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आपराधिक कानून

पूर्व-संज्ञान चरण पर वापसी

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 13-Mar-2025

रेणु शर्मा एवं अन्य बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर 

“विधि में संज्ञेय-पूर्व प्रक्रम पर वापसी तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन  शक्ति का प्रयोग करना स्वीकार्य नहीं है।” 

न्यायमूर्ति संजय धर 

स्रोत: जम्मू एवं कश्मीर एवं लद्दाख उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति संजय धर ने कहा कि एक बार जब मजिस्ट्रेट परिवादी का प्रारंभिक कथन अभिलिखित कर लेता है तथा मामले की सत्यता का पता लगाने के लिये जाँच का निदेश देता है, तो मजिस्ट्रेट के लिये पुलिस को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निदेश देना उचित नहीं है। 

  • जम्मू एवं कश्मीर एवं लद्दाख उच्च न्यायालय ने रेणु शर्मा एवं अन्य बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर के मामले में यह टिप्पणी की । 

रेणु शर्मा एवं अन्य बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • याचिकाकर्त्ताओं ने विशेष मोबाइल मजिस्ट्रेट (बिजली), जम्मू के समक्ष प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा दायर परिवाद के आधार पर पुलिस थाने, बख्शी नगर, जम्मू में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 461/31 के अधीन अपराधों के लिये दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट  37/2022 को चुनौती दी। 
  • परिवादी  ने आरोप लगाया कि वह सितंबर 2015 से फ्लैट नंबर 102, ब्लॉक-डी, कामधेनु होम्स, तोप शेरखानिया, जम्मू में किरायेदार था और याचिकाकर्त्ता रेणु शर्मा को 22,500 रुपये मासिक किराया दे रहा था। 
  • परिवादी  ने दावा किया कि जब वह अप्रैल 2022 में बाहर गया था, तो 9 मार्च 2022 को लौटने पर उसने पाया कि उसके घर में अतिचार, गृह भेदन, चोरी और डकैती हुई थी तथा मुख्य प्रवेश द्वार का ताला बदल दिया गया था। 
  • CCTV फुटेज की समीक्षा के बाद यह आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ताओं ने अवैध रूप से परिसर में प्रवेश किया और ताला बदल दिया। 
  • परिवादी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन एक आवेदन दायर कर  भारतीय दण्ड संहिता की धारा 453, 454, 456, 457, 379, 380 के साथ 120-ख  के अधीन अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की मांग की। 19 मार्च, 2022 को ट्रायल मजिस्ट्रेट ने परिवादी का शपथ पर प्रारंभिक कथन दर्ज किया। तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश देने के बजाय, मजिस्ट्रेट ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जम्मू को जाँच का आदेश दिया, जिसकी रिपोर्ट 24 मार्च, 2022 तक प्रस्तुत की जानी थी। 
  • यह जाँच उप पुलिस अधीक्षक मुख्यालय जम्मू द्वारा की गई, जिन्होंने 28 मार्च, 2022 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया कि: 
  • मकान मालिक ने कब्जा वापस पाने के लिये सम्यक प्रक्रिया का पालन नहीं किया था। 
  • किरायेदार नियमित रूप से किराया और अन्य बकाया राशि का संदाय नहीं करता था। 
  • मकान मालिक ने किरायेदार की सहमति के बिना ताले बदल दिये । 
  • जाँच रिपोर्ट प्राप्त करने के पश्चात्, विचारण मजिस्ट्रेट ने 29 मार्च, 2022 को थाना गृह अधिकारी, पुलिस थाना बख्शी नगर, जम्मू को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश दिया और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जम्मू को राजपत्रित रैंक के अन्वेषण अधिकारी नियुक्त करने का निदेश दिया। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने दोहराया कि एक बार जब मजिस्ट्रेट दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XV के अधीन संज्ञान ले लेता है, तो वह पूर्व-संज्ञान प्रक्रम पर वापस नहीं जा सकता है  तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट  के पंजीकरण का निदेश नहीं दे सकता है। 
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विचारण मजिस्ट्रेट द्वारा 29.03.2022 को पारित किया गया आदेश, जिसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट  संख्या 37/2022 दर्ज करने का निर्देश दिया गया था, विधिक रूप से टिकने योग्य नहीं था।  परिणामस्वरूप, इस आदेश के अधीन दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट भी रद्द कर दी गई। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक बार जब मजिस्ट्रेट दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अधीन परिवादी का प्रारंभिक कथन अभिलिखित कर लेता है, तो यह मामले का संज्ञान लेने के बराबर होता है। संज्ञान लेने के पश्चात, मजिस्ट्रेट पूर्व-संज्ञान प्रक्रम पर वापस नहीं जा सकता तथा पुलिस को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3)  के अधीन  प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निदेश नहीं दे सकता । 
  • न्यायालय ने निदेश दिया कि प्रतिवादी-परिवादी द्वारा दायर परिवाद को दण्ड प्रक्रिया संहिता  के अध्याय XV के अधीन एक निजी परिवाद के रूप में माना जाना चाहिये तथा विचारण  मजिस्ट्रेट को तदनुसार आगे बढ़ना चाहिये । 
  • न्यायालय ने आधिकारिक प्रतिवादियों को प्रथम सूचना रिपोर्ट  संख्या 113/2022 के संबंध में केस डायरी सुनवाई की अगली तारीख (22.04.2025) पर पेश करने का आदेश दिया तथा निर्देश दिया कि पूर्व में दिया गई कोई भी अंतरिम अनुतोष तब तक जारी रहेगा। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) क्या है? 

परिचय 

  • यह धारा मजिस्ट्रेट को पुलिस को संज्ञेय अपराध का विवेचना करने का निदेश देने का अधिकार देती है। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS)की धारा 175(3) इसी उपबंध से संबंधित है। 
  • यदि कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करता है तथा मजिस्ट्रेट को संतुष्ट कर देता है कि कोई अपराध किया गया है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को मामले का विवेचना करने का आदेश दे सकता है। 
  • मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यह अभिनिर्धारित करने का विवेकाधिकार है कि कोई मामला पुलिस विवेचना के योग्य है या नहीं। 
  • आपराधिक कार्यवाही की शुरूआत आम तौर पर पुलिस के पास प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने से होती है। अपितु, ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जहाँ कोई व्यक्ति, किसी अपराध के होने से व्यथित होकर, उचित एवं निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने के लिये न्यायपालिका के हस्तक्षेप की माँग करता है। 
  • धारा 156(3) तब लागू होती है जब मजिस्ट्रेट, जिसके पास धारा 190 के अधीन अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार होता है, से परिवाद या विवेचना आरंभ करने का अनुरोध करने वाला आवेदन किया जाता है। 
  • यह प्रावधान  मजिस्ट्रेट को पुलिस या किसी अन्य सक्षम प्राधिकारी को मामले की अन्वेषण करने का निदेश देने का अधिकार देता है। 

ऐतिहासिक निर्णय 

  • जॉनी जोसेफ बनाम केरल राज्य (1986): 
    • केरल उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने पर विचार करते हुए कहा कि “पुलिस रिपोर्ट पर शुरू किये  गए मामले में, न्यायालय को अपराधी पर वाद चलाने का अधिकार तभी मिलता है, जब अंतिम रिपोर्ट दायर की जाती है तथा संज्ञान लिया जाता है।” 
  • HDFC सिक्योरिटीज लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य (2017): 
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन  पुलिस द्वारा अन्वेषण की आवश्यकता वाले आदेश से अपूरणीय प्रकृति की क्षति नहीं हो सकती। संज्ञान का प्रक्रम मजिस्ट्रेट के समक्ष विवेचना रिपोर्ट दाखिल होने के बाद ही शुरू होगा।" 
    • यहाँ संज्ञान में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन कार्यवाही अंतर्विष्ट  है। 

दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 200 क्या है? 

के बारे में 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 किसी मजिस्ट्रेट द्वारा किसी अपराध का संज्ञान लेने की प्रक्रिया को रेखांकित करती है। 
  • जबकि यही प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 223 के अधीन आता है। 
  • यह धारा इस आवश्यकता के साथ शुरू होती है कि जो भी व्यक्ति मजिस्ट्रेट से किसी अपराध का संज्ञान लेना चाहता है, उसे लिखित परिवाद या सूचना प्रस्तुत करनी होगी। 
  • यह परिवाद उस मजिस्ट्रेट के समक्ष किया जाना चाहिये जिसका इस मामले पर क्षेत्राधिकार  हो। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता  की धारा 200 का हाशिए पर उल्लेख है “परिवादी की परीक्षा”। 

विधिक  ढाँचा 

  • इस धारा के अंतर्गत, परिवाद  पर अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट, परिवादी  एवं न उपस्थित सक्षियों की शपथ पर परीक्षा करेगा। 
  • और ऐसी परीक्षा का सार लिखित रूप में रखा जाएगा। 
  • और इस पर परिवादी एवं साक्षियों के साथ-साथ मजिस्ट्रेट द्वारा भी हस्ताक्षर किये जाएंगे। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 का परंतुक  

  • जब परिवाद लिखित रूप में किया जाता है तो मजिस्ट्रेट को परिवादी एवं साक्षियों से पुन: परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती । 
  • यदि किसी लोक सेवक ने अपने पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में कार्य करते हुए या कार्य करने का तात्पर्य रखते हुए या किसी न्यायालय में परिवाद किया है; या 
  • यदि मजिस्ट्रेट दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अंतर्गत जाँच या विचारण के लिये  मामले को किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप देता है। 
  • आगे यह भी प्रावधान है कि यदि मजिस्ट्रेट परिवादी एवं साक्षियों की परीक्षा करने के पश्चात धारा 192 के अधीन मामले को किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप देता है तो पश्चातवर्ती   मजिस्ट्रेट को उनकी पुनः परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। 

उद्देश्य 

  • यह प्रावधान आपराधिक कार्यवाही में परिवादी की भूमिका के महत्त्व को रेखांकित करता है। 
  • परिवादी की परीक्षा महज औपचारिकता नहीं है, अपितु इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि  प्रथम दृष्टया मामला स्थापित है।