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सांविधानिक विधि

दण्ड की आनुपातिकता निर्धारित करने के सिद्धांत

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 26-Feb-2025

सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद और अन्य 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि असंगत दण्ड अधिरोपित किये जाने से न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, जिससे सदस्य को सदन की कार्यवाही में भाग लेने से वंचित किया जाता है, अपितु उस निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को भी प्रभावित करता है, जो प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाते है।” 

न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह। 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह की पीठ ने राष्ट्रीय जनता दल (Rashtriya Janata Dal) MLC (विधान परिषद सदस्य) सुनील कुमार सिंह के निष्कासन को खारिज कर दिया है और इस बात पर बल दिया कि विधायी कदाचार के लिये दण्ड आनुपातिक होना चाहियेइसने कहा कि असंगत कार्रवाई लोकतंत्र को कमजोर करती है और मतदाताओं को प्रतिनिधित्व से वंचित कर देती है। 

  • उच्चतम न्यायालय ने सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद और अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया 

सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • याचिकाकर्त्ता, राष्ट्रीय जनता दल (Rashtriya Janata Dal) पार्टी से MLC (विधान परिषद सदस्य) हैं, जिन्हें 29 जून 2020 को छह वर्ष के कार्यकाल के लिये बिहार विधान परिषद (Bihar Legislative Council) के लिये चुना गया था और उन्होंने बिहार विधान परिषद (BLC) में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के मुख्य सचेतक के रूप में कार्य किया था।  
  • बिहार में राजनीतिक परिदृश्य तब बदल गया जब जनवरी 2024 में JDU (वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार भंग हो गई, जिसके बाद JDU ने भाजपा के साथ एक नया गठबंधन बनाया।  
  • 13 फरवरी 2024 को बिहार विधान परिषद (BLC) के 206वें सत्र के दौरान, राज्यपाल के अभिभाषण के बाद और धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान, याचिकाकर्त्ता और एक अन्य MLC (विधान परिषद सदस्य), मोहम्मद सोहैब, सदन के वेल में पहुँचे और कथित तौर पर मुख्यमंत्री के विरुद्ध अभद्र नारे लगाए।   
  • याचिकाकर्त्ता ने कथित तौर पर मुख्यमंत्री को "पलटू राम" कहकर उनका मजाक उड़ाया, उनके हाव-भाव की नकल की, उनके चुनावी अनुभव की कमी के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की, उन्हें "जोड़-तोड़ में माहिर" बताया और उनकी तुलना प्रतिवर्ष अपनी केंचुल उतारने वाले साँप से की। 
  • इन कार्यों से कथित तौर पर सदन की कार्यवाही बाधित हुई, जिसके कारण 19 फरवरी 2024 को BLC के एक JDU सदस्य ने दोनों MLCs के विरुद्ध परिवाद दर्ज कराया 
  • BLC के अध्यक्ष ने परिवाद को जांच के लिये आचार समिति को भेज दिया और दोनों MLCs को 03 मई 2024 को कार्यवाही में समीलित होने का निदेश दिया। 

