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सिविल कानून

न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत

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 14-Oct-2024

राजेश कुमार गुप्ता बनाम राजेंद्र एवं अन्य।

"न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता कार्यवाही दोनों के लिये आवश्यक है।"

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की अध्यक्षता में न्यायालय ने घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता दोनों में न्यायिक तटस्थता के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को अवधारित किया है। माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 11(5) के अंतर्गत दायर याचिका में एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की गई है।

राजेश कुमार गुप्ता बनाम राजेंद्र एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 24 नवंबर 2005 को राजेश कुमार गुप्ता (याचिकाकर्त्ता) और राजेंद्र एवं अन्य (प्रतिवादी) ने बिक्री और खरीद के लिये एक करार किया।
  • यह करार दिल्ली के खेड़ा कलां गांव की विस्तारित लाल डोरा आबादी के अंदर स्थित 300 वर्ग गज के एक औद्योगिक भूखंड से संबंधित था।
  • करार के साथ अतिरिक्त दस्तावेज भी संलग्न थे, जिनमें जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी, अलग से वसीयतनामा, शपथ पत्र, रसीद एवं कब्ज़ा पत्र शामिल थे, सभी 24 नवंबर 2005 के हैं।
  • विषयगत भूखंड मूल रूप से 6 मई 2005 को प्रतिवादियों को आवंटित किया गया था, तथा बाद में आवंटन के छह महीने के अंदर याचिकाकर्त्ता को बेच दिया गया था।
  • 10 दिसंबर 2007 को, मूल खसरा नंबर 108/357 (0-06) प्रतिवादियों से वापस ले लिया गया था, तथा उन्हें इसके स्थान पर खसरा नंबर 108/176 (0-06) आवंटित किया गया था।
  • 10 अगस्त 2020 को याचिकाकर्त्ता को पता चला कि विषयगत भूखंड किसी अज्ञात तीसरे पक्ष के कब्जे में था, जिसने दावा किया कि प्रतिवादियों से वापसी के बाद यह उन्हें आवंटित किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने 27 अगस्त 2020 को प्रतिवादियों को एक मांग के साथ कानूनी नोटिस भेजा, जिसमें हुए नुकसान के लिये मुआवजे की मांग की गई।
  • प्रतिवादियों ने 11 सितंबर 2020 को जवाब दिया, जिसमें 24 नवंबर 2005 को बिक्री और खरीद के समझौते के निष्पादन से मना किया गया।
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(5) के अंतर्गत एक याचिका दायर की, जिसमें पक्षों के बीच विवादों का निपटान के लिये एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग की गई।
  • याचिकाकर्त्ता का दावा मुख्य रूप से प्लॉट के लिये भुगतान की गई प्रतिफल राशि की वापसी के लिये है।
  • प्रतिवादियों ने परिसीमा तथा गैर-मध्यस्थता के आधार पर याचिका का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि दावा का समय-बाधित है तथा इसमें तीसरे पक्ष के अधिकार शामिल हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पुष्टि की कि मध्यस्थता कार्यवाही में न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता दोनों के लिये मौलिक है।
  • न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर इसकी भूमिका मध्यस्थता करार के अस्तित्व को निर्धारित करने तक सीमित है, न कि मूल मुद्दों पर गहराई से विचार करने तक।
    • न्यायालय ने कहा कि एक बार मध्यस्थता करार हो जाने के बाद, पक्षों के लिये सिविल न्यायालय में जाने का विकल्प उपलब्ध नहीं होता।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि वह मध्यस्थता करार के अस्तित्व से परे मुद्दों की जाँच करता है, तो यह मध्यस्थ अधिकरण की शक्ति का अतिक्रमण होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा एवं तीसरे पक्ष के अधिकार जैसे मामलों को मध्यस्थ द्वारा तय किये जाने के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि दावा तुच्छ या परिसीमा द्वारा वर्जित पाया जाता है, तो मध्यस्थ के पास दावेदार पर लागत लगाने की शक्ति है।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि इस स्तर पर न्यायिक हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिये, जो कि मध्यस्थ स्वायत्तता के सिद्धांतों के अनुरूप हो।
  • न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ के समक्ष कार्यवाही दोनों पक्षों को परिसीमा एवं मध्यस्थता सहित सभी मुद्दों पर अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर प्रदान करेगी।

न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत क्या है?

  • न्यायिक तटस्थता का सिद्धांत आधुनिक मध्यस्थता विधि का केंद्रीय सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य मध्यस्थता प्रक्रिया की स्वायत्तता को संरक्षित करना एवं न्यायालयी हस्तक्षेप को न्यूनतम करना है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में:
    • न्यूयॉर्क कन्वेंशन एवं UNCITRAL मॉडल विधान जैसे प्रमुख सम्मेलनों में न्यायालय के हस्तक्षेप को विशिष्ट मामलों तक सीमित करके इस सिद्धांत को सुनिश्चित किया गया है।
    • UNCITRAL मॉडल विधान के अनुच्छेद 5 में कहा गया है: "इस विधान द्वारा शासित मामलों में, कोई भी न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगा, सिवाय इसके कि इस विधान में ऐसा प्रावधान हो।"
    • इस सिद्धांत का उद्देश्य प्रक्रियात्मक मामलों में पक्ष की स्वायत्तता एवं मध्यस्थ के विवेक को संरक्षित करना है।
  • भारतीय घरेलू मध्यस्थता में:
    • माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 में इस सिद्धांत को शामिल किया गया है, जिसे UNCITRAL मॉडल विधान के आधार पर बनाया गया है।
    • अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है: "इस समय लागू किसी अन्य विधान में निहित किसी भी प्रावधान के बावजूद, इस भाग द्वारा शासित मामलों में, कोई भी न्यायिक प्राधिकरण हस्तक्षेप नहीं करेगा, सिवाय इसके कि इस भाग में ऐसा प्रावधान किया गया हो।"
    • अधिनियम का उद्देश्य न्यायालय के हस्तक्षेप को कम से कम करना है, इसे मध्यस्थों की नियुक्ति, अंतरिम उपाय प्रदान करने तथा सीमित आधारों पर पंचाटों को रद्द करने जैसे विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित करना है।
  • प्रमुख विधिक सिद्धांत:
    • न्यायालयों को मध्यस्थता में न्यायिक भूमिका के बजाय केवल प्रशासनिक भूमिका निभानी चाहिये।
    • न्यायिक हस्तक्षेप विधान में विशेष रूप से दिये गए मामलों तक ही सीमित होना चाहिये।
    • न्यायालयों को मध्यस्थ अधिकरणों की अपने अधिकार क्षेत्र पर निर्णय लेने की क्षमता का सम्मान करना चाहिये।
    • मध्यस्थ पंचाटों को रद्द करने या लागू करने से मना करने के आधारों की संकीर्ण रूप से निर्वचन किया जाना चाहिये।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11(5) क्या है?

  • यह उस स्थिति में एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त करने से संबंधित है जब पक्षकार सहमत होने में विफल होते हैं।
  • मध्यस्थ नियुक्त करने की प्राथमिक विधि पक्षों के बीच करार के माध्यम से होती है।
  • यदि पक्षकारों ने मध्यस्थ नियुक्त करने की प्रक्रिया पर पहले से सहमति नहीं जताई है, तो इस धारा में उल्लिखित प्रक्रिया लागू होती है।
  • ऐसे मामलों में जहाँ एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया जाना है, पक्षों के पास मध्यस्थ पर सहमत होने के लिये दूसरे पक्ष से अनुरोध प्राप्त होने की तिथि से 30 दिन का समय होता है।
  • यदि पक्षकार इस 30-दिवसीय अवधि के अंदर किसी समझौते पर पहुँचने में विफल रहते हैं, तो कोई भी पक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये आवेदन कर सकता है।
  • नियुक्ति के लिये आवेदन धारा 11 की उपधारा (4) में निहित प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय (या नामित प्राधिकारी) को ऐसे आवेदन पर नियुक्ति करने का अधिकार है।
  • इस प्रावधान का उद्देश्य मध्यस्थ पर सहमत होने में पक्षों की असमर्थता के कारण मध्यस्थता प्रक्रिया में गतिरोध को रोकना है।
  • 30 दिन की अवधि पक्षों के लिये न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग करने से पहले एक समझौते पर पहुँचने का प्रयास करने के लिये एक उचित समय परिसीमा के रूप में कार्य करती है।
  • यह धारा मध्यस्थता में पक्ष स्वायत्तता के सिद्धांत को दर्शाती है, जो पक्षों को अपने मध्यस्थ को चुनने का प्राथमिक अधिकार देती है, साथ ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये एक फ़ॉलबैक तंत्र भी प्रदान करती है।
  • इस धारा के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति में न्यायालय की भूमिका न्यायिक के बजाय प्रशासनिक प्रकृति की होती है, जो मध्यस्थता में न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत के अनुरूप है।