे का पहला चरण:  
    • 2007 में, प्रतिवादी और उसकी माता ने सिविल न्यायालय के समक्ष वाद संस्थित किया, जिसमें अपीलकर्त्ता को पिता घोषित करने एवं डीएनए परीक्षण कराने का निर्देश देने की प्रार्थना की गई।  
    • सिविल न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को डीएनए परीक्षण कराने का निर्देश दिया, परंतु अपीलकर्त्ता ने उक्त आदेश को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी। 
    • उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अंतर्गत केवल तभी पितृत्व परीक्षण (Paternity Test) का आदेश दिया जा सकता है जब प्रथम दृष्टया (Prima Facie) एक सशक्त प्रथम दृष्टया मामला स्थापित हो।  
    • अपीलकर्त्ता ने कामती देवी बनाम पोशी राम वाद का संदर्भ देते हुए पुनर्विचार याचिका संस्थित की, जिसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में संशोधन किया। संशोधित आदेश में यह स्पष्ट किया गया कि डीएनए परीक्षण केवल तभी अनुमन्य होगा जब यह साबित हो जाए कि प्रतिवादी की माता एवं श्री राजू कुरियन के मध्य सहवास नहीं हुआ था। 
    • प्रतिवादी एवं उसकी माता ने इस आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, परंतु 14 सितंबर 2009 को यह याचिका खारिज कर दी गई। 
    • सिविल न्यायालय ने मूल वाद (Original Suit) को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि प्रतिवादी की माता असहवास (Non-Access) को सिद्ध करने में असफल रही। 
    • कुटुंब न्यायालय ने भरण-पोषण याचिका को समाप्त कर दिया, परंतु यह आदेश दिया कि यदि मूल वाद को पलटा जाता है, तो भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित किया जा सकता है। 
    • प्रतिवादी और उसकी माता ने तृतीय अतिरिक्त उप-न्यायाधीश, एर्नाकुलम के समक्ष अपील की, किंतु अपील 21 फरवरी 2011 को खारिज कर दी गई। 
    • उच्च न्यायालय के समक्ष एक दूसरी अपील (RSA संख्या 973/2011) भी 28 अक्टूबर 2011 को खारिज कर दी गई, जिसमें वैधता की उपधारणा को बरकरार रखा गया। उक्त आदेश अंतिम रूप से स्थायी हो गया । 
  • मुकदमे का द्वितीय चरण:  
    • वर्ष 2015 में, प्रतिवादी ने आर्थिक कठिनाइयों एवं श्री राजू कुरियन द्वारा सहयोग न मिलने का हवाला देते हुए भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने हेतु अनुरोध किया। 
    • कुटुंब न्यायालय ने 09 नवंबर 2015 को याचिका को पुनर्संस्थित करते हुए निर्णय दिया कि भरण-पोषण और वैधता के मामलों पर उसको विशेष अधिकारिता है। 
    • अपीलकर्त्ता ने उक्त आदेश को उच्च न्यायालय में यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि इस विवाद्यक का पहले ही निपटान किया जा चुका है, अतः इसे पुनः संस्थित नहीं किया जा सकता। 
    • उच्च न्यायालय ने 21 मई 2018 को अपने निर्णय में निर्णय में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले: 
      • वैधता बच्चे के जैविक पिता से भरण-पोषण के अधिकार को प्रभावित नहीं करती है। 
      • पितृत्व जाँच दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अधीन वैधता भिन्न एवं स्वतंत्र विषय है।  
      • वैधता पर सिविल न्यायालय के निर्णय कुटुंब न्यायालय को भरण-पोषण के लिये पितृत्व निर्धारित करने से नहीं रोकते हैं। 
  • व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष तत्काल अपील संस्थित की।  
  • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दिये: 
    • क्या वैधता की उपधारणा विधि में पितृत्व निर्धारण करती है? 
    • क्या सिविल न्यायालय के पास मूल वाद पर विचार करने का अधिकार था; और तदनुसार, क्या कुटुंब न्यायालय भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने का हकदार था? 
    • क्या प्रतिवादी द्वारा शुरू किये गए मुकदमे के दूसरे चरण को पूर्व-न्याय (res judicata) के सिद्धांत द्वारा रोक दिया गया था? 

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?  

  • प्रथम विवाद्यक के संबंध में:  
    • यह विवाद्यक दो महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर आधारित है:  
      • ‘वैधता’ और ‘पितृत्व’ के मध्य अंतर।  
      • हितों का संतुलन और डीएनए परीक्षण के लिये ‘आवश्यकता की कसौटी’।  
    • न्यायालय ने इस वैश्विक परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए माना कि पितृत्व एवं वैधता के मध्य संबंध को वृहद रूप से स्वीकार किया गया है। धर्मजता (Legitimacy) कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है, अपितु यह पितृत्व का ही एक अभिन्न अंग है।  
    • आगे यह भी कहा गया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 112 में उपबंध है कि धर्मजत्व का निश्चायक सबूत पितृत्व के समतुल्य है।   
    • इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी संतान की पितृत्व की अनुचित जाँच से बचा जा सके।  
    • यदि कोई व्यक्ति को धर्मजता की उपधारणा का खण्डन करना चाहता है, तो उसे सर्वप्रथम यह प्रमाणित करना होगा कि पति-पत्नी के बीच सहवास नहीं हुआ (Non-Access) तथा इसे पर्याप्त साक्ष्यों द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है। 
    • भले ही यह मान लिया जाए कि प्रतिवादी की माता का विवाह के दौरान, विशेष रूप से प्रतिवादी के जन्म की अवधि में, अपीलकर्त्ता के साथ संबंध था, तो मात्र इस तथ्य से वैधता की धर्मजता की उपधारणा (Presumption of Legitimacy) स्वतः निष्प्रभावी नहीं हो जाती। 
    • यह स्पष्ट किया गया कि यदि किसी विवाहिता स्त्री के किसी अन्य व्यक्ति से ‘अतिरिक्त’ (Additional) या ‘एकाधिक’ (Multiple) संबंध हों, तो यह स्वतः यह प्रमाणित नहीं करता कि पति-पत्नी के मध्य सहवास नहीं हुआ था (Non-Access)। 
    • अंततः न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि इस मामले में हितों का संतुलन (Balance of Interest) ऐसा नहीं है कि डीएनए परीक्षण की अत्यावश्यकता हो। 
  • द्वितीय विवाद्यक के संबंध में:  
    • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कुटुंब न्यायालय को दिया गया क्षेत्राधिकार केवल दांपत्य विवादों (Matrimonial Causes) से उत्पन्न विवाद्यकों के निपटान के लिये प्रदान किया गया है। 
    • न्यायालय ने यह भी माना कि यह विवाद केवल कुटुंब न्यायालय की विशेष अधिकारिता (Exclusive Jurisdiction) में नहीं आता।  
  • तृतीय विवाद्यक के संबंध में: 
    • न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि परिवार न्यायालय द्वारा भरण-पोषण याचिका को पुनर्संस्थित करने का आदेश, पूर्व-न्याय (Res Judicata) के सिद्धांत का प्रत्यक्ष उल्लंघन है। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 क्या है? 

  • धारा 112 - विवाह के दौरान जन्म, वैधता का निर्णायक प्रमाण - यह तथ्य किसी व्यक्ति का जन्म उसकी माता और पुरुष के बीच विधिमान्य विवाह के कायम रहते हुए या उसका विघटन होने के उपरांत माता के अविवाहित रहते हुए दो सौ अस्सी दिनों के भीतर हुआ था, इस बात का निश्चायक सबूत होगा कि वह उस पुरुष का धर्मज पुत्र है, जब तक कि यह दर्शित न किया जा सके कि विवाह के पक्षकारों की परस्पर पहुँच ऐसे किसी समय नहीं थी, जब उसका गर्भाधान किया जा सकता था। 
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 4 द्वारा निश्चायक सबूत को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:  
    • जहाँ कि इस अधिनियम द्वारा एक तथ्य किसी अन्य तथ्य का निश्चायक सबूत घोषित किया गया है, वहाँ न्यायालय उस एक तथ्य के साबित हो जाने पर उस अन्य को साबित मानेगा और उसे नासाबित करने के प्रयोजन के लिए साक्ष्य दिए जाने की अनुज्ञा नहीं देगा। 
    • पितृत्व के निश्चायक सबूत को केवल तभी खारिज किया जा सकता है जब बच्चे के गर्भाधान के समय पति द्वारा सहवास न होने का प्रमाण दिया जाए। यहां सहवास से मतलब वास्तविक वैवाहिक संभोग से है।  
    • सभी मामलों में यह स्थापित किया जाना चाहिये कि गर्भधारण के समय पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे तक पहुँच की कोई संभावना नहीं थी। उदाहरण के लिए, गर्भधारण के समय एक लंदन में था जबकि दूसरा भारत में  था। 
  • यह प्रावधान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 116 में उल्लिखित है। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं? 

  • नंदलाल वासुदेव बड़वाइक बनाम लता नंदलाल बड़वाइक (2014): 
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IEA) उस समय पारित हुआ था जब आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकें अस्तित्व में नहीं थीं। जब सत्य ज्ञात होता है तो उपधारणा की कोई गुंजाइश नहीं होती है, किंतु जहाँ निश्चायक सबूत और आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों के बीच संघर्ष होता है, वहाँ तकनीक को पहले से ऊपर माना जाना चाहिये।  
  • दीपनविता रॉय बनाम रोनोब्रोती रॉय (2015): 
    • पति का बेवफाई का आरोप - पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत याचिका संस्थित करते हुए आरोप लगाया कि उसकी पत्नी विश्वासघाती थी और उसने अन्य व्यक्ति को संतान का पिता बताया । 
    • डीएनए परीक्षण के लिये अनुरोध - अपने दावे को पुष्ट करने के लिये, पति ने बच्चे के पितृत्व को निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण की मांग की। 
    • विश्वासघात साबित करने में चुनौती - पति कथित व्यभिचार का प्रत्यक्ष सबूत देने के लिये संघर्ष करता रहा, जिससे उसके दावे को साबित करने के लिये डीएनए परीक्षण सबसे विश्वसनीय वैज्ञानिक तरीका बन गया।  
    • उच्च न्यायालय के डीएनए परीक्षण के आदेश को बरकरार रखा गया – उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि इस संदर्भ में डीएनए परीक्षण के लिये उच्च न्यायालय का निर्देश उचित था। 
    • व्यभिचार से संबंधित संबंध - पति का डीएनए परीक्षण के लिये अनुरोध सीधे उसकी पत्नी की विश्वासघात के आरोप से जुड़ा था।  
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आधुनिक विज्ञान की धारा 112 – न्यायालय ने माना कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112, जो धर्मजता की उपधारणा स्थापित करती है, डीएनए परीक्षण के आगमन से पहले अधिनियमित की गई थी।  
    • उपधारणा को चुनौती दी जा सकती है – न्यायलय ने कहा कि धारा 112 एक निश्चायक उपधारणा प्रदान करती है, लेकिन यह निरपेक्ष नहीं है और इसे वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ खण्डित किया जा सकता है। 
    • वैज्ञानिक साक्ष्य बनाम विधिक उपधारणा – उच्चतम न्यायालय ने डीएनए परीक्षण को एक अत्यधिक सटीक वैज्ञानिक साक्ष्य के रूप में मान्यता दी और इस बात पर बल दिया कि जब विधिक उपधारणाएं विश्व स्तर पर स्वीकृत वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ संघर्ष करती हैं, तो बाद वाले को ही प्रबल होना चाहिये। 
    • न्याय और सर्वोत्तम वैज्ञानिक तरीके - न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसे मामलों में जहाँ वैज्ञानिक साक्ष्य विधिक उपधारणाओं का खण्डन करते हैं, न्यायालयों को न्याय सुनिश्चित करने के लिये विधिक तकनीक पर वैज्ञानिक साक्ष्य को प्राथमिकता देनी चाहिये।