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वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 (3) और परिसीमा अधिनियम की धारा 5

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 15-Apr-2025

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य 

माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34(3) के अधीन विहित अवधि से अधिक विलंब को क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 लागू नहीं होती।” 

न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ 

स्रोत:हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही मेंन्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ नेकहा है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन धारा 34 याचिकाओं पर लागू नहीं होती है, और विहित अवधि से अधिक विलंब को क्षमा नहीं किया जा सकता है। 

  • हिमाचलप्रदेश उच्च न्यायालय नेभारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य (2025)के मामले में यह निर्णय दिया। 

भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण बनाम जगरूप सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के विरुद्ध एक मध्यस्थ पंचाट पारित किया गया, जिसकी तिथि 3 जनवरी, 2022 थी, और उक्त निर्णय की प्रमाणित प्रति प्राधिकरण को 20 अगस्त, 2022 को प्राप्त हुई ।  
  • तत्पश्चात प्राधिकरण ने उक्त निर्णय को चुनौती देने हेतु माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत याचिका प्रस्तुत की। 
  • यह याचिका 19 जनवरी, 2023 को दाखिल की गई, जो कि धारा 34(3) में विहित अधिकतम 120 दिनों (3 माह + 30 दिन) की अवधि से लगभग 33 दिन विलंबित थी। 
  • जिला न्यायाधीश द्वारा दिनांक 13 जून, 2024 को उक्त याचिका यह कहकर निरस्त कर दी गई कि याचिका विहित परिसीमा काल के बाहर दायर की गई थी।  
  • इसके उपरांत, प्राधिकरण ने माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 के अंतर्गत हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 
  • उक्त अपील स्वयं 258 दिनों के विलंब से दायर की गई, जिसके लिये प्राधिकरण द्वारा विलंब शमन हेतु एक पृथक् आवेदन प्रस्तुत किया गया 
  • विवाद का विषय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण तथा जगरूप सिंह एवं अन्य के मध्य उत्पन्न विवादों से संबंधित था, यद्यपि मामले के सारांश में अंतर्निहित विवाद का विशिष्ट विवरण नहीं दिया गया था। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 (A&C) की धारा 34 (3) के अधीन, माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन तीन मास के भीतर किया जाना चाहिये, जिसे पर्याप्त कारण दिखाने पर केवल तीस दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, और "इसके पश्चात् नहीं।" 
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5, जो सामान्यतः न्यायालयों को विहित परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की अनुमति देती है, माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन दायर याचिकाओं पर लागू नहीं होती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 34 के प्रावधान में "परंतु इसके पश्चात् नहीं" वाक्यांश से यह स्पष्ट होता है कि अतिरिक्त तीस दिनों से अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है, जैसा कि माई प्रिफर्ड ट्रांसफॉर्मेशन एंड हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स फरीदाबाद इम्प्लीमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय सहित पूर्ववर्ती मामलों में स्थापित किया गया है। 
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि जिला न्यायाधीश ने मूल याचिका को सही ढंग से खारिज कर दिया, क्योंकि यह अधिकतम स्वीकार्य अवधि 120 दिनों से लगभग 33 दिन पश्चात् दायर की गई थी। 
  • न्यायालय ने आगे कहा कि अपीलकर्त्ता माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 के अधीन अपील दायर करने में 258 दिनों के विलंब को उचित ठहराने में भी असफल रहा है। 
  • मध्यस्थता निर्णय को चुनौती देने के लिये सांविधिक परिसीमा काल और माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन अपराधों से निपटने के विशिष्ट प्रावधानों के संबंध में इन टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालय ने विलंब को क्षमा करने के आवेदन और अपील दोनों को खारिज कर दिया। 

संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं? 

बारे में : 

  • माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 34 - यह उपबंध माध्यस्थम् पंचाटों को अपास्त करने के आवेदनों से संबंधित है। 
  • माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34(3) - यह विशिष्ट उपधारा मध्यस्थता पंचाट को चुनौती देने के लिये परिसीमा काल स्थापित करती है, तथा यह निर्धारित करती है कि इसे तीन मास के भीतर दायर किया जाना चाहिये, जिसे पर्याप्त कारण दिखाने पर केवल 30 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है, तथा "इसके पश्चात् नहीं।" 
  • माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 37 - यह धारा कुछ आदेशों के विरुद्ध अपील का उपबंध करती है, जिसके अधीन अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में अपनी अपील दायर की थी। 
  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 - यह उपबंध सामान्यत: न्यायालयों को विहित परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की अनुमति देता है, यदि पर्याप्त कारण दर्शित किये जाते हैं। न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन धारा 34 याचिकाओं पर लागू नहीं होता है। 

माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 की धारा 34 

  • धारा 34(1) स्थापित करती है कि मध्यस्थता पंचाट के विरुद्ध एकमात्र उपाय उपधारा (2) और (3) में उल्लिखित प्रक्रियाओं के अधीन इसे अपास्त करने के लिये आवेदन करना है। 
  • धारा 34(3) माध्यस्थम् पंचाट की प्राप्ति की तारीख से इसे अपास्त करने के लिये आवेदन दायर करने हेतु तीन मास की कठोर परिसीमा विहित करती है। 
  • धारा 34(3) का उपबंध न्यायालय को ऐसे आवेदनों पर तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के लिये विचार करने की अनुमति देता है (परंतु उसके पश्चात् नहीं) यदि वह संतुष्ट हो कि आवेदक को प्रारंभिक तीन मास की अवधि के भीतर आवेदन करने से पर्याप्त कारण से रोका गया था। 
  • धारा 37(1)(ग) में स्पष्ट रूप से उपबंध है कि "धारा 34 के अधीन माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने या अपास्त करने से इंकार करने" के आदेश के विरुद्ध न्यायालय में अपील की जा सकेगी। 
  • धारा 37(3) धारा 37 के अधीन अपील में पारित आदेश के विरुद्ध द्वितीय अपील पर रोक लगाती है, यद्यपि यह उच्चतम न्यायालय में अपील करने के अधिकार को सुरक्षित रखती है। 
  • धारा 34(3) के उपबंध में वाक्यांश "परंतु उसके पश्चात् नहीं" 30 दिनों की विस्तारित अवधि से परे आवेदनों पर विचार करने की न्यायालय की शक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है, जो इस मामले में महत्त्वपूर्ण विधिक बिंदु था। 
  • इन प्रावधानों का संयुक्त प्रभाव माध्यस्थम् पंचाटों को चुनौती देने के लिये एक कठोर परिसीमा व्यवस्था स्थापित करता है, जिसमें न्यायालयों को 120 दिनों (3 महीने और 30 दिन) की अधिकतम अवधि से अधिक विलंब को क्षमा करने का कोई विवेकाधिकार नहीं है। 

परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 न्यायालयों को विहित परिसीमा काल समाप्त होने के पश्चात् अपील या आवेदन स्वीकार करने की सामान्य शक्ति प्रदान करती है। 
  • इस उपबंध को लागू करने के लिये, अपीलकर्त्ता या आवेदक को न्यायालय का यह समाधान करना होगा कि विहित काल के भीतर दावा दायर न करने के लिये उनके पास "पर्याप्त कारण" थे। 
  • यह उपबंध स्पष्ट रूप से सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के अधीन आवेदनों को अपने दायरे से बाहर रखता है। 
  • धारा 5 का स्पष्टीकरण स्पष्ट करता है कि परिसीमा काल विहित करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय के कारण भुलावे में पड़ना, "पर्याप्त कारण" माना जा सकता है। 
  • यह धारा न्यायालयों को न्याय के हित में सांविधिक परिसीमा काल से परे विलंब को क्षमा करने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करती है। 
  • यद्यपि, जैसा कि इस मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है, परिसीमा अधिनियम की धारा 5, धारा 34(3) में विशिष्ट भाषा "किंतु उसके पश्चात् नहीं" के कारण माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 34 के अधीन आवेदनों पर लागू नहीं होती है।