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निवारक निरोध

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 10-Mar-2025

मंज़ूर अहमद वानी बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर

"यदि अभियुक्त जमानत पर रिहा होने के बाद राज्य के प्रति प्रतिकूल कार्य में संलिप्त था, तो अभियोजन पक्ष को जमानत रद्द करने की मांग करने का पूरा अधिकार है।"

न्यायमूर्ति जावेद इकबाल वानी

स्रोत: जम्मू एवं उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जावेद इकबाल वानी ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने कभी भी याचिकाकर्त्ता की जमानत रद्द करने की मांग नहीं की, जबकि ट्रायल कोर्ट के आदेश के तहत ऐसा करने की स्पष्ट स्वतंत्रता थी।

  • जम्मू एवं कश्मीर (J&K) उच्च न्यायालय ने मंजूर अहमद वानी बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

मंजूर अहमद वानी बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मंज़ूर अहमद वानी ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के उच्च न्यायालय में (अपने भाई के माध्यम से) एक याचिका दायर की, जिसमें जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 के तहत उनके अभिरक्षा आदेश को चुनौती दी गई। 
  • 1 फरवरी 2024 को पुलवामा के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा अभिरक्षा आदेश जारी किया गया था। 
  • याचिकाकर्त्ता को पहले गिरफ्तार किया गया था और पुलिस स्टेशन त्राल, पुलवामा में आर्म्स एक्ट और विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) सहित कई धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी। 
  • 11 सितंबर 2023 को, राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम (NIA अधिनियम) के तहत एक नामित न्यायालय ने उनके विरुद्ध कई गंभीर आरोप हटा दिये, हालाँकि कुछ आरोप बने रहे। 
  • याचिकाकर्त्ता को बाद में 4 नवंबर 2023 को कई शर्तों के साथ जमानत दी गई, जिसमें अपराध न दोहराने, बिना अनुमति के क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं त्यागने और मोबाइल डिवाइस के उपयोग पर प्रतिबंध शामिल थे।
  • जमानत आदेश में विशेष रूप से यह प्रावधान किया गया था कि यदि विवेचना अधिकारी न्यायालय को इसकी सूचना देते हैं तो किसी भी शर्त का उल्लंघन होने पर जमानत रद्द की जा सकती है।
  • अधिकारियों के अनुसार, जमानत पर रिहा होने के बाद, याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर राज्य की सुरक्षा के लिये हानिकारक मानी जाने वाली गतिविधियों को पुनः प्रारंभ कर दिया, जिसके कारण उसे निवारक निरोध विधानों के तहत अभिरक्षा में लिया गया। 
  • अधिकारियों ने दावा किया कि वानी एक आतंकवादी संगठन के लिये भूमिगत कार्यकर्त्ता (OGW) के रूप में कार्य कर रहा था, जो आतंकवादियों को रसद और आश्रय प्रदान करता था। 
  • याचिकाकर्त्ता ने कई आधारों पर अभिरक्षा आदेश को चुनौती दी, जिसमें यह भी शामिल था कि अधिकारियों को निवारक निरोध का सहारा लेने के बजाय जमानत रद्द करने की मांग करनी चाहिये थी। 
  • याचिकाकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि अभिरक्षा के आधार अस्पष्ट और भ्रामक थे, कथित गतिविधियों के विशिष्ट विवरणों का अभाव था, जिसने उसे अपनी अभिरक्षा के विरुद्ध प्रभावी प्रतिनिधित्व करने से रोका। 
  • 11 सितंबर 2023 को, ट्रायल कोर्ट ने मंजूर अहमद वानी के विरुद्ध कई गंभीर आरोपों को हटा दिया, विशेष रूप से UAPA की धारा 17, 18, 19 एवं 39 के तहत अपराध। 
  • न्यायालय ने UAPA की धारा 13 के तहत अपराध को यथावत बनाए रखा। रिट याचिका जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी।
  • यह रिट याचिका जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने अधीनस्थ न्यायालय के आदेश के तहत ऐसा करने की स्पष्ट स्वतंत्रता होने के बावजूद याचिकाकर्त्ता की जमानत रद्द करने की कभी मांग नहीं की।
    • न्यायालय ने पाया कि अधिकारी यह स्पष्ट करने में विफल रहे कि उन्होंने जमानत रद्द करने की मांग करने के बजाय निवारक निरोध क्यों चुना।
    • उच्च न्यायालय ने पाया कि अधिकारियों ने सामान्य विधिक प्रक्रियाओं के बजाय निवारक विधि का उपयोग करके "शॉर्टकट विधि" अपनाई।
    • न्यायालय ने पाया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 107 (शांति बनाए रखने के लिये सुरक्षा) के तहत कार्यवाही कथित रूप से शुरू की गई थी, लेकिन अभिरक्षा के रिकॉर्ड से यह पता नहीं चलता कि ये कार्यवाही वास्तव में आगे बढ़ाई गई थी।
    • उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अभिरक्षा के आधार "अस्पष्ट एवं भ्रामक" थे, कथित गतिविधियों के विशिष्ट विवरण, तिथियाँ एवं विवरण देने में विफल रहे।
    • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि इन अस्पष्ट आधारों ने वानी को उसकी अभिरक्षा के विरुद्ध प्रभावी प्रतिनिधित्व करने की क्षमता से वंचित कर दिया, जो उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • उच्च न्यायालय ने अंततः निवारक निरुद्धि के आदेश को रद्द कर दिया तथा प्राधिकारियों को निर्देश दिया कि याचिकाकर्त्ता को रिहा कर दिया जाए, जब तक कि किसी अन्य मामले में उसकी आवश्यकता न हो।

निवारक निरोध क्या है?

  • निवारक निरोध का अर्थ है किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा बिना किसी सुनवाई और दोषसिद्धि के अभिरक्षा में लेना। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को पिछले अपराध के लिये दण्डित करना नहीं है, बल्कि उसे निकट भविष्य में कोई अपराध करने से रोकना है। 
  • निवारक निरोध से संबंधित प्रमुख विधि इस प्रकार हैं:
    • आंतरिक सुरक्षा अधिनियम, 1971 (MISA)
    • विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम, 1974 (COFEPOSA)
    • आतंकवादी एवं विघटनकारी क्रियाकलाप (रोकथाम) अधिनियम, 1985 (TADA)
    • आतंकवादी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 2002 (POTA)
    • विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (रोकथाम) अधिनियम, 2008 (UAPA)

COI का अनुच्छेद 22 क्या है?

  • COI का अनुच्छेद 22 कुछ मामलों में गिरफ्तारी और अभिरक्षा के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। 
  • COI के अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं-
    • पहला भाग सामान्य विधि (अनुच्छेद 22 (1) एवं (2)) से संबंधित है। 
    • दूसरा भाग निवारक निरोध के मामलों से संबंधित है।

अनुच्छेद 

उपबंध

अनुच्छेद 22 (1)

गिरफ्तार किये जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को:

गिरफ्तारी के कारणों के विषय में यथाशीघ्र सूचित किया जाएगा।

गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को अपनी पसंद के किसी विधिक व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 22 (2)

इस उपबंध में यह प्रावधान है कि अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति को यात्रा के समय को छोड़कर गिरफ्तारी के चौबीस घंटे की अवधि के अंदर निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये। मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना किसी भी व्यक्ति को ऊपर उल्लिखित अवधि से अधिक अभिरक्षा में नहीं रखा जाएगा।

अनुच्छेद 22 (3)

यह प्रावधान यह प्रावधान करता है कि खंड (1) एवं खंड (2) निम्नलिखित पर लागू नहीं होंगे:

विदेशी शत्रु।

निवारक निरोध के लिये किसी भी विधि के तहत गिरफ्तार या अभिरक्षा में लिया गया।

अनुच्छेद 22 (4)

यह उपबंध यह प्रावधान करता है कि निवारक निरोध का कोई भी विधि तीन महीने से अधिक अवधि के लिये निरोध को अधिकृत नहीं करेगा जब तक कि:

सलाहकार बोर्ड यह राय न दे कि निरोध के लिये पर्याप्त कारण हैं।

सलाहकार बोर्ड में ऐसे व्यक्ति होने चाहिये जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य हों।

उपबंध यह प्रावधान करता है कि निरोध अवधि संसद द्वारा बनाए गए किसी भी विधान द्वारा निर्धारित अवधि से अधिक नहीं होगी।

ऐसे व्यक्ति को खंड (7) के उपखंड (a) एवं (b) के तहत संसद द्वारा बनाए गए किसी भी विधान के प्रावधानों के अनुसार अभिरक्षा में लिया जाता है।

अनुच्छेद 22 (5)

यह प्रावधान निवारक निरोध के किसी भी विधि के तहत अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति के अधिकारों के विषय में प्रावधान करता है:

प्रत्येक बंदी को उन आधारों के विषय में सूचित किया जाएगा जिन पर उसे अभिरक्षा में लिया गया है।

प्रत्येक बंदी को निरोध के आदेश के विरुद्ध़ अभ्यावेदन करने का जल्द से जल्द अवसर दिया जाएगा।

अनुच्छेद 22 (6)

धारा (5) के अंतर्गत ऐसे किसी तथ्य का प्रकटन नहीं किया जाएगा जो जनहित के विरुद्ध हो।

अनुच्छेद 22 (7)

यह उपबंध ऐसा प्रावधान करता है कि संसद विधि द्वारा निम्नलिखित निर्धारित कर सकती है:

ऐसी परिस्थितियाँ जिनके अंतर्गत किसी वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना 3 महीने से अधिक अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा जा सकता है।

किसी व्यक्ति को निवारक निरोध कानून के तहत अभिरक्षा में रखने की अधिकतम अवधि

खंड (4) के उप-खंड (ए) के तहत जाँच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया।