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सिविल कानून

समय समाप्त होने के कारण वाद का खारिज होना

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 14-Apr-2025

आर. नागराज (मृत) बनाम राजमणि एवं अन्य

"ऐसे मामलों में, जहाँ तर्क मौन हैं, तो न्यायालय का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह साक्ष्य एवं मामले के समग्र तथ्यों से, जैसा कि किसी भी पक्ष द्वारा प्रस्तुत किया गया है, पता लगाए और जहाँ परिसीमा के प्रश्न को विधि के प्रश्न के रूप में माना जाना है, वहाँ परिसीमा पर निष्कर्ष प्रस्तुत करे, क्योंकि न्यायालय तुच्छ या पुराने दावों पर विचार नहीं कर सकता है।"

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि न्यायालय किसी वाद को समय बीत जाने के कारण खारिज कर सकता है, भले ही समय-सीमा के संबंध में विशिष्ट मुद्दा तय न किया गया हो।

  • उच्चतम न्यायालय ने आर. नागराज (मृत) बनाम राजमणि एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

आर. नागराज (मृत) बनाम राजमणि एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह अपील मद्रास उच्च न्यायालय के 17 फरवरी 2020 के एक निर्णय के विरुद्ध है, जिसने अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों को खारिज कर दिया तथा मामले को वापस ट्रायल कोर्ट में भेज दिया।
  • यह मामला एक संयुक्त हिंदू परिवार से उत्पन्न हुआ जिसमें रंगप्पा गौदर एवं उनके बेटे, दासप्पा गौदर एवं समीअप्पन शामिल थे।

  • आरंभ में, समीअप्पन की पत्नी (सुंदरम्मल) एवं बेटी (वेनिला) ने समीअप्पन, उनके पिता रंगप्पा गौदर एवं भाई दासप्पा गौदर के विरुद्ध भरण-पोषण की मांग करते हुए 1965 का वाद O.S. संख्या 851 दायर किया।
  • भरण-पोषण के वाद पर 26 अगस्त 1965 को निर्णय दिया गया तथा निष्पादन कार्यवाही में वाद में उल्लिखित संपत्तियों को कुर्क कर लिया गया।
  • निष्पादन की पेंडेंसी के दौरान, रंगप्पा गौदर एवं दासप्पा गौदर की मृत्यु हो गई, तथा उनके विधिक उत्तराधिकारियों को रिकॉर्ड में लाया गया।
  • न्यायालयी नीलामी के माध्यम से, वाद 'A' अनुसूची संपत्ति करिवारादा गौदर द्वारा खरीदी गई थी, जिसकी बिक्री 25 सितंबर 1970 को पुष्टि की गई थी। 
  • जब सामीप्पन ने संपत्ति पर अतिक्रमण करने की कोशिश की, तो करिवारादा गौदर ने स्थायी निषेधाज्ञा के लिये वाद दायर किया और डिक्री प्राप्त की। 
  • इसके बाद संपत्ति कई बार अंतरित हुई, अंततः अपीलकर्त्ता संख्या 1 एवं 2 द्वारा खरीदी गई। 
  • प्रतिवादी संख्या 1 से 3 (दासप्पा गौदर की बेटियाँ एवं पत्नी) ने पहले के निर्णय को रद्द करने, संपत्तियों का विभाजन करने तथा बाद के खरीदारों के विरुद्ध निषेधाज्ञा प्राप्त करने के लिये 1982 का वाद ओ.एस. संख्या 257 दायर किया। 
  • ट्रायल कोर्ट ने 08 सितंबर 1994 को इस वाद को खारिज कर दिया, 28 जनवरी 1997 को अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने इस निर्णय को यथावत बनाए रखा। 
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय ने 17 फरवरी 2020 को उनकी दूसरी अपील को अनुमति दे दी, तथा मामले को विशेष रूप से यह निर्धारित करने के लिये ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया कि क्या वाद परिसीमा द्वारा वर्जित था। 
  • उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देती है, जिसमें उच्च न्यायालय के आदेश पर अंतरिम रोक लगाई गई है। 
  • कार्यवाही के दौरान कई प्रतिवादियों की मृत्यु हो गई, उनके विधिक प्रतिनिधियों को रिकॉर्ड पर लाया गया, जबकि कुछ प्रोफार्मा पक्षों को पक्षकारों की सारणी से हटा दिया गया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर विचार किया कि अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा समवर्ती निष्कर्षों के बावजूद, परिसीमा के मामले पर मामले को वापस ट्रायल कोर्ट में भेजना उच्च न्यायालय के लिये उचित था या नहीं। 
  • ट्रायल कोर्ट ने निर्णय दिया था कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 59 के अनुसार डिक्री को रद्द करने की कार्यवाही तीन वर्ष के अंदर की जानी चाहिये थी, लेकिन वाद 17 साल बाद दायर किया गया था। 
  • प्रथम अपीलीय न्यायालय ने इस दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए कहा कि वादी परिसीमा अधिनियम की धारा 59 के अधिदेश के विरुद्ध "17 वर्ष तक निष्क्रिय रहे"। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि परिसीमा अधिनियम का उद्देश्य निहित अधिकारों को नष्ट करना नहीं है, बल्कि कार्यवाही आरंभ करने के लिये समय अवधि निर्धारित करके अनिश्चितकालीन मुकदमेबाजी को रोकना है। 
  • जबकि परिसीमा सामान्यतया पर तथ्य एवं विधि का एक मिश्रित प्रश्न है, जब विलंब के लिये स्पष्टीकरण के बिना वाद लाने का अधिकार प्राप्त होने के कई वर्ष बाद कोई कार्यवाही आरंभ की जाती है, तो परिसीमा विधि का प्रश्न बन जाती है। 
  • परिसीमा अवधि के विषय में विशिष्ट दलीलों के बिना भी, प्रत्येक सिविल न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह यह निर्धारित करे कि क्या मामला परिसीमा अधिनियम की धारा 3 के अनुसार निर्धारित समय के अंदर आरंभ किया गया है।
  • हालाँकि ट्रायल कोर्ट ने "परिसीमा अवधि" पर कोई विशिष्ट मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन इसे व्यापक मुद्दों के अंदर शामिल किया जा सकता था, तथा यह प्रक्रियात्मक चूक निर्णय के लिये घातक नहीं थी।
  • साक्ष्यों से स्पष्ट रूप से पता चला कि प्रतिवादी संख्या 1 से 3 को पहले की कार्यवाही तथा डिक्री के विषय में पता था, क्योंकि वे निष्पादन कार्यवाही में पक्षकार थे।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि परिसीमा विधि का प्रश्न है तथा इसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिये, विशेषकर जब पहले के संव्यवहार पक्षों के ज्ञान में थे।
  • वास्तविक क्रेताओं की सुरक्षा एक महत्त्वपूर्ण विचार है, तथा इतनी लंबी अवधि के बाद उनके अधिकारों को बाधित करने से सांपत्तिक संव्यवहार में अनिश्चितता उत्पन्न होगी।
  • उच्चतम न्यायालय ने अपील को अनुमति दी, उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया, तथा वाद को खारिज करने वाले ट्रायल कोर्ट एवं प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णयों को बहाल कर दिया।

परिसीमा अधिनियम की धारा 3 क्या है?

  • परिसीमा अधिनियम की धारा 3 में परिसीमा प्रतिबंध का प्रावधान है। 
  • धारा 3 के घटक:
    • न्यायालयों को निर्धारित परिसीमा अवधि के बाद दायर किये गए वाद, अपीलों एवं आवेदनों को खारिज करना चाहिये।
    • यह खारिज करना अनिवार्य है, भले ही विरोधी पक्ष बचाव के रूप में परिसीमा अवधि को न उठाए।
    • यह प्रावधान अधिनियम की धारा 4 से 24 में निहित अपवादों के अधीन है।
    • इससे न्यायालयों के लिये परिