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सांविधानिक विधि

जीविका वृत्ति, सम्मान एवं समानता का अधिकार

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 31-Jul-2024

गौरव कुमार बनाम भारत संघ 

“राज्य विधिज्ञ परिषदों द्वारा लगाया गया अत्यधिक नामांकन शुल्क संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(g) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो विधिक अभ्यास करने के आकांक्षी अधिवक्ताओं के समानता, जीविकावृत्ति हेतु अभ्यास एवं गरिमा के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है”।

CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

गौरव कुमार बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि राज्य विधिज्ञ परिषदों द्वारा लगाया गया उच्च नामांकन शुल्क असंवैधानिक है, क्योंकि यह विधिक अभ्यास करने के आकांक्षी अधिवक्ताओं के अभ्यास करने के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा समानता के सिद्धांतों को क्षीण करता है।

  • न्यायालय ने इन शुल्कों की एक सीमा निर्धारित करते हुए सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 750 रुपए तथा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपए निर्धारित की तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे शुल्कों से हाशिए पर पड़े समूहों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिये।

गौरव कुमार बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961 (अधिनियम) विधिक व्यवसायियों से संबंधित विधानों को संशोधित एवं समेकित करने तथा भारत के लिये एक सामान्य विधिज्ञ संघ बनाने के लिये अधिनियमित किया गया था।
  • यह अधिनियम राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) और भारतीय विधिज्ञ परिषद् (BCI) की स्थापना करता है।
  • राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) अधिवक्ताओं को भर्ती करने, सूचियाँ (रोल) बनाने, कदाचार के मामलों को संभालने और अधिवक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिये उत्तरदायी हैं।
  • भारतीय विधिज्ञ परिषद् (BCI) के कार्यों में व्यावसायिक आचरण मानक निर्धारित करना, SBC की देखरेख करना और विधिक शिक्षा को विनियमित करना शामिल है।
  • अधिवक्ता के रूप में भर्ती होने के लिये व्यक्ति को अधिनियम की धारा 24 में उल्लिखित विशिष्ट योग्यताएँ पूरी करनी होंगी।
  • धारा 24(1)(f), SBC और BCI को देय नामांकन शुल्क निर्धारित करती है।
  • SBC वैधानिक नामांकन शुल्क के अतिरिक्त भी अन्य शुल्क लेते हैं, जो कुल मिलाकर 15,000 रुपए से लेकर 42,000 रुपए तक होता है।
  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक याचिका दायर की गई थी जिसमें इन अतिरिक्त शुल्कों को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी गई थी।
  • SBC की शुल्क संरचना अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन है, संबंधित अधिकारी केवल मूल अधिनियम के विधायी आशय के अनुसार ही शुल्क लगा सकते हैं।
  • यह मामला, अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत जीविकावृत्ति के अधिकार एवं अन्य मौलिक अधिकारों जैसे- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान के अधिकार तथा अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार - पर प्रभाव डालता है तथा इन अनुच्छेदों के बीच सर्वोत्कृष्ट संबंध को प्रदर्शित करता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने इस याचिका को एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा मानते हुए इस पर अधिसूचना ज़ारी की।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों से इसी प्रकार की याचिकाएँ विचारण हेतु उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित कर दी गईं।
  • जिन मुख्य मुद्दों पर विचार किया गया, वे हैं कि क्या SBC द्वारा लिया जाने वाला नामांकन शुल्क अधिनियम की धारा 24(1)(f) का उल्लंघन करता है और क्या अन्य विविध शुल्कों को नामांकन के लिये पूर्व शर्त बनाया जा सकता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) द्वारा लिया जाने वाला अत्यधिक नामांकन शुल्क, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक आकांक्षी अधिवक्ता के वृत्ति को चुनने और सम्मान के अधिकार का उल्लंघन करती है।
  • न्यायालय ने निर्णय किया कि सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये नामांकन शुल्क 750 रुपए और SC/ST श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपए से अधिक नहीं हो सकता।
  • न्यायालय ने अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत जीविकावृत्ति के अधिकार और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान के अधिकार तथा अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार पर इसके प्रभाव के बीच संबंध पर ज़ोर दिया।
  • न्यायालय ने पाया कि उच्च नामांकन शुल्क विधिक वृत्ति में प्रवेश करने में बाधाएँ उत्पन्न करता है, विशेष रूप से हाशिए पर पड़े और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लोगों के लिये, जिससे मौलिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
  • न्यायालय ने माना कि SBC द्वारा निर्धारित अत्यधिक नामांकन शुल्क अनुच्छेद 14 के अंतर्गत स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी है और हाशिए पर पड़े वर्गों के अधिवक्ताओं के लिये आर्थिक बाधाएँ उत्पन्न करता है।
  • न्यायालय ने अधिवक्ता अधिनियम के उद्देश्य की व्याख्या, बार की समावेशिता को बढ़ावा देने के रूप में की, जिसे स्वेच्छाचारी नामांकन शुल्क को लागू करके विफल नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि SBC की अत्यधिक शुल्क वसूलने की नीति स्पष्ट रूप से स्वैच्छिक है और अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) के अनुरूप नहीं है।
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक व्यवसाय का अधिकार, अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत वैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) द्वारा मौलिक रूप से संरक्षित है, जो अनुच्छेद 19(6) के अंतर्गत तर्कसंगत प्रतिबंधों के अधीन है।
  • न्यायालय ने माना कि SBC द्वारा लिया जाने वाला वर्तमान नामांकन शुल्क अनुचित है और अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि SBC, अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) के अंतर्गत दिये गए स्पष्ट विधिक उपबंधों से परे नामांकन शुल्क नहीं ले सकते।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि SBC और BCI नामांकन की पूर्व शर्त के रूप में निर्धारित नामांकन शुल्क और स्टाम्प शुल्क के अतिरिक्त अन्य शुल्क के भुगतान की मांग नहीं कर सकते।
  • न्यायालय के निर्णय का भावी प्रभाव होगा तथा SBC को इस निर्णय की तिथि से पहले एकत्रित अतिरिक्त नामांकन शुल्क वापस करने की आवश्यकता नहीं होगी।

इसमें प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961: 
    • अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24 उन व्यक्तियों से संबंधित है जिन्हें राज्य सूची (रोल) पर अधिवक्ता के रूप में भर्ती किया जा सकता है।
    • धारा 24(1)(f) में निर्धारित किया गया है कि उसने नामांकन के संबंध में भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 (1899 का 2) के अधीन प्रभार्य स्टाम्प शुल्क, यदि कोई हो, का भुगतान कर दिया है तथा राज्य विधिज्ञ परिषद् को छह सौ रुपए तथा भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक सौ पचास रुपए का नामांकन शुल्क उस परिषद् के पक्ष में बैंक ड्राफ्ट के माध्यम से देय है।

संवैधानिक विधि: 

  • अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि से संबंधित अधिकारों के संरक्षण से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 19(1)(g) में कहा गया है कि सभी नागरिकों को कोई भी जीविका वृत्ति अपनाने, या कोई भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा।
  • अनुच्छेद 21 जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
  • प्राधिकारियों द्वारा शुल्क लगाने के लिये निर्धारित सिद्धांत: 
    • अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत प्रतिबंध लगाने की शक्ति निरपेक्ष नहीं है और इसका प्रयोग उचित तरीके से किया जाना चाहिये।
    • शुल्क या लाइसेंस वैध होने चाहिये तथा विधिक आधार पर लगाए जाने चाहिये।
    • जो भी मूल विधान की नीति के दायरे के विपरीत या उससे परे प्रत्यायोजित विधान द्वारा अनुचित प्रतिबंध लगाता है, वह अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है।

जीविकावृत्ति, सम्मान एवं समानता का अधिकार:

  • जीविकावृत्ति का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के अनुसार "सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति अपनाने, या कोई भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा”।
    • अनुच्छेद 19(6) के अधीन, जो तर्कसंगत प्रतिबंधों की अनुमति देता है।
  • सम्मान का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21के अनुसार "किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।"
    • उच्चतम न्यायालय ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है।
  • समानता का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार "राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"
  • पेशेवर क्षेत्रों में मौलिक समानता और व्यक्तिगत गरिमा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये न्यायालयों द्वारा अक्सर इन मौलिक अधिकारों को एक साथ पढ़ा जाता है।

इस मामले में किन प्रमुख न्यायदृष्टांतों का उल्लेख किया गया है?

  • रविंदर कुमार धारीवाल बनाम भारत संघ (2023):
    • न्यायालय ने माना कि सकारात्मक कार्यवाही के विभिन्न रूपों के माध्यम से परिणामों में समानता सुनिश्चित करना, वास्तविक समानता के बड़े उद्देश्य में योगदान देता है।
  • खोडे डिस्टिलरीज़ लिमिटेड बनाम कर्नाटक राज्य (1996): 
    • प्रत्यायोजित विधान को चुनौती देने के लिये स्थापित सिद्धांत: a) कार्यकारी कार्यों के लिये स्वैच्छिक कार्यवाही का परीक्षण आवश्यक रूप से प्रत्यायोजित विधान पर लागू नहीं होता है। b) प्रत्यायोजित विधान को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब वह स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी हो। c) स्पष्ट स्वैच्छिकता तब होती है जब वह विधि के अनुरूप नहीं होती है। d) प्रत्यायोजित विधान भी स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी है यदि वह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
  • मोहम्मद यासीन बनाम टाउन एरिया कमेटी (1952):
    • इस मामले में उपनियमों की वैधता तथा लाइसेंस शुल्क लगाने में अधिकरण के दायरे पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • न्यायमूर्ति एस.आर. दास ने कहा कि लाइसेंस शुल्क, व्यवसाय स्स्वामियों को प्रभावित करता है: (1) उनकी संपत्ति (धन) छीन लेना (2) उनके व्यवसाय करने के अधिकार को प्रतिबंधित करता है।
    • लाइसेंस शुल्क, अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता पाया गया और यह 'तर्कसंगत प्रतिबंधों' के अंतर्गत नहीं आता।
  • आर. एम. शेषाद्रि बनाम ज़िला मजिस्ट्रेट (1954):
    • यह मूवी थिएटर लाइसेंसधारियों पर लगाई गई शर्तों से निपटने वाला एक संविधान पीठ का मामला था।
    • इस मामले में न्यायालय ने पाया कि शर्तें अस्पष्ट, व्यापक रूप से प्रस्तुत की गई थीं तथा उनमें स्पष्ट निर्देशों का अभाव था।
    • इन शर्तों को अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन माना गया क्योंकि इनसे सिनेमा व्यवसाय पर बुरा असर पड़ा।