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आपराधिक कानून

मध्य प्रदेश राज्य बनाम श्यामसुंदर त्रिवेदी एवं अन्य (1995)

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 20-Sep-2024

परिचय

यह उच्चतम न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय है जो अभिरक्षा में कारित हिंसा के विषय में प्रावधान करता है।

  • यह निर्णय न्यायमूर्ति ए.एस. आनंद एवं न्यायमूर्ति एम.के. मुखर्जी ने दिया।

तथ्य

  • 13 अक्टूबर 1981 को प्रतिवादी संख्या 4 राजाराम (हेड कांस्टेबल) एवं प्रतिवादी संख्या 5 गन्नीनुद्दीन (कॉन्स्टेबल) ने पीड़ित (नाथू बंजारा) को संदिग्ध के तौर पर पूछताछ के लिये थाने में लाये।
  • पुलिस थाने में अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार प्रतिवादी संख्या 1 श्याम सुंदर तिवारी (सब इंस्पेक्टर), प्रतिवादी संख्या 3 राम नरेश शुक्ला (हेड कांस्टेबल) और प्रतिवादी संख्या 4 एवं 5 ने बलात संस्वीकृति के लिये पीड़ित की पिटाई की।
  • उपरोक्त मारपीट के परिणामस्वरूप नाथू की रामपुरा थाने में पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु हो गई।
  • उसके शव को 'लावारिस शव' माना गया।
  • गांव के निवासियों ने रामपुर बार एसोसिएशन के कुछ सदस्यों सहित विरोध प्रदर्शन किया।
  • विरोध प्रदर्शन और रामपुर के निवासियों द्वारा हस्ताक्षरित लिखित रिपोर्ट के परिणामस्वरूप जाँच एवं पोस्टमार्टम किया गया।
  • प्रतिवादियों पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के अधीन निम्नलिखित आरोप लगाए गए:

प्रतिवादी

आरोप

प्रतिवादी संख्या 1

धारा 302/149, 147, 201, 342 एवं 201 

प्रतिवादी संख्या 2

धारा 147, 302/149, 201 एवं 342

प्रतिवादी संख्या 3, 4, 5

धारा 147, 302/149 एवं 201

प्रतिवादी संख्या 6, 7

धारा 201 

  •  अभियोजन में प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने सभी प्रतिवादियों को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया।
  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपील पर प्रतिवादी 2 से 7 को दोषमुक्त करने के निर्णय को यथावत रखा।
    • हालाँकि, प्रतिवादी संख्या 1 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 218, 201 एवं 342 के अधीन दोषमुक्त करने के निर्णय को खारिज कर दिया गया तथा प्रतिवादी संख्या 1 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 218 एवं 201 के अधीन दो-दो वर्ष के सश्रम कारावास और धारा 342 के अधीन छह महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।
  • प्रतिवादी संख्या 1 ने दोषसिद्धि एवं सजा को चुनौती देते हुए एक विशेष अनुमति याचिका दायर की, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया।
  • न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपील मध्य प्रदेश राज्य द्वारा विशेष अनुमति के माध्यम से दायर की गई थी, जिसमें प्रतिवादी संख्या 1 को IPC की धारा 302/149 और IPC की धारा 147 के अधीन अपराधों के लिये दोषमुक्त करने तथा प्रतिवादी संख्या 2 से 7 को उन अपराधों के लिये दोषमुक्त करने पर प्रश्न किया गया था, हैं।जिसके लिये वे अभियोजित किये गए थे।

शामिल मुद्दे

  • क्या आरोपी व्यक्तियों को दोषमुक्त करने के निर्णय को पलट दिया जाना चाहिये?

टिप्पणी

  • न्यायालय ने माना कि डॉ. मेहता (PW 7) के साक्ष्य से यह सिद्ध होता है कि नाथू राम की मृत्यु स्वाभाविक नहीं अपितु हत्या थी।
  • न्यायालय ने कहा कि यह निर्णायक निष्कर्ष है कि पीड़ित को लाए जाने के समय से लेकर शाम तक वह पुलिस अभिरक्षा में रहा।
  • न्यायालय ने माना कि रिकॉर्ड से यह निर्णायक रूप से सिद्ध होता है कि प्रतिवादी संख्या 1 एवं अन्य ने साक्ष्य गढ़े थे।
  • इसके अतिरिक्त, पुलिस स्टेशन में प्रतिवादी संख्या 3, 4 एवं 5 की उपस्थिति भी स्थापित की गई है, साथ ही अपराधी को बचाने के लिये शव को अस्पताल ले जाने में उनकी भागीदारी भी सिद्ध की गई है।
  • अभियोजन पक्ष कई प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत करने में सफल रहा, जिन्होंने गवाही दी कि उन्होंने मृतक के शव को पुलिस स्टेशन से बाहर ले जाते तथा जीप में रखते हुए देखा था।
  • न्यायालय ने प्रतिवादी संख्या 2 के संबंध में निम्नलिखित टिप्पणी की:
    • प्रतिवादी संख्या 2 की मौके पर उपस्थिति को सिद्ध करने के लिये कोई ठोस साक्ष्य रिकॉर्ड में नहीं है।
    • हालाँकि, न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने वास्तविकता को अनदेखा कर दिया, जिससे अभिरक्षा में मौत के मामलों में प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध होना बहुत मुश्किल होगा।
    • न्यायालय ने माना कि यह बहुत संभव है कि प्रतिवादी संख्या 2 के सहकर्मियों ने भाईचारे के कारण साक्ष्य देने से मना कर दिया हो।
  • वास्तविकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता
    • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय एवं अधीनस्थ न्यायालय ने वास्तविकता को अनदेखा करते हुए उचित संदेह से परे साक्ष्य पर जोर दिया।
    • ऐसी स्थिति में उपरोक्त नियम पर बहुत अधिक जोर देने से न्याय में चूक होती है।
  • पुलिस अभिरक्षा में यातना की बीमारी
    • पुलिस अभिरक्षा में यातना देश के नागरिकों के लिये उपलब्ध सबसे मूल मानवाधिकारों का उल्लंघन है तथा यह मानवीय गरिमा का अपमान है।
    • जब तक इस बीमारी के विरुद्ध आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा ठोस कदम नहीं उठाए जाते, यह सभ्यता को त्रस्त करती रहेगी।
    • इसलिये न्यायालयों को ऐसे मामलों को बहुत संवेदनशीलता के साथ निपटाना चाहिये अन्यथा सामान्य व्यक्ति का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ सकता है।
  • राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट
    • आयोग की चौथी रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस अभिरक्षा में यातना का कृत्य सबसे अमानवीय व्यवहार है जो किसी व्यक्ति के संग हो सकता है।
    • यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 330 एवं 331 जैसे प्रावधान हैं, जो उन पुलिस अधिकारियों के लिये दण्डनीय प्रावधान करते हैं जो बलात संस्वीकृति करवाते हैं तथा इसके लिये कठोर दण्ड का भी प्रावधान है (10 वर्ष तक कारावास), लेकिन इसके लिये दोषसिद्धि स्थापित नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रत्यक्ष या अन्य प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव है।
    • उपरोक्त के कारण विधि आयोग ने अपनी 113वीं रिपोर्ट में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) में संशोधन की अनुशंसा की:
      • न्यायालय यह मान सकता है कि चोट उस व्यक्ति की उस अवधि के दौरान अभिरक्षा में रहने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा पहुँचाई गई थी, जब तक कि पुलिस अधिकारी इसके विपरीत सिद्ध न कर दे।
      • इसके विपरीत सिद्ध करने का दायित्व संबंधित पुलिस अधिकारी द्वारा ही पूरा किया जाना चाहिये।
    • हालाँकि, उपरोक्त अनुशंसा पर ध्यान नहीं दिया गया।
  • न्यायालय ने कहा कि दस्तावेजी और प्रत्यक्ष साक्ष्यों से यह माना जा सकता है कि प्रतिवादी संख्या 1 एवं 3 से 5 ने पीड़ित को चोट कारित करने में सहभागी थे।
    • भले ही यह कहना संभव न हो कि उनका दुराशय मौत का कारण बनना था, लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उन्हें पता था कि चोटों से मौत होने की संभावना है।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उनका अपराध IPC की धारा 304 भाग II/34 के अंतर्गत आता है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने प्रतिवादियों को निम्नानुसार दोषी ठहराया:

प्रतिवादी संख्या

Conviction/Discharge

प्रतिवादी संख्या 1

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 भाग II/34 के अधीन दोषसिद्धि दी गई

प्रतिवादी संख्या 3,4 एवं 5

IPC की धारा 304 भाग II/34, 201, 342 के अधीन दोषसिद्धि दी गई

प्रतिवादी संख्या 2 

दोषमुक्त

 निष्कर्ष

  • यह एक ऐतिहासिक निर्णय है क्योंकि इसमें अभिरक्षा में यातना की सबसे अमानवीय घटना के विषय में चर्चा की गई है।
  • न्यायालय ने इस मामले में अभिरक्षा में कारित हिंसा की घटना पर दुःख व्यक्त किया है।