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आपराधिक कानून

किशोरों का निजता का अधिकार

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 22-Aug-2024

किशोरों का निजता का अधिकार  

“उच्चतम न्यायालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को बाल पीड़ितों के समुचित पुनर्वास को सुनिश्चित करने के लिये POCSO अधिनियम की धारा 19(6) तथा किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने का निर्देश दिया है”।

न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यौन अपराधों के पीड़ितों की बेहतर सुरक्षा के लिये लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 तथा किशोर न्याय (देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया है।

  • यह आदेश पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा इन विधियों के अधीन पीड़ित की पर्याप्त देखरेख करने में विफल रहने के कारण दिया गया।
  • न्यायालय ने विशेष रूप से बाल कल्याण समिति और विशेष न्यायालय को अपराधों की तत्काल रिपोर्ट करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जैसा कि POCSO अधिनियम की धारा 19(6) में अनिवार्य है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने बड़े किशोरों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिये POCSO अधिनियम में संशोधन करने के कलकत्ता उच्च न्यायालय के सुझाव की आलोचना की तथा "गैर-शोषणकारी" कृत्यों के लिये अपवाद के विचार को अस्वीकार कर दिया।

किशोरों की निजता के अधिकार मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला 18 अक्तूबर 2023 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा दायर एक आपराधिक अपील (सं. 1451/2024) से संबंधित है।
  • मूल मामला एक आरोपी से संबंधित था, जिसे लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) के अधीन एक विशेष न्यायाधीश द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 6 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 363 तथा 366 के अधीन अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया था।
  • घटना के समय पीड़िता 14 वर्ष की बालिका थी।
  • पीड़िता की माँ ने 29 मई 2018 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई, जिसमें कहा गया कि उनकी बेटी 20 मई 2018 को बिना किसी को बताए अपने घर से चली गई थी।
  • आरोप है कि आरोपी, जो उस समय लगभग 25 वर्ष का था, ने अपनी दो बहनों की मदद से पीड़िता को अपना घर छोड़ने के लिये बहलाया-फुसलाया।
  • पीड़िता ने एक पुत्री को जन्म दिया और आरोपी ही उस बच्ची का जैविक पिता है।
  • जाँच में काफी विलंब हुआ और आरोपी को 19 दिसंबर 2021 को गिरफ्तार किया गया।
  • 27 जनवरी 2022 को आरोप-पत्र दाखिल किया गया, जिसमें आरोपियों पर POCSO अधिनियम, IPC और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया।
  • अभियोजन पक्ष ने वाद के विचारण के दौरान सात साक्षियों से पूछताछ की।
  • पीड़िता ने दावा किया कि उसने आरोपी से विवाह किया है और स्वेच्छा से अपना घर छोड़ा है एवं उसने आरोपी के साथ ही रहने की इच्छा जताई है।
  • पीड़िता की माँ ने पीडिता की आयु के साक्ष्य के तौर पर उसका जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किया।
  • पीड़िता को कुछ समय तक नरेंद्रपुर संलाप गृह में रखा गया था, उसके बाद वह अपनी माँ के घर लौट आई, परंतु बाद में वह आरोपी के साथ रहने लगी।
  • चिकित्सा साक्ष्य से पुष्टि हुई कि आरोपी ने पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे, जिसके परिणामस्वरूप एक बच्ची का जन्म हुआ।
  • आरोपी को अंततः दिसंबर 2021 में गिरफ्तारी के बाद ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय में अप्रासंगिक टिप्पणियाँ थीं, जो POCSO अधिनियम के अपराधों के संबंध में "गैर-शोषणकारी यौन कृत्य" और "बड़ी आयु के किशोरों" जैसी विधिक रूप से निराधार अवधारणाओं को प्रस्तुत करती थीं। 
    • उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 CrPC की धारा 226 और धारा 482 के अंतर्गत शक्तियों का उपयोग करके अपराध सिद्ध होने के बावजूद अभियुक्त को दोषमुक्त कर गलती से अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(2)(n) और 376(3) तथा POCSO अधिनियम की धारा 6 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि को यथावत् रखा तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि 14 वर्षीय बालिका के विरुद्ध किये गए यौन कृत्य को वर्तमान परिस्थितियों की परवाह किये बिना "गैर-शोषणकारी" नहीं कहा जा सकता।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 तथा धारा 376(2)(n) के अधीन, सहमति से बनाए गए किसी भी संबंध के बावजूद अपराध सिद्ध हो जाता है। 
    • इसने पुनः पुष्टि की कि बलात्संग जैसे गंभीर अपराध को अपराधी और पीड़ित के बीच हुए समझौते के कारण रद्द नहीं किया जा सकता, (ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य, 2012)।
  • उच्चतम न्यायालय ने राज्य द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 19(6) और किशोर न्याय अधिनियम की प्रासंगिक धाराओं को लागू करने में विफलता पर ध्यान दिया, जिससे पीड़ित को आवश्यक देखरेख एवं सुरक्षा प्रदान की जा सकती थी।
    • इस विफलता को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत पीड़ित के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया।
  • न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे बाल पीड़ितों की उचित देखरेख एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये POCSO अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम की धारा 19(6) के प्रावधानों को सख्ती से लागू करें।
    • इसमें पीड़ित की सहायता करने तथा सहायता उपायों की समीक्षा करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति के गठन का भी आदेश दिया गया।
  • उच्चतम न्यायालय ने POCSO अधिनियम के मामलों से निपटने में न्यायपालिका सहित सभी हितधारकों से आत्मनिरीक्षण एवं सुधार की अनुशंसा की है।
    • इसने राज्यों को किशोर न्याय अधिनियम की धारा 46 के लिये नियम बनाने पर विचार करने का निर्देश दिया, जो संस्थागत देखरेख त्यागने वाले बच्चों की देखरेख से संबंधित है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि POCSO अधिनियम के पीड़ितों को तत्काल सहायता और समर्थन प्रदान करने में विफलता संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, तथा ऐसे मामलों में पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

POSCO की धारा 19(6) क्या है?

  • धारा 19(6) के अधीन विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह POCSO अधिनियम के अधीन आने वाले मामलों की सूचना विशिष्ट प्राधिकारियों को दे।
  • सूचित किये जाने वाले प्राधिकारी निम्नवत हैं: 
    a) बाल कल्याण समिति
    b)विशेष न्यायालय, या
    c)सत्र न्यायालय (जहाँ कोई विशेष न्यायालय नामित नहीं किया गया है)
  • यह रिपोर्टिंग अनावश्यक विलंब के बिना तथा मामला उनके ध्यान में आने के समय से अधिकतम चौबीस घंटे के भीतर की जानी चाहिये।
  • रिपोर्ट में निम्नलिखित बातें शामिल होनी चाहिये: 
    a) मामले का विवरण (अर्थात् कथित अपराध)
    b) बच्चे की देखरेख एवं सुरक्षा की आवश्यकता का आकलन
    c)बच्चे की देखरेख एवं सुरक्षा के संबंध में पहले से उठाए गए कदमों की जानकारी
  • यह प्रावधान बच्चे की देखरेख और सुरक्षा की आवश्यकता पर तुरंत विचार करता है, जिससे यह प्रारंभिक रिपोर्टिंग प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन जाता है।
  • यह रिपोर्टिंग एक प्रक्रियात्मक अधिदेश है, जो यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों के विरुद्ध लैंगिक अपराधों से संबंधित मामलों में उचित प्राधिकारी तुरंत शामिल हों।
  • यह प्रावधान विधिक कार्यवाही आरंभ करने तथा बाल संरक्षण उपायों के त्वरित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये है।

JJ अधिनियम, 2015 के तहत बाल कल्याण समिति क्या है?

परिचय:

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 के अध्याय V की धारा 27 बाल कल्याण समिति से संबंधित है।
  • प्रत्येक ज़िले में देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों से संबंधित मामलों को संभालने के लिये राज्य सरकार द्वारा गठित कम से कम एक बाल कल्याण समिति होनी चाहिये।
  • प्रत्येक समिति में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होने चाहिये, जिनमें कम-से-कम एक महिला और बच्चों के मुद्दों पर एक विशेषज्ञ होना चाहिये। सभी सदस्यों को नियुक्ति के दो महीने के भीतर प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।
  • समिति के सदस्यों के पास बाल कल्याण से संबंधित क्षेत्रों में विशिष्ट शैक्षिक योग्यताएँ होनी चाहिये तथा बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा या कल्याण गतिविधियों में कम-से-कम सात वर्ष का अनुभव होना चाहिये।
  • मानवाधिकार उल्लंघन, नैतिक पतन के दोषसिद्धि या बाल दुर्व्यवहार में संलिप्तता का इतिहास रखने वाले व्यक्ति समिति की सदस्यता के लिये अपात्र हैं।
  • समिति के सदस्यों की नियुक्ति अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिये की जाती है तथा उनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा कदाचार, दोषसिद्धि या बैठकों में नियमित रूप से उपस्थित न होने के कारण समाप्त की जा सकती है।
  • समिति दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समकक्ष शक्तियों के साथ एक पीठ के रूप में कार्य करती है।
  • ज़िला मजिस्ट्रेट समिति के कामकाज के विषय में शिकायतों के लिये शिकायत निवारण प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है और समिति के प्रदर्शन की त्रैमासिक समीक्षा करता है।

समिति की शक्तियाँ

  • धारा 29 समिति की शक्तियों से संबंधित है।
  • समिति को देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों की देखरेख, संरक्षण, उपचार, विकास एवं पुनर्वास के मामलों का निपटान करने के साथ-साथ उनकी मूलभूत आवश्यकताओं एवं संरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार होगा।
  • जहाँ किसी क्षेत्र के लिये समिति गठित की गई है, वहाँ ऐसी समिति को, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु इस अधिनियम में अन्यथा स्पष्ट रूप से उपबंधित के सिवाय, देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों से संबंधित इस अधिनियम के अधीन सभी कार्यवाहियों पर अनन्य रूप से विचार करने की शक्ति होगी।

समिति का कार्य

  • धारा 30 समिति के कार्यों और उत्तरदायित्वों से संबंधित है।
  • समिति अपने समक्ष प्रस्तुत बालकों की देखरेख करने, उनकी सुरक्षा और कल्याण के विषय में जाँच करने तथा अधिनियम के अधीन उचित देखरेख व्यवस्था को अधिकृत करने के लिये उत्तरदायी है।
  • समिति बाल कल्याण अधिकारी, परिवीक्षा अधिकारी, ज़िला बाल संरक्षण इकाई या गैर सरकारी संगठनों को सामाजिक जाँच करने और रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकती है।
  • समिति को बच्चों को पालन-पोषण देखरेख में रखने, व्यक्तिगत योजनाओं के माध्यम से उनकी देखरेख और पुनर्वास सुनिश्चित करने तथा बच्चे की आवश्यकताओं के आधार पर उपयुक्त पंजीकृत संस्थाओं का चयन करने का अधिकार है।
  • समिति को महीने में कम से कम दो बार बच्चों के लिये आवासीय सुविधाओं का निरीक्षण करना होगा, समर्पण विलेखों को प्रमाणित करना होगा, तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि माता-पिता को पुनर्विचार करने के लिये पर्याप्त समय मिले।
  • उसे परित्यक्त या खोए हुए बच्चों को उनके परिवारों से पुनः मिलाने के लिये प्रयास करना चाहिये तथा उचित जाँच के बाद अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पित बच्चों को गोद लेने के लिये विधिक रूप से स्वतंत्र घोषित करना चाहिये।
  • समिति कम-से-कम तीन सदस्यों के निर्णय से स्वप्रेरणा से मामलों का आरंभ कर सकती है तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के अंतर्गत यौन रूप से प्रताड़ित बालकों के पुनर्वास के लिये ज़िम्मेदार है।
  • समिति को बोर्ड द्वारा संदर्भित मामलों को संभालना होगा, पुलिस, श्रम विभागों और अन्य बाल देखरेख एजेंसियों के साथ समन्वय करना होगा, देखरेख संस्थानों में बाल दुर्व्यवहार की शिकायतों की जाँच करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को उचित कानूनी सेवाएँ प्राप्त हों।

समिति द्वारा जाँच

  • धारा 36 जाँच से संबंधित है। 
  • समिति धारा 31 के अंतर्गत बालक के प्रस्तुत होने अथवा रिपोर्ट प्राप्त होने पर जाँच करेगी।
  • समिति किसी बच्चे को बाल गृह, उपयुक्त सुविधा या उपयुक्त व्यक्ति के पास भेजने का आदेश दे सकती है, तथा सामाजिक जाँच आरंभ कर सकती है।
  • छह वर्ष से कम आयु के अनाथ, त्यागे गए या परित्यक्त बच्चों को विशेष दत्तक ग्रहण एजेंसी में रखा जाएगा, जहाँ सामाजिक जाँच भी पंद्रह दिनों के भीतर पूरी कर ली जाएगी।
  • समिति को बच्चे की पहली प्रस्तुति के चार महीने के भीतर अंतिम आदेश पारित करना होगा।
  • अनाथ, परित्यक्त या आत्मसमर्पण किये गए बच्चों के लिये जाँच पूर्ण होने का समय धारा 38 में निर्दिष्ट किया गया है।
  • यदि किसी बच्चे के पास कोई परिवार या सहारा नहीं है, तो समिति उसे उसकी आयु और आवश्यकताओं के आधार पर उचित देखरेख सुविधाओं में भेज सकती है।
  • देखरेख सुविधाओं में या योग्य व्यक्तियों/परिवारों के साथ रखे गए बच्चों की स्थिति की समिति द्वारा समय-समय पर समीक्षा की जाएगी।
  • ज़िला मजिस्ट्रेट लंबित मामलों की समीक्षा करेंगे तथा समिति को सुधारात्मक उपाय करने के निर्देश दे सकते हैं, साथ ही राज्य सरकार को भी इसकी समीक्षा करने के लिये कह सकते हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त समितियों का गठन कर सकती है तथा समिति को मामलों के निपटान तथा लंबित मामलों के बारे में त्रैमासिक रिपोर्ट ज़िला मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत करनी होगी।
  • यदि निर्देश के बाद भी तीन माह तक मामले पर कोई कार्यवाही नहीं होती है तो राज्य सरकार समिति को समाप्त कर नई समिति गठित करेगी।
  • राज्य सरकार नई समिति में तत्काल नियुक्ति के लिये पात्र व्यक्तियों का एक स्थायी पैनल बनाए रखेगी।
  • नई समिति के गठन में विलंब होने पर निकटवर्ती ज़िले की बाल कल्याण समिति यह उत्तरदायित्व ग्रहण करेगी।