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आपराधिक कानून
घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षण आदेश
« »09-Jan-2025
अलीशा बेरी बनाम नीलम बेरी "यह न्यायालय यह मानने के लिये बाध्य है कि DV अधिनियम के प्रावधानों के तहत दायर आवेदन में ट्रायल कोर्ट द्वारा ज़मानती वारंट जारी करने का कोई औचित्य नहीं है।" न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, अलीशा बेरी बनाम नीलम बेरी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के मामलों में संरक्षण आदेश के उल्लंघन के अलावा कोई दंडात्मक परिणाम नहीं होता है।
अलीशा बेरी बनाम नीलम बेरी मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला अलीशा बेरी (बहू) और नीलम बेरी (सास) के बीच घरेलू विवाद से संबंधित है।
- नीलम बेरी (प्रतिवादी) ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के न्यायालय में घरेलू हिंसा से महिला का संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV) के तहत अलीशा बेरी के विरुद्ध मामला दर्ज कराया था।
- अलीशा बेरी (याचिकाकर्त्ता) का एक दिव्यांग अवयस्क बेटा है जो सुनने में असमर्थ है।
- याचिकाकर्त्ता वर्तमान में बेरोज़गार है और जीवनयापन के लिये आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर है।
- अलीशा बेरी और उनके पति के बीच विवाह-विच्छेद की कार्यवाही चल रही है, जिसे पहले कुटुंब न्यायालय, पश्चिम, तीस हज़ारी, नई दिल्ली से कुटुंब न्यायालय, लुधियाना ज़िला न्यायालय, पंजाब में स्थानांतरण याचिका के माध्यम से स्थानांतरित किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने 6 फरवरी, 2024 को अलीशा बेरी (याचिकाकर्त्ता) के विरुद्ध ज़मानती वारंट जारी किया था।
- वर्तमान याचिका अलीशा बेरी द्वारा दायर की गई थी जिसमें घरेलू हिंसा के मामले को दिल्ली से मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लुधियाना, पंजाब के न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की गई थी।
- नोटिस दिये जाने के बावजूद, प्रतिवादी (नीलम बेरी) इस स्थानांतरण याचिका में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हुईं और न ही उन्होंने कोई प्रतिनिधित्व किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
- उच्चतम न्यायालय ने ज़मानती वारंट जारी करने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के मामले में ऐसे वारंट जारी करने का "कोई औचित्य नहीं" है।
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत कार्यवाही अर्द्ध-आपराधिक प्रकृति की है और इसमें दंडात्मक परिणाम नहीं होते, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जहाँ संरक्षण आदेश का उल्लंघन हुआ हो।
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध ज़मानती वारंट जारी करने का निर्देश देना "बिल्कुल अनुचित" था।
- उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय देते समय कई कारकों पर विचार किया:
- याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुतियाँ दी गईं।
- रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री।
- तथ्य यह था कि संबंधित विवाह-विच्छेद की कार्यवाही पहले ही लुधियाना स्थानांतरित कर दी गई थी।
संरक्षण आदेश क्या है?
- संरक्षण आदेश को घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (o) के तहत परिभाषित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि:
- संरक्षण आदेश का तात्पर्य धारा 18 के अंतर्गत जारी आदेश से है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 में मजिस्ट्रेट को संरक्षण आदेश देकर प्रतिवादी को कुछ कार्य करने से (सुनवाई का अवसर प्रदान करने के बाद) प्रतिबन्धित करने की शक्ति बताई गई है:
- घरेलू हिंसा का कोई भी कृत्य करना।
- घरेलू हिंसा के कृत्यों में सहायता करना या उकसाना।
- पीड़ित व्यक्ति के कार्यस्थल में प्रवेश करना, या यदि पीड़ित व्यक्ति बच्चा है तो उसके स्कूल में या किसी अन्य ऐसे स्थान पर जहाँ पीड़ित व्यक्ति अक्सर आता-जाता हो।
- पीड़ित व्यक्ति के साथ किसी भी रूप में संवाद करने का प्रयास करना, चाहे वह व्यक्तिगत, मौखिक या लिखित या इलेक्ट्रॉनिक या टेलीफोन संपर्क ही क्यों न हो।
- मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना पीड़ित व्यक्ति और प्रतिवादी द्वारा संयुक्त रूप से या प्रतिवादी द्वारा अकेले दोनों पक्षों द्वारा उपयोग में लाई गई या रखी गई या उपभोग की गई किसी भी संपत्ति, चालू बैंक लॉकर या बैंक खाते को, जिसमें उसका स्त्रीधन या पक्षों द्वारा संयुक्त रूप से या अलग-अलग रखी गई कोई अन्य संपत्ति भी शामिल है, ज़ब्त करना।
- आश्रितों, अन्य रिश्तेदारों या किसी ऐसे व्यक्ति के साथ हिंसा करना जो पीड़ित व्यक्ति को घरेलू हिंसा से निपटने में सहायता देता हो।
- संरक्षण आदेश में निर्दिष्ट कोई अन्य कार्य करना।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 21 के अनुसार, मजिस्ट्रेट संरक्षण आदेश के लिये आवेदन की सुनवाई के किसी भी चरण में, पीड़ित व्यक्ति या उसकी ओर से आवेदन करने वाले व्यक्ति को किसी भी बच्चे या बच्चों की अस्थायी हिरासत प्रदान कर सकता है।
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 की उपधारा (1) में कहा गया है कि धारा 18 के तहत बनाया गया संरक्षण आदेश तब तक लागू रहेगा जब तक पीड़ित व्यक्ति उन्मुक्ति के लिये आवेदन नहीं करता।
संरक्षण आदेश का उल्लंघन क्या है?
- घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 31 में कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा संरक्षण आदेश या अंतरिम संरक्षण आदेश का उल्लंघन इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध माना जाएगा।
- वह किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा, या जुर्माने से, जो बीस हज़ार रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डनीय होगा।
- धारा 31 की उपधारा (1) के अधीन अपराध का विचारण, जहाँ तक संभव हो, उस मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाएगा जिसने वह आदेश पारित किया था, जिसका उल्लंघन अभियुक्त द्वारा किया जाना अभिकथित किया गया है।
- उपधारा (1) के अधीन आरोप विरचित करते समय, मजिस्ट्रेट भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498A या उस संहिता के किसी अन्य उपबंध या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961, जैसी भी स्थिति हो, के अधीन भी आरोप विरचित कर सकेंगे, यदि तथ्यों से उन उपबंधों के अधीन अपराध का पता चलता है।