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आपराधिक कानून

विचाराधीन कैदियों की रिहाई

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 23-Oct-2024

1382 जेलों में अमानवीय परिस्थितियाँ- का मामला 

"कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की रिपोर्टों की सरसरी जाँच से पता चलता है कि BNSS की धारा 479 के तहत लाभ पाने के हकदार विचाराधीन कैदियों की पहचान की प्रक्रिया में कुछ कमी है।"

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 1382 जेलों में अमानवीय परिस्थितियों के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 479 को सभी राज्यों में प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिये।

1382 जेलों में अमानवीय परिस्थितियों के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में श्री गौरव अग्रवाल इस मामले में एमिकस क्यूरी (न्यायालय का मित्र) के रूप में कार्य कर रहे हैं और उन्होंने विभिन्न राज्यों से प्राप्त जानकारी का सारांश प्रस्तुत किया है।
  • सात राज्यों - बिहार, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, ओडिशा और केरल ने अपनी जेलों की परिस्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है।
  • तीन राज्यों - उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल - ने 300-300 पृष्ठों से अधिक की विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है।
  • पाँच राज्यों - तेलंगाना, असम, गुजरात, तमिलनाडु और महाराष्ट्र से अतिरिक्त हलफनामे प्राप्त हुए हैं।
  • इस मामले में निम्नलिखित की समीक्षा शामिल है:
    • जेल में भीड़भाड़
    • बुनियादी ढाँचे में सुधार की आवश्यकता 
    • महिला कैदियों के लिये विशेष सुविधाएँ
    • अपनी माताओं के साथ रहने वाले बच्चों के लिये सुविधाएँ
    • शौचालय, बाथरूम और रसोई जैसी बुनियादी सुविधाएँ
    • नशा मुक्ति केंद्र सहित चिकित्सा सुविधाएँ
    • नई जेलों का निर्माण और मौजूदा जेलों का विस्तार
  • विभिन्न राज्यों में जेल की परिस्थिति की जाँच करने और सिफारिशें करने के लिये ज़िला एवं सत्र न्यायाधीशों के अधीन विभिन्न समितियाँ गठित की गई हैं।
  • यह मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत कैदियों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने से संबंधित है।
  • यह एक ऐसा मामला है जिसमें उच्चतम न्यायालय भारत के विभिन्न राज्यों में जेल सुधारों और सुधारों के कार्यान्वयन की निगरानी कर रहा है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थी?

  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित टिप्पणियाँ कीं:
    • राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासन ने जेल की परिस्थिति की गंभीरता को पूरी तरह से नहीं पहचाना है।
    • न्यायालय ने जेल संबंधी मुद्दों के समाधान में सुस्ती और तत्परता की कमी का उल्लेख किया तथा कहा कि राज्य के अधिवक्ता आमतौर पर ठोस समाधान प्रदान करने के बजाय केवल अधिक समय की मांग करते हैं।
    • न्यायालय ने बिहार राज्य के दृष्टिकोण को विशेष रूप से असंतोषजनक पाया तथा कहा कि वे अत्यावश्यक मामलों के प्रति लापरवाह हैं, जिन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।
    • अनुमोदन प्रक्रियाओं के संबंध में न्यायालय ने कहा कि विभिन्न जेल सुधार परियोजनाओं के लिये अनुमोदन देने में देरी का कोई वैध कारण नहीं था।
    • न्यायालय ने चिंता व्यक्त की कि मामलों को जेल अधीक्षकों पर छोड़ना अप्रभावी है, क्योंकि वे सबसे कनिष्ठ अधिकारी हैं, जो उच्च-स्तरीय निर्णयों को प्रभावित नहीं कर सकते।
    • न्यायालय ने कहा कि केवल बड़े परिसर क्षेत्र का अर्थ स्वतः ही जेल की क्षमता में वृद्धि नहीं है - प्रत्येक कैदी के लिये उचित सुविधाएँ ही मायने रखती हैं।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उचित जेल सुविधाओं में निम्नलिखित शामिल होने चाहिये:
      • पर्याप्त शयन क्षेत्र
      • जेल के भीतर गतिशीलता
      • रसोई और भोजन सुविधाएँ
      • स्वास्थ्य सुविधाएँ
      • अन्य बुनियादी सुविधाएँ
    • न्यायालय ने दृढ़तापूर्वक कहा कि कैदियों को COI की धारा 21 के तहत संरक्षण प्राप्त है तथा हिरासत में रहने के दौरान भी उनके मौलिक अधिकार बरकरार रहते हैं।
    • न्यायालय ने कहा कि पूर्व निर्णयों (जैसे राममूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य) में पहचानी गई कई समस्याएँ आज भी भारतीय जेलों में बनी हुई हैं।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सभी हितधारकों को "इस अवसर का लाभ उठाना" चाहिये तथा इन मामलों को लापरवाही से लेने के बजाय यथाशीघ्र अपने दायित्वों को पूरा करना चाहिये।
    • न्यायालय ने इसे "अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण" पाया कि राज्य के अधिवक्ता अपने-अपने राज्यों से उचित निर्देश न मिलने के कारण न्यायालय के प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं दे सके।
    • न्यायालय ने कहा कि राज्यों को जेल संबंधी मुद्दों पर समग्र रूप से विचार करने की आवश्यकता है, जिसमें बुनियादी ढाँचे और स्टाफिंग आवश्यकताएँ जैसे वार्डन, रसोइये, डॉक्टर तथा अन्य जेल कर्मचारी शामिल हैं।
    • उपर्युक्त टिप्पणियों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने माना कि BNSS की धारा 479 को सभी राज्यों में प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिये।

विचाराधीन कैदी किसे माना जाता है?

  • विचाराधीन कैदी वह व्यक्ति होता है जिसे न्यायालय द्वारा हिरासत में रखा गया है और वह किसी अपराध के लिये सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहा है। 
  • 78वें विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार विचाराधीन कैदी में वह व्यक्ति भी शामिल होता है, जो जाँच के दौरान न्यायिक हिरासत में रिमांड में होता है।

भारत में विचाराधीन कैदियों की परिस्थिति क्या है?

  • विचाराधीन कैदियों की संख्या 77% है, जो कि दोषियों की संख्या का तीन गुना है।
  • जेल सांख्यिकी भारत 2021 के रिकॉर्ड के अनुसार:
    • विचाराधीन कैदियों की संख्या वर्ष 2020 में 3,71,848 से बढ़कर वर्ष 2021 में 4,27,165 हो गई है, जो इस अवधि के दौरान 14.9% की वृद्धि है।
    • 31 दिसंबर, 2021 तक 4,27,165 विचाराधीन कैदियों में से सबसे अधिक विचाराधीन कैदी ज़िला जेलों (51.4%, 2,19,529 विचाराधीन कैदी) में बंद थे, इसके बाद केंद्रीय जेल (36.2%, 1,54,447 विचाराधीन कैदी) और उप-जेलों (10.4%, 44,228 विचाराधीन कैदी) का स्थान है।
    • वर्ष 2021 के अंत में देश में सबसे अधिक विचाराधीन कैदी उत्तर प्रदेश में (21.2%, 90,606 विचाराधीन कैदी) हैं, इसके बाद बिहार (13.9%, 59,577 विचाराधीन कैदी) और महाराष्ट्र (7.4%, 31,752 विचाराधीन कैदी) का स्थान है।
    • 4,27,165 विचाराधीन कैदियों में से केवल 53 सिविल कैदी थे।
    • 5,54,034 कैदियों में से 68% अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं।

विचाराधीन कैदियों के समक्ष क्या समस्याएँ हैं?

  • जेल खतरनाक स्थान होती हैं और इसलिये विचाराधीन कैदियों को शारीरिक दुर्व्यवहार, यातना, समूह हिंसा जैसे दुर्व्यवहार तथा हिंसा का सामना करना पड़ता है।
  • आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण कई कैदी ज़मानत पाने में असमर्थ होते हैं।
  • इनमें से अधिकांश जेलों में कैदियों की अधिक संख्या तथा सुरक्षित एवं स्वस्थ परिस्थितियों में कैदियों को रखने के लिये पर्याप्त स्थान की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • परिवार में कमाने वाले सदस्य के अभाव में परिवार गरीबी में जीने को मजबूर हो जाता है और बच्चे भटक जाते हैं।
  • वे प्रायः कई वर्षों तक जेल में उपेक्षित रहते हैं तथा कुछ मामलों में तो यह सज़ा उनके द्वारा किये गए अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम सज़ा से भी अधिक हो जाती है।
  • परिस्थितिजन्य और युवा अपराधी अक्सर पूर्ण अपराधी बन जाते हैं।

BNSS की धारा 479 के तहत विचाराधीन कैदी को अधिकतम कितनी अवधि के लिये हिरासत में रखा जा सकता है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 479 (1) में प्रावधान है कि जहाँ किसी व्यक्ति ने किसी कानून के तहत अपराध (ऐसा अपराध नहीं है जिसके लिये उस कानून के तहत सज़ा के रूप में मृत्यु या आजीवन कारावास की सज़ा निर्दिष्ट की गई है) की इस संहिता के तहत जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान उस कानून के तहत उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक की अवधि के लिये हिरासत में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा किया जाएगा:
    • परंतु जहाँ ऐसा व्यक्ति प्रथम बार अपराधी है (जिसे पहले कभी किसी अपराध के लिये दोषसिद्ध नहीं किया गया है) उसे न्यायालय द्वारा बॉण्ड पर रिहा कर दिया जाएगा, यदि वह उस कानून के अधीन ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक-तिहाई तक की अवधि के लिये रोका गया है:
    • आगे यह भी प्रावधान है कि न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा लिखित रूप में अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर रोक के रखने का आदेश दे सकेगा या उसे उसके बॉण्ड के स्थान पर ज़मानत बॉण्ड पर रिहा कर सकेगा:
    • यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को अन्वेषण, जाँच या विचारण की अवधि के दौरान उस कानून के अधीन उक्त अपराध के लिये उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये रोका नहीं किया जाएगा।
    • स्पष्टीकरण.--ज़मानत मंज़ूर करने के लिये इस धारा के अधीन रोके जाने की अवधि की संगणना करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्रवाई में किये गए विलंब के कारण बिताई गई निरोध की अवधि को अपवर्जित कर दिया जाएगा।
  • उपधारा (2) में यह प्रावधान है कि: उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी और उसके तीसरे परंतुक के अधीन रहते हुए, जहाँ किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या विचारण लंबित है, उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
  • उपधारा (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ अभियुक्त व्यक्ति को रोका गया है, वहाँ का जेल अधीक्षक, उपधारा (1) में उल्लिखित अवधि का आधा या एक तिहाई पूरा हो जाने पर, जैसा भी मामला हो, ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा करने के लिये उपधारा (1) के तहत कार्रवाई करने के लिये न्यायालय को लिखित में आवेदन करेगा।

BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ क्या हैं? 

  • BNSS की धारा 479 द्वारा प्रस्तुत नई विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
    • पहली बार अपराध करने वाले व्यक्तियों को रिहा करने का प्रावधान है, यदि उन्हें ऐसे अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि के एक तिहाई तक की अवधि तक हिरासत में रखा हो।
    • उपधारा 2 के माध्यम से एक नया प्रावधान यह जोड़ा गया है कि यदि किसी विचाराधीन कैदी के विरुद्ध एक से अधिक अपराधों या अनेक मामलों में जाँच, पूछताछ या मुकदमा लंबित है तो उसे ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा।
    • इसके अलावा उप-धारा 3 जोड़ी गई है, जिसमें प्रावधान है कि जेल अधीक्षक की रिपोर्ट पर ज़मानत दी जा सकती है।

इस मामले में कौन-से ऐतिहासिक मामले उद्धृत किये गए हैं?

  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
    • यह अग्रिम ज़मानत पर एक ऐतिहासिक मामला है। 
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य मुकदमे में अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना है। 
    • यह निर्धारित करते समय कि ज़मानत दी जानी चाहिये या नहीं, उचित परीक्षण यह है कि क्या यह संभावना है कि पक्षकार अपने मुकदमे में उपस्थित होगा।
  • हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य के गृह सचिव (1980):
    • इस मामले में न्यायालय ने घोषणा की कि आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे अपराधियों के शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 की व्यापकता और विषय-वस्तु में अंतर्निहित है।
  • अब्दुल रहमान अंतुले बनाम आर.एस. नायक (1992):
    • राज्य या शिकायतकर्त्ता का यह दायित्व है कि वह मामले को उचित तत्परता के साथ आगे बढ़ाए।
    • किसी मामले में जहाँ अभियुक्त शीघ्र सुनवाई की मांग करता है और उसे नहीं दी जाती है, तो उसके पक्ष में एक प्रासंगिक कारक हो सकता है।
  • सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2022):
    • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 436 A में निहित प्रावधान किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में विशेष अधिनियमों पर भी लागू होंगे। 
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालयों, प्राधिकारियों और पुलिस अधिकारियों से निर्दोषता की अवधारणा का पालन करने के लिये कुछ ज़िम्मेदारी तथा जवाबदेही की अपेक्षा की जाती है, जिसका तात्पर्य यह है कि दोषी साबित होने तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता है।