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आपराधिक कानून
BNSS की धारा 348
«23-Apr-2025
Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्युट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवलप बनाम अनिल कुमार “BNSS की धारा 348- साक्षियों को वापस बुलाने या दोबारा जाँच करने के लिये न्यायालय के अधिकार का प्रयोग अत्यंत सावधानी एवं उचित कारणों के साथ किया जाना चाहिये।” न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल |
स्रोत: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 348 के अधीन किसी साक्षी को बुलाने, वापस बुलाने या फिर से पूछताछ करने की शक्ति का प्रयोग सावधानीपूर्वक एवं न्याय के उद्देश्यों को सुनिश्चित करने के लिये केवल सशक्त, वैध कारणों के लिये किया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्यूट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवेलप बनाम अनिल कुमार (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
Abc प्रिस्क्रिप्शन ऑफ प्रॉसिक्यूट्रिक्स इन द क्लोज्ड एनवेलप बनाम अनिल कुमार (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- प्रतिवादी संख्या 1, अनिल कुमार, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (FTC), सक्ती जिला जांजगीर-चांपा के समक्ष लंबित विशेष सत्र मामला संख्या 67/2021 में आरोपी है।
- आरोपी पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 454 (कारावास से दण्डनीय अपराध करने के लिये घर में घुसना या घर में सेंध लगाना), 354 (महिला की शील भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करना), 506 (आपराधिक धमकी) एवं 323 के साथ-साथ POCSO अधिनियम की धारा 8 (यौन उत्पीड़न के लिये सजा) के अधीन आरोप लगाए गए हैं।
- अभियोक्ता से 30 मार्च 2022 को न्यायालय में पूछताछ की गई तथा कार्यवाही के दौरान आरोपी द्वारा व्यापक रूप से प्रतिपरीक्षा की गई।
- 19 फरवरी 2025 को, अपनी प्रारंभिक गवाही के लगभग तीन वर्ष बाद, अभियोक्ता ने धारा 348 BNSS के अंतर्गत पुनः प्रतिपरीक्षा की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।
- अपने आवेदन में अभियोक्ता ने दावा किया कि उसकी पिछली गवाही उसके माता-पिता के दबाव में दी गई थी, जब वह गर्भवती हो गई थी, जिसके बाद उसके माता-पिता ने उसे अपने घर से निकाल दिया था।
- अभियोक्ता ने आगे दावा किया कि वह बाद में आरोपी के घर गई और एक बच्चे को जन्म दिया, तथा घटना के समय उसकी उम्र लगभग 18 वर्ष थी, यही कारण है कि उसने इस बिंदु पर पुनः प्रतिपरीक्षा की मांग की।
- अभियोक्ता ने सहायक साक्ष्य के रूप में एक जन्म प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया, जिसे उसके मूल अभिकथन के लगभग ढाई वर्ष बाद 27 सितंबर 2024 को अधिकारियों के पास पंजीकृत किया गया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि अभियोक्ता की 2022 में पूर्ण रूपेण जाँच की गई तथा पुनः प्रतिपरीक्षा की गई, विस्तृत प्रतिपरीक्षा की गई, जहाँ उसने माता-पिता के बिना किसी दबाव का संकेत दिये सभी प्रश्नों के उत्तर दिये।
- न्यायालय ने पाया कि अभियोक्ता द्वारा दायर आवेदन ने कार्यवाही में पीडब्लू-2 के रूप में दिये गए उसके पहले के साक्ष्य का खंडन किया।
- न्यायालय ने पाया कि घटना के समय 18 वर्ष की होने के अपने दावे का समर्थन करने के लिये अभियोक्ता द्वारा प्रस्तुत जन्म प्रमाण पत्र 27.09.2024 को पंजीकृत किया गया था, जो उसकी मूल गवाही के लगभग ढाई वर्ष बाद था।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि अभियोक्ता ने पुनः प्रतिपरीक्षा के लिये आवेदन दाखिल करने में विलंब के लिये कोई कारण नहीं बताया था।
- न्यायालय ने कहा कि BNSS की धारा 348 (पूर्व में CrPC की धारा 311) को न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये केवल सशक्त एवं वैध कारणों से ही लागू किया जा सकता है तथा इसका प्रयोग बहुत सावधानी एवं सतर्कता के साथ किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पूरे परिदृश्य से संकेत मिलता है कि अभियोक्ता को "बचाव पक्ष द्वारा जीत लिया है" तथा BNSS की धारा 348 का लाभ पक्षकारों को उनके मामले में कमियों को पूरा करने के लिये नहीं दिया जा सकता है।
BNSS की धारा 348 क्या है?
परिचय:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 348 न्यायालयों को संहिता के अंतर्गत जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में बुलाने का विवेकाधीन अधिकार प्रदान करती है।
- यह प्रावधान न्यायालयों को उपस्थित किसी भी व्यक्ति की जाँच करने का अधिकार देता है, भले ही उसे साक्षी के रूप में न बुलाया गया हो, इस प्रकार औपचारिक साक्षी की सूचियों से परे न्यायालय के साक्ष्य की सीमा का विस्तार होता है।
- इसके अंतर्गत न्यायालयों को मामले के उचित निर्णय के लिये आवश्यक समझे जाने पर पहले से जाँचे गए किसी भी साक्षी को वापस बुलाने और फिर से जाँच करने का अधिकार है।
- धारा 348 का पहला भाग विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है, जबकि दूसरा भाग न्यायालयों पर एक अनिवार्य दायित्व ("सम्मन करेगा") लागू करता है कि वे उन साक्षियों को वापस बुलाएँ तथा उनसे पुनः पूछताछ करें, जिनके साक्ष्य मामले के न्यायोचित निर्णय के लिये आवश्यक प्रतीत होते हैं।
- यह प्रावधान न्याय की विफलता को रोकने के सर्वोपरि उद्देश्य को पूरा करता है, जो अन्यथा अपर्याप्त साक्ष्य या गवाही में चूक के कारण हो सकता है।
- इस खंड की न्यायिक निर्वचन यह स्थापित करती है कि ऐसी शक्ति का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से, सावधानी एवं सतर्कता के साथ, केवल सशक्त एवं वैध कारणों के लिये किया जाना चाहिये, न कि मनमाने ढंग से या अनुचित तरीके से।
- न्यायालयों को इस शक्ति के प्रयोग को साक्षियों को होने वाली संभावित कठिनाई, कार्यवाही में अनुचित विलंब एवं वाद में किसी भी पक्ष को अनुचित लाभ से बचाने की आवश्यकता के साथ संतुलित करना चाहिये।
निर्णयज विधियाँ:
- रतन लाल बनाम प्रहलाद जाट (2017) - उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 311 (अब BNSS की धारा 348) न्यायालयों को साक्षियों को बुलाने, जाँच करने या वापस बुलाने की अनुमति देकर सत्यता का पता लगाने और न्यायपूर्ण निर्णय देने में सक्षम बनाती है, लेकिन इस शक्ति का प्रयोग केवल सशक्त एवं वैध कारणों के लिये सावधानी एवं विवेक के साथ किया जाना चाहिये।
- विजय कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2011) - उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 311 के अंतर्गत विवेकाधीन शक्ति का उपयोग केवल न्याय के उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है तथा इसका प्रयोग न्यायिक रूप से किया जाना चाहिये, मनमाने ढंग से नहीं।
- जाहिरा हबीबुल्लाह शेख (5) एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2006) - उच्चतम न्यायालय ने माना कि धारा 311 रिकॉर्ड पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में किसी भी पक्ष द्वारा की गई चूक के कारण न्याय की विफलता को रोकने के लिये प्रावधानित है।
- राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) बनाम शिव कुमार यादव एवं अन्य (2016) - उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि साक्षियों को वापस बुलाना कोई सामान्य बात नहीं है तथा इसे ठोस कारणों से उचित ठहराया जाना चाहिये, न कि केवल यह दावा करना चाहिये कि यह "निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये है।"
- उमर मोहम्मद एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य (2007) - उच्चतम न्यायालय ने साक्षियों को वापस बुलाने के लिये आवेदन दाखिल करने में विलंब को स्पष्ट करने के महत्त्व को रेखांकित किया।
- मंघी उर्फ नरेंद्र बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2005) - मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना कि एक बार अभियोजन पक्ष के साक्षी के रूप में जाँचे जाने के बाद साक्षी को केवल इसलिये वापस नहीं बुलाया जा सकता क्योंकि उन्होंने अपने पहले के अभिकथन के विपरीत शपथपत्र दायर किया था।