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पारिवारिक कानून

निर्वाहिका पर उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण

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 20-Dec-2024

रिंकू बाहेती बनाम संदेश शारदा

"उच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि निर्वाहिका पत्नी के लिये बुनियादी जीवन स्तर सुनिश्चित करने के लियये है, न कि धन को समान करने के लिए, और पूर्व पति को विअव्ह-विच्छेद के बाद अपनी बेहतर वित्तीय स्थिति के अनुसार उसे बनाए रखने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।" न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में घरेलू हिंसा और दहेज़ कानूनों के दुरुपयोग के बारे में चिंता व्यक्त की, तथा मौद्रिक लाभ के लिये वैवाहिक विवादों में इनके दुरुपयोग के प्रति आगाह किया। निर्वाहिका के बारे में बात करते हुए न्यायालय ने कहा कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के बराबर संपत्ति के लिये स्थायी निर्वाहिका नहीं मांग सकती। जबकि पत्नी विवाह के दौरान अपने जीवन स्तर को दर्शाते हुए भरण-पोषण की हकदार होती है, विवाह-विच्छेद के बाद पति की बेहतर वित्तीय स्थिति उच्च निर्वाहिका मांगों को उचित नहीं ठहरा सकती।

रिंकू बाहेती बनाम संदेश शारदा की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता (पत्नी) और प्रतिवादी (पति) ने 31 जुलाई, 2021 को पुणे में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया और यह दोनों की दूसरा विवाह था।
  • प्रतिवादी एक अमेरिकी नागरिक है जो IT कंसल्टेंसी में काम करता है, जबकि याचिकाकर्त्ता के पास वित्त, प्राकृतिक चिकित्सा और योग विज्ञान में डिग्री है।
  • वैवाहिक कलह की शुरुआत प्रतिवादी के अपने पहले विवाह से हुए बच्चों, पूर्व पत्नी और बीमार पिता के साथ संबंधों से संबंधित मुद्दों पर हुई।
  • विवाह-विच्छेद की कई याचिकाएँ दायर की गईं - पहली हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) के तहत (वापस ले ली गई), दूसरी आपसी सहमति से (खारिज कर दी गई), और तीसरी क्रूरता के आधार पर (विवादित)।
  • याचिकाकर्त्ता ने दिसंबर 2022 में दो FIR दर्ज कीं - एक प्रतिवादी के कर्मचारी के विरुद्ध और दूसरी प्रतिवादी और उसके पिता के विरुद्ध जिसमें बलात्कार, घरेलू हिंसा और IT अधिनियम के उल्लंघन सहित विभिन्न आपराधिक अपराधों का आरोप लगाया गया।
  • प्रतिवादी को लुक आउट सर्कुलर के आधार पर मुंबई हवाई अड्डे पर गिरफ्तार किया गया था और जनवरी 2023 में ज़मानत मिलने से पहले उसे लगभग एक महीने तक हिरासत में रखा गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने विवाह-विच्छेद की कार्यवाही को भोपाल से पुणे कुटुंब न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग करते हुए स्थानांतरण याचिका दायर की।
  • प्रतिवादी ने अनुच्छेद 142(1) के तहत एक आवेदन दायर कर अपूरणीय क्षति के आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग की, जिसमें दावा किया गया कि पत्नी ने आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये बड़ी रकम (शुरू में 8 करोड़ रुपए, बाद में 25 करोड़ रुपए) की मांग की थी।
  • पत्नी ने इसका विरोध करते हुए आरोप लगाया कि पति और ससुराल वालों द्वारा भेदभाव किया जाता था, तथा प्रतिवादी की पूर्व पत्नी और बच्चों के दबाव के कारण ही विवाह-विच्छेद के प्रयास किये जा रहे थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि तलाकशुदा पत्नी केवल अपने पूर्व पति के बराबर संपत्ति का दर्जा प्राप्त करने के लिये स्थायी निर्वाहिका नहीं मांग सकती है, तथा उसने संपत्ति समानता के साधन के रूप में भरण-पोषण के दावों का उपयोग करने की प्रवृत्ति पर गंभीर आपत्तियाँ व्यक्त कीं।
  • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि जहाँ तक ​​संभव हो, पत्नी अपनी वैवाहिक जीवनशैली को बनाए रखने की हकदार होती है, वहीं पति पर अलगाव के बाद अपनी विकसित होती वित्तीय स्थिति के अनुसार उसका भरण-पोषण करने का दायित्व नहीं हो सकता।
  • न्यायालय ने भरण-पोषण की मांगों में असंगति पर प्रश्न उठाया तथा कहा कि पक्षकार संपत्ति की समानता की मांग तभी करते हैं जब पति या पत्नी आर्थिक रूप से समृद्ध होते हैं, लेकिन जब पति या पत्नी की संपत्ति अलग होने के बाद कम हो जाती है तो ऐसे दावे अनुपस्थित हो जाते हैं।
  • पीठ ने कहा कि भरण-पोषण कानून का प्राथमिक उद्देश्य निराश्रितों को सशक्त बनाना तथा सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत सम्मान प्राप्त करना होता है, न कि धन के पुनर्वितरण के लिये एक तंत्र के रूप में कार्य करना।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भरण-पोषण का निर्धारण केवल पति की आय या पूर्व समझौतों के आधार पर नहीं, बल्कि पत्नी की आय, उचित आवश्यकताओं, आवासीय अधिकारों और अन्य प्रासंगिक परिस्थितियों सहित कई कारकों पर आधारित होना चाहिये।
  • विशिष्ट मामले को संबोधित करते हुए न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता द्वारा न केवल प्रतिवादी के साथ बल्कि अपनी पूर्व पत्नी के साथ समझौते के लिये भी समानता लाने के प्रयास पर आश्चर्य व्यक्त किया।
  • पीठ ने कहा कि निर्वाहिका विवाद आमतौर पर वैवाहिक कार्यवाही का सबसे विवादास्पद पहलू बन जाता है, जिसमें अक्सर विरोधी पक्ष की संपत्ति और आय को उजागर करने के उद्देश्य से कई आरोप लगाए जाते हैं।
  • न्यायालय ने अंततः यह निर्धारित किया कि भरण-पोषण के दावों का मूल्यांकन, मामले से संबंधित विशिष्ट कारकों के आधार पर किया जाना चाहिये, न कि पिछले समझौतों के साथ तुलनात्मक विश्लेषण या केवल पति की वर्तमान वित्तीय स्थिति के आधार पर।

भारत में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत निर्वाहिका के लिये कानूनी ढाँचा

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत:
    • धारा 24: लंबित कार्यवाही के दौरान अंतरिम भरण-पोषण का प्रावधान करती है।
    • धारा 25: विवाह-विच्छेद के बाद स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण को कवर करती है।
    • यह हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों पर लागू होती है।
    • पति या पत्नी में से कोई भी भरण-पोषण का दावा कर सकता है।
  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत:
    • धारा 36: अंतरिम भरण-पोषण से संबंधित है।
    • धारा 37: विवाह-विच्छेद के बाद स्थायी निर्वाहिका प्रदान करती है।
    • अंतर-धार्मिक विवाहों पर लागू होती है।
    • हिंदू विवाह अधिनियम के समान प्रावधान।
  • भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 (ईसाइयों के लिये) के तहत:
    • धारा 36: अंतरिम भरण-पोषण को कवर करती है।
    • धारा 37: स्थायी निर्वाहिका से संबंधित है।
    • न्यायालय दोनों पति-पत्नी की आय/संपत्ति पर विचार करते हैं।
    • कार्यवाही के दौरान और विवाह-विच्छेद के बाद भरण-पोषण।
  • पारसी विवाह और विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1936 के तहत:
    • धारा 39: विशेष रूप से स्थायी निर्वाहिका का प्रावधान करती है।
    • पत्नी विवाह-विच्छेद के बाद भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
    • न्यायालय परिस्थितियों के आधार पर राशि निर्धारित करता है।
    • विवाह के दौरान जीवन स्तर पर विचार करना।
  • मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत:
    • मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 पर आधारित।
    • मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986।
    • इद्दत अवधि के दौरान भरण-पोषण प्रदान करता है।
    • इस्लामी सिद्धांतों और कुरान पर आधारित।
  • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत:
    • धारा 20: मौद्रिक अनुतोष प्रदान करती है।
    • आय की हानि और चिकित्सा व्यय को कवर करता है।
    • महिलाओं और बच्चों के लिये भरण-पोषण शामिल करता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत:
    • धारा 125: भरण-पोषण आदेश का प्रावधान।
    • सभी धर्मों पर लागू होता है।
    • पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के लिये प्रावधान करता है।
    • आपराधिक कार्यवाही के माध्यम से लागू किया जा सकता है।
  • हिंदू दत्तक भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत:
    • धारा 18: विवाह के दौरान पत्नी का भरण-पोषण पाने का अधिकार।
    • अन्य कार्यवाहियों से स्वतंत्र।
    • भरण-पोषण के दावों के लिये आधार निर्दिष्ट करता है।

भरण-पोषण की मात्रा कैसे निर्धारित होती है?

हिंदू दत्तक भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 23 के अनुसार भरण-पोषण की मात्रा:

  • पत्नी, बच्चों और वृद्ध/अशक्त माता-पिता के लिये:
  • न्यायालय को दोनों पक्षों की स्थिति और सामाजिक स्थिति पर विचार करना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भरण-पोषण उनके जीवन स्तर के अनुरूप हो।
  • दावेदार की उचित ज़रूरतों और आवश्यकताओं का मूल्यांकन बुनियादी आवश्यकताओं और जीवनशैली की आवश्यकताओं को निर्धारित करने के लिये किया जाता है।
  • यदि दावेदार अलग रहता है, तो न्यायालय यह जाँच करता है कि क्या परिस्थितियों के तहत ऐसा अलग रहना उचित है।
  • न्यायालय दावेदार के मौजूदा वित्तीय संसाधनों का आकलन करता है, जिसमें शामिल हैं:
    • स्वामित्व वाली संपत्ति का मूल्य।
    • संपत्ति से आय।
    • व्यक्तिगत आय।
    • कोई अन्य आय स्रोत।
  • उचित वितरण सुनिश्चित करने के लिये अधिनियम के तहत भरण-पोषण के हकदार व्यक्तियों की कुल संख्या पर विचार किया जाता है।
  • निर्भरों के लिये:
    • न्यायालय सभी ऋणों का लेखा-जोखा करने के बाद मृतक की संपत्ति के शुद्ध मूल्य का मूल्यांकन करता है।
    • मृतक की वसीयत में आश्रितों के लिये किये गए किसी भी प्रावधान को ध्यान में रखा जाता है।
    • निर्भरों और मृतक के बीच संबंध की डिग्री का आकलन किया जाता है।
    • न्यायालय निर्भरों की उचित आवश्यकताओं और ज़रूरतों पर विचार करता है।
    • निर्भरों और मृतक के बीच पिछले संबंधों का मूल्यांकन किया जाता है।
  • निर्भरों की वित्तीय स्थिति का आकलन निम्नलिखित माध्यम से किया जाता है:
    • स्वामित्व वाली संपत्ति का मूल्य।
    • संपत्ति से आय।
    • व्यक्तिगत आय।
    • अन्य आय स्रोत।
  • उचित वितरण के लिये अधिनियम के अंतर्गत भरण-पोषण के हकदार निर्भरों की कुल संख्या पर विचार किया जाता है।

न्यायालय द्वारा संदर्भित निर्णयज विधि क्या थे?

किरण ज्योत मैनी बनाम अनीश प्रमोद पटेल (2024):

  • उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि पक्षों की स्थिति एक महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसमें उनकी सामाजिक स्थिति, जीवनशैली और वित्तीय पृष्ठभूमि का मूल्यांकन शामिल है।
  • न्यायालय ने पत्नी और आश्रित बच्चों की उचित आवश्यकताओं का आकलन करने का आदेश दिया, जिसमें भोजन, कपड़े, आश्रय, शिक्षा और चिकित्सा देखभाल जैसे आवश्यक खर्च शामिल हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि संभावित आत्मनिर्भरता का मूल्यांकन करने के लिये पत्नी की शैक्षिक और व्यावसायिक योग्यता के साथ-साथ रोज़गार इतिहास पर भी विचार किया जाना चाहिये।
  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पत्नी के स्वामित्व वाली किसी भी स्वतंत्र आय या संपत्ति को यह निर्धारित करने के लिये ध्यान में रखा जाना चाहिये कि क्या यह वैवाहिक जीवन स्तर को बनाए रखने के लिये पर्याप्त है।
  • न्यायालय ने माना कि पारिवारिक ज़िम्मेदारियों (बच्चों का पालन-पोषण, बुज़ुर्गों की देखभाल) के लिये रोज़गार के अवसरों का त्याग करने से कैरियर की संभावनाएँ प्रभावित होती हैं, तथा इस पर उचित विचार किया जाना चाहिये।

रजनेश बनाम नेहा (2021):

  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि भरण-पोषण की गणना के लिये कोई निश्चित फार्मूला नहीं है, तथा अनेक कारकों पर संतुलित विचार करने पर बल दिया।
  • न्यायालय के मानदंड में निम्नलिखित शामिल हैं:
    • पक्षों की सामाजिक और वित्तीय स्थिति।
    • पत्नी और आश्रित बच्चों की उचित ज़रूरतें।
    • योग्यताएँ और रोज़गार की स्थिति।
    • स्वतंत्र आय/संपत्ति।
    • वैवाहिक घर का जीवन स्तर।
  • न्यायालय ने विशेष रूप से गैर-कामकाजी पत्नियों के लिये उचित मुकदमेबाज़ी लागत को विचारणीय कारक के रूप में शामिल किया।
  • निर्णय में पति की वित्तीय क्षमता पर विचार करने पर ज़ोर दिया गया, जिसमें उसकी आय, मौजूदा भरण-पोषण दायित्व और देयताएँ शामिल थीं।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ये कारक उदाहरणात्मक हैं तथा संपूर्ण नहीं हैं, जिससे न्यायालयों को अतिरिक्त प्रासंगिक परिस्थितियों पर विचार करने की लचीलापन प्रदान होता है।