CrPC की धारा 438
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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 438

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 06-Nov-2023

अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य

"ऐसा आरोपी जो एक मामले में हिरासत में है, वह CrPC की धारा 438 के तहत दूसरे मामले में अग्रिम जमानत मांग सकता है।"

न्यायमूर्ति एन. जे. जमादार

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि ऐसा आरोपी जो एक मामले में हिरासत में है, वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438 के प्रावधानों के तहत दूसरे मामले में अग्रिम जमानत मांग सकता है।

अमर एस. मूलचंदानी बनाम महाराष्ट्र राज्य की पृष्ठभूमि:

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के तहत दंडनीय अपराधों के लिये पिंपरी पुलिस स्टेशन में दर्ज़ एक मामले के संबंध में बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष गिरफ्तारी पूर्व जमानत के लिये एक आवेदन दायर किया गया।
  • आवेदक वर्ष 2021 से पहले से ही हिरासत में है।
  • प्राथमिकी दर्ज़ करवाने वाले ने इस आधार पर गिरफ्तारी पूर्व जमानत के लिये आवेदन की वैधता पर आपत्ति जताई कि, जो व्यक्ति पहले से ही हिरासत में है, वह ऐसे अन्य अपराधों के संबंध में गिरफ्तारी पूर्व जमानत की राहत पाने का हकदार नहीं है जिसमें उसके खिलाफ मामला दर्ज़ किया गया है।
  • उच्च न्यायालय ने आवेदन की वैधता पर आपत्ति को अस्वीकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • न्यायमूर्ति एन. जे. जमादार ने कहा कि तथ्य यह है कि आवेदक जो पहले से ही एक मामले में हिरासत में है, उसे दूसरे मामले के संबंध में गिरफ्तारी पूर्व जमानत मांगने से नहीं रोकता है जिसमें उसे गिरफ्तारी की आशंका है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि CrPC की धारा 438 बहुत स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कहती है कि एक अपराध के लिये गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को दूसरे अपराध में अग्रिम जमानत मांगने से रोक दिया गया था।

CrPC की धारा 438 क्या है?

  • CrPC की धारा 438 — गिरफ्तारी की आशंका करने वाले व्यक्ति की जमानत मंजूर करने के लिये निर्देश —

(1) जहाँ किसी व्यक्ति के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है, वह इस धारा के तहत निर्देश के लिये उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है और ऐसी स्थिति में गिरफ्तार कर लिया जाये तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जायेगा; और वह न्यायालय, अन्य बातों के अलावा, निम्नलिखित कारकों पर विचार करने के बाद, अर्थात्:---

(i) आरोप की प्रकृति और गंभीरता;

(ii) आवेदक के पूर्ववृत्त में यह तथ्य शामिल है कि क्या वह पहले किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर कारावास की सजा काट चुका है;

(iii) आवेदक के न्याय से भागने की संभावना; और

(iv) जहाँ आवेदक को गिरफ्तार करके घायल करने या अपमानित करने के उद्देश्य से आरोप लगाया गया है; या तो आवेदन को तुरंत खारिज़ करें या अग्रिम जमानत देने के लिये अंतरिम आदेश जारी करें।

बशर्ते कि, जहाँ उच्च न्यायालय या, जैसा भी मामला हो, सत्र न्यायालय ने इस उप-धारा के तहत कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं किया है या अग्रिम जमानत देने के लिये आवेदन खारिज़ कर दिया है, यह इस तरह के आवेदन में लगाए गए आरोप के आधार पर आवेदक को बिना वारंट के गिरफ्तार करने के लिये पुलिस स्टेशन के भारसाधक प्रभारी के लिये खुला रहेगा।

(1A) जहाँ न्यायालय उप-धारा (1) के तहत एक अंतरिम आदेश देता है, वह तुरंत सात दिनों से कम का नोटिस नहीं देगा, साथ ही ऐसे आदेश की एक प्रति लोक अभियोजक और पुलिस अधीक्षक को दी जायेगी। इसमें लोक अभियोजक को सुनवाई का उचित अवसर देने की दृष्टि से जब आवेदन पर न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से सुनवाई की जायेगी।

(1B) आवेदन की अंतिम सुनवाई और न्यायालय द्वारा अंतिम आदेश पारित करने के समय अग्रिम जमानत चाहने वाले आवेदक की उपस्थिति अनिवार्य होगी, यदि लोक अभियोजक द्वारा किये गए आवेदन पर न्यायालय ऐसी उपस्थिति को न्याय के हित में आवश्यक मानता है।

(2) जब उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय उपधारा (1) के अधीन निदेश देता है तब वह उस विशिष्ट मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उन निदेशों में ऐसी शर्ते, जो वह ठीक समझे, सम्मिलित कर सकता है जिनके अन्तर्गत निम्नलिखित भी हैं--

(i) यह शर्त कि वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा पूछे जाने वाले परिप्रश्नों का उत्तर देने के लिये जैसे और जब अपेक्षित हो, उपलब्ध होगा;

(ii) यह शर्त कि वह व्यक्ति उस मामले के तथ्यों से अवगत किसी व्यक्ति को न्यायालय या किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष ऐसे तथ्यों को प्रकट न करने के लिये मनाने के वास्ते प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे कोई उत्प्रेरणा, धमकी या वचन नहीं देगा;

(iii) यह शर्त कि वह व्यक्ति न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना भारत नहीं छोड़ेगा;

(iv) ऐसी अन्य शर्ते जो धारा 437 की उपधारा (3) के अधीन ऐसे अधिरोपित की जा सकती हैं, मानो उस धारा के अधीन जमानत मंजूर की गई है।

(3) यदि तत्पश्चात् ऐसे व्यक्ति को ऐसे अभियोग पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा वारण्ट के बिना गिरफ्तार किया जाता है और वह या तो गिरफ्तारी के समय या जब वह ऐसे अधिकारी की अभिरक्षा में है तब किसी समय जमानत देने के लिये तैयार है, तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जायेगा तथा यदि ऐसे अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट यह विनिश्चय करता है कि उस व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम बार ही वारण्ट जारी किया जाना चाहिये , तो वह उपधारा (1) के अधीन न्यायालय के निदेश के अनुरूप जमानत वारण्ट जारी करेगा।

(4) इस धारा की कोई बात, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 की उपधारा (3) या धारा 376कख या धारा 376घक और धारा 376घख के अधीन किसी अपराध के किये जाने के अभियोग में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अन्तर्वलित करने वाले किसी मामले पर लागू नहीं होगी ।

स्थितियाँ:

  • यह धारा केवल गिरफ्तारी की आशंका होने पर ही लागू की जाती है।
  • इसमें गिरफ्तारी पूर्व जमानत मांगने की परिकल्पना यह है कि आवेदक के पास यह विश्वास करने का कारण होना चाहिये कि उसे गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है।

CrPC की धारा 438 का महत्त्व:

  • इस संहिता में धारा 438 को लागू करने का कारण एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण आधार की संसदीय स्वीकृति थी।
  • CrPC की धारा 438 प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित एक प्रक्रियात्मक प्रावधान है, जो निर्दोषता की धारणा के लाभ का हकदार है।

निर्णयज विधि:

  • बद्रेश बिपिनबाई सेठ बनाम गुजरात राज्य (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 438 की भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के प्रकाश में उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिये, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करती है।
  • सुशीला अग्रवाल बनाम दिल्ली एनसीटी राज्य (2020) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अग्रिम जमानत समयबद्ध नहीं होनी चाहिये।