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सिविल कानून
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप का दायरा
« »21-Oct-2024
विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ / कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य “यदि दो दृष्टिकोण संभव थे, तो अधिकरण ने एक दृष्टिकोण अपनाया है और उक्त आधार पर आदेश को चुनौती नहीं दी जा सकती।" न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की पीठ ने कहा कि आदेश को तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कि पक्ष यह साबित नहीं कर देते कि आदेश स्पष्ट रूप से अवैध या मनमाना है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ/कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।
विवेक नायक (मृत) एवं अन्य बनाम मध्यस्थ/कलेक्टर अलीगढ़ एवं 3 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 10 जून, 2012 की अधिसूचना द्वारा गाज़ियाबाद के निकट भूमि अधिग्रहण के लिये आपत्तियाँ आमंत्रित की गई थीं।
- इसके अनुसरण में अपीलकर्त्ताओं ने आपत्ति दायर की और विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी द्वारा मुआवज़ा निर्धारित करते हुए एक निर्णय पारित किया गया।
- उक्त निर्णय से व्यथित होकर मध्यस्थ/कलेक्टर, अलीगढ़ के समक्ष एक आवेदन दायर किया गया, जिसमें छह मुद्दे तय किये गए।
- मध्यस्थ ने 29 सितंबर, 2013 के आदेश द्वारा सक्षम प्राधिकारी द्वारा पारित निर्णय को संशोधित किया।
- उपरोक्त आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश, अलीगढ़ के समक्ष मध्यस्थता मामला संख्या 80/2013 पेश किया, जिसे 15 जनवरी, 2022 के निर्णय द्वारा खारिज कर दिया गया।
- इस मामले में अपीलकर्त्ताओं ने प्रस्तुत किया कि सक्षम प्राधिकारी ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर तथा पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 की धारा 26 के अनुसार पंचाट का निर्धारण करते समय बाज़ार मूल्य पर विचार नहीं किया।
- इसके अतीरिक्त, अपीलकर्त्ताओं ने प्रस्तुत किया कि उसे भारत संघ बनाम तरसेम सिंह (2019) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार क्षतिपूर्ति और ब्याज के वैध दावे से वंचित किया गया है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि रिकाॅर्ड के अवलोकन से पता चलता है कि आदेश उचित विचार-विमर्श के बाद पारित किया गया था तथा वाणिज्यिक दर के अनुसार मुआवज़ा न देने के लिये विस्तृत कारण बताए गए हैं।
- न्यायालय ने कहा कि यदि दो दृष्टिकोण संभव हैं और अधिकरण ने एक दृष्टिकोण के आधार पर आदेश दिया है तो उसे तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कि पक्षकार यह साबित करने में सक्षम न हों कि आदेश स्पष्ट रूप से अवैध है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि क्षतिपूर्ति और ब्याज के भुगतान के संबंध में आधार स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त आधार भारत संघ बनाम तरसेम सिंह (2019) के मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद ही लिया गया था।
- दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने कहा कि तरसेम सिंह के मामले में निर्णय लगभग छह वर्ष बाद आया।
- अतः न्यायालय ने अपीलें खारिज कर दीं।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 37 के तहत अपील क्या है?
- A & C अधिनियम की धारा 37 में अपीलीय आदेश निर्धारित किये गए हैं।
- धारा 37 (1) एक सर्वोपरि खंड है जो यह प्रावधान करता है कि निम्नलिखित आदेशों के विरुद्ध अपील की जाएगी:
- धारा 8 के तहत पक्षों को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने से इनकार करना
- धारा 9 के तहत कोई उपाय प्रदान करना या प्रदान करने से इनकार करना
- धारा 34 के तहत मध्यस्थ निर्णय को रद्द करना या रद्द करने से इनकार करना
- धारा 37 (2) में प्रावधान है कि निम्नलिखित मामलों में मध्यस्थ अधिकरण के आदेश के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकेगी:
- धारा 16 (2) या धारा 16 (3) में संदर्भित दलील को स्वीकार करना
- धारा 17 के तहत अंतरिम उपाय देना या देने से इनकार करना
- धारा 37 (3) में प्रावधान है कि:
- इस धारा के अंतर्गत अपील के आदेश के विरुद्ध कोई दूसरी अपील नहीं की जा सकेगी।
- इस धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार को छीन ले।
A & C अधिनियम की धारा 34 और धारा 37 के बीच क्या संबंध है?
- A & C अधिनियम की धारा 34 में मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये आवेदन का प्रावधान है।
- न्यायालय ने माना है कि अधिनियम की धारा 37 के तहत अपील में हस्तक्षेप का दायरा प्रतिबंधित है और उन्हीं आधारों के अधीन है जिन पर अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी पंचाट को चुनौती दी जा सकती है।
- अधिनियम की धारा 37 के तहत शक्तियाँ अधिनियम की धारा 34 के तहत प्रदान किये गए हस्तक्षेप के दायरे से परे नहीं हैं।
- MMTC लिमिटेड बनाम वेदांता लिमिटेड (2019) के मामले में न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप अधिनियम की धारा 34 में निर्धारित प्रतिबंधों से आगे नहीं जा सकता है।
- धारा 37 के तहत अपील के मामले में न्यायालय को ऐसे समवर्ती निष्कर्षों को बाधित करने के लिये अत्यंत सतर्क और धीमा होना चाहिये।
A & C अधिनियम की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप के दायरे पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- कोंकण रेलवे कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम चिनाब ब्रिज प्रोजेक्ट अंडरटेकिंग (2023)
- यह निर्णय तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया था।
- न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 34 और धारा 37 के तहत अधिकारिता का दायरा सामान्य अपीलीय अधिकारिता की तरह नहीं होता है तथा न्यायालयों को मध्यस्थता के निर्णय में लापरवाही से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- तथ्यों पर वैकल्पिक दृष्टिकोण या संविदा की व्याख्या की संभावना मात्र से न्यायालयों को मध्यस्थता अधिकरण के निष्कर्षों को पलटने का अधिकार नहीं मिल जाता।
- पंजाब राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स सनमान राइस मिल्स एवं अन्य (2024):
- अधिनियम की धारा 37 की अपीलीय शक्ति अधिनियम की धारा 34 के दायरे में सीमित है।
- यह भी ध्यान रखना चाहिये कि अधिनियम की धारा 34 के तहत कार्यवाही प्रकृति में संक्षिप्त है और यह एक पूर्ण विकसित नियमित सिविल मुकदमे की तरह नहीं है। इसलिये, अधिनियम की धारा 37 का दायरा प्रकृति में बहुत अधिक संक्षिप्त है और एक सामान्य सिविल अपील की
- तरह नहीं है।
- इस तरह के पंचाट को तब तक नहीं छुआ जा सकता जब तक कि यह कानून के मूल प्रावधान; अधिनियम के किसी प्रावधान या समझौते की शर्तों के विपरीत न हो।
- अपीलीय न्यायालय के पास मध्यस्थ अधिकरण के समक्ष विवादित मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन पर मध्यस्थ अयाधिकरण का निर्णय सही है या गलत, जैसे कि वह एक
- सामान्य अपीलीय न्यायालय में बैठा हो।