  • जबकि मोहम्मद सोहैब समिति के समक्ष उपस्थित हुए, खेद व्यक्त किया और भविष्य में संयम बरतने का आश्वासन दिया, याचिकाकर्त्ता लोकसभा चुनाव प्रचार उत्तरदायित्त्वों सहित विभिन्न व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उपस्थित नहीं हुए। 
  • याचिकाकर्त्ता को उसके विरुद्ध आरोपों के संबंध में दस्तावेज़ी साक्ष्य का अनुरोध करने के बावजूद 3 मई 2024, 22 मई 2024, 31 मई 2024 और 06 जून 2024 को उपस्थिति से कई बार छूट दी गई। 
  • 12 जून 2024 को, याचिकाकर्त्ता अंततः आचार समिति के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे आरोपों के बारे में जानकारी दी गई, किंतु कथित तौर पर उसने आरोपों का समाधान करने के बजाय समिति के अधिकार पर प्रश्न उठाया। 
  • आचार समिति ने याचिकाकर्त्ता को सूचित किये बिना अगली कार्यवाही को 19 जून 2024 से 14 जून 2024 तक एकतरफा रूप से पुनर्निर्धारित किया और उस तिथि को याचिकाकर्त्ता को BLC से निष्कासित करने की सिफारिश करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। 
  • मोहम्मद सोहैब के लिये, समिति ने आगामी सत्र के लिये दो दिवसीय निलंबन की सिफारिश की। 
  • 26 जुलाई 2024 को सदन ने बहुमत से इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया, याचिकाकर्त्ता को निष्कासित कर दिया और मोहम्मद सोहैब को दो दिनों के लिये निलंबित कर दिया। 
  • BLC सचिवालय ने 26 जुलाई 2024 को एक अधिसूचना जारी कर याचिकाकर्त्ता की सदस्यता समाप्त कर दी और एक एक पद रिक्त घोषित कर दिया।  
  • याचिका के लंबित रहने के दौरान, 30 दिसंबर 2024 को भारत के चुनाव आयोग ने एक प्रेस नोट जारी कर याचिकाकर्त्ता की पूर्व सीट के लिये उपचुनाव की घोषणा की, जिसकी प्रक्रिया 25 जनवरी 2025 तक पूरी होनी थी। 
  • उच्चतम न्यायालय ने 15 जनवरी 2025 के आदेश के माध्यम से इस मामले के समाधान तक उपचुनाव के नतीजों की घोषणा पर रोक लगा दी। 
  • इस मामले में मुख्य विवाद्यक: 
    • क्या उच्चतम न्यायालय RJD MLC सुनील कुमार सिंह को निष्कासित करने के बिहार विधान परिषद के निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है।  
    • यह जांच करता है कि संविधान के अनुच्छेद 212(1) के बावजूद आचार समिति की कार्यवाही न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आती है या नहीं। 
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय को यह निर्धारित करना होगा कि क्या दण्ड अनुपातहीन था और यदि ऐसा है, तो क्या उसके पास दण्ड को संशोधित करने का अधिकार है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि विधायी निकायों के पास सदस्यों को अनुशासित करने के लिये अंतर्निहित विशेषाधिकार होते हैं, किंतु ऐसी शक्तियां सांविधानिक सीमाओं से सीमित होती हैं और उचित मामलों में न्यायिक जांच के अधीन होती हैं। 
  • न्यायालय ने उल्लेख किया कि विधायकों के विरुद्ध असंगत दण्ड दोहरे सांविधानिक उल्लंघन के समान है, क्योंकि यह एक ओर सदस्य को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भाग लेने से वंचित करता है तथा दूसरी ओर निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के प्रभावी प्रतिनिधित्व के अधिकार का हनन करता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि विधायी कार्यवाही से अस्थायी बहिष्कार भी महत्त्वपूर्ण विधायी विचार-विमर्श के दौरान सांविधानिक दायित्त्वों का निर्वहन करने की सदस्य की क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।   
  • न्यायालय ने कहा कि सांविधानिक न्यायालय सांविधानिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार विधायी निकायों द्वारा अधिरोपित किये गए अत्यधिक या असंगत दण्डात्मक उपायों पर प्रथम दृष्टया पुनर्विचार करने के लिये कर्तव्यबद्ध हैं।  
  • न्यायालय ने कहा कि विधायकों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई मुख्य रूप से सुधारात्मक होनी चाहिये न कि प्रतिशोधात्मक, जिसका मुख्य उद्देश्य संसदीय शिष्टाचार को बनाए रखना है। 
  • न्यायालय ने प्रतिबंधों की आनुपातिकता के मूल्यांकन के लिये एक बहुआयामी रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसमें बाधा उत्पन्न करना, संस्थागत गरिमा को क्षति कारित करना, सदस्य का पूर्ववर्ती आचरण, कम प्रतिबंधात्मक विकल्पों की उपलब्धता और प्रतिस्पर्धी हितों का संतुलन सम्मिलित है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि विधायी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों को संस्थागत अखंडता और प्रतिनिधि लोकतांत्रिक सिद्धांतों दोनों को संरक्षित करने के लिये औचित्य, आवश्यकता और न्यायसंगत संतुलन के त्रिपक्षीय परीक्षण को पूरा करना चाहिये 

विधानमंडल के सदस्य पर अधिरोपित किये गए दण्ड की आनुपातिकता निर्धारित करने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत क्या हैं? 

  • अनुशासनात्मक उद्देश्य, प्रतिशोध नहीं: न्यायालय ने कहा है कि विधायकों को दण्डित करने का उद्देश्य मुख्य रूप से दण्डात्मक उद्देश्यों के बजाय अनुशासनात्मक कार्य करने का होना चाहिये और प्रतिशोध के बजाय शिष्टाचार बनाए रखना का होना चाहिये, रचनात्मक बहस के लिये माहौल बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये 
  • बाधा मूल्यांकन: न्यायालयों को इस बात पर विचार करना चाहिये कि सदस्य ने सदन की कार्यवाही में किस हद तक बाधा पहुँचाई है, तथा यह भी ध्यान रखना चाहिये कि व्यवधान के विभिन्न स्तरों के लिये अलग-अलग अनुशासनात्मक उपाय किये जाने चाहिये 
  • संस्थागत गरिमा और आचरण स्वरूप: सदन की प्रतिष्ठा पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करते समय संबंधित सदस्य के पूर्व आचरण स्वरुप एवं उनके पश्चात् के कार्यों, जिसमें पश्चाताप की अभिव्यक्ति एवं संस्थागत तंत्र के प्रति सहयोग भी सम्मिलित है, का सम्यक् रूप से विचार किया जाना चाहिये 
  • न्यूनतम आवश्यक प्रतिबंध: किसी भी अनुशासनात्मक कार्रवाई को कदाचार को संबोधित करने में सक्षम कम से कम प्रतिबंधात्मक उपाय का प्रतिनिधित्व करना चाहिये, यह सुनिश्चित करना चाहिये कि लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व से अनुचित रूप से समझौता न हो। 
  • प्रासंगिक मूल्यांकन: न्यायालयों को जानबूझकर अनुचित अभिव्यक्तियों और क्षेत्रीय बोली या सांस्कृतिक संदर्भ से प्रभावित अभिव्यक्तियों के बीच अंतर करना चाहिये, तथा यह भी स्वीकार करना चाहिये कि गंभीरता का आकलन करने में आशय और पृष्ठभूमि मायने रखती है। 
  • उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध: दण्ड अपने घोषित अनुशासनात्मक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये उपयुक्त होना चाहिये न कि अपने आप में दण्डात्मक होना चाहिये 
  • हितधारकों के हितों को संतुलित करना: अंत में, अनुशासनात्मक निर्णयों में कई प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन होना चाहिये - प्रतिनिधित्व के लिये मतदाताओं के अधिकार, सदस्य के व्यक्तिगत अधिकार और व्यवस्था और गरिमा बनाए रखने की विधायिका की आवश्यकता। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 212 क्या है? 

  • अनुच्छेद 212 विधायी कार्यवाहियों को प्रक्रियागत अनियमितताओं के आधार पर न्यायिक जांच से उन्मुक्ति प्रदान करता है। 
  • खण्ड (1) न्यायालयों को कथित प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के आधार पर राज्य विधायी कार्यवाही की वैधता पर प्रश्न उठाने से रोकता है। 
  • खण्ड (2) विधायी अधिकारियों या सदस्यों को न्यायिक निरीक्षण से उन्मुक्ति प्रदान करता है, जिन्हें विधायिका के भीतर प्रक्रिया को विनियमित करने, संचालन का विनियमन करने या व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियां प्राप्त हैं। 
  • यह उपबंध आंतरिक विधायी कार्यप्रणाली के चारों ओर एक सुरक्षा कवच स्थापित करके शक्तियों के पृथक्करण के सांविधानिक सिद्धांत को क्रियान्वित करता है। 
  • इस अनुच्छेद का उद्देश्य विधायी स्वतंत्रता को संरक्षित करना है, जबकि यह सुनिश्चित करना है कि विधायी निकाय अनुचित न्यायिक हस्तक्षेप के बिना अपने सांविधानिक कर्त्तव्यों का प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सकें। 
  • यद्यपि, जैसा कि उच्चतम न्यायालय द्वारा व्याख्या की गई है, यह उन्मुक्ति निरपेक्ष नहीं है और केवल सांविधानिक उल्लंघन के मामलों में न्यायिक पुनर्विलोकन की अनुमति नहीं देती है। 

आचार समिति क्या है? 

  • आचार समिति एक संसदीय निरीक्षण निकाय है जो संसद की अखंडता और गरिमा को बनाए रखने के लिये पूरे वर्ष काम करती है। 
  • इसकी स्थापना सबसे पहले 1997 में राज्य सभा में हुई थी, उसके बाद 2000 में लोकसभा में, तथा 2015 में यह स्थायी हो गई। 
  • आचार समिति की स्थापना अक्टूबर 1996 में नई दिल्ली में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में एक प्रस्ताव से हुई थी। 
  • लोकसभा आचार समिति में अध्यक्ष द्वारा अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिये नामित पंद्रह सदस्य होते हैं। 
  • आचार समिति सदस्यों द्वारा अनैतिक आचरण के बारे में शिकायतों की जांच करती है तथा उचित कार्रवाई की सिफारिश करती है। 
  • यह संसद सदस्यों के लिये आचार संहिता विकसित करने तथा उसे परिष्कृत करने के लिए जिम्मेदार है। 
  • कोई भी व्यक्ति अनैतिक आचरण के बारे में शिकायत दर्ज करा सकता है, हालांकि गैर-सांसदों को अपनी शिकायतें किसी सांसद द्वारा अग्रेषित करानी होंगी। 
  • आचार समिति विशेषाधिकार समिति से इस मायने में भिन्न है कि यह विशेष रूप से सांसदों से जुड़े कदाचार पर ध्यान केंद्रित करती है, जबकि अधिक गंभीर आरोप सामान्यतः विशेषाधिकार समिति के पास जाते हैं। 
  • 2005 में, आचार समिति ने सांसदों से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण "प्रश्न के बदले नकद" मामले की समीक्षा की, जिन पर संसद में प्रश्न पूछने के लिये कथित तौर पर धन स्वीकार करने का आरोप था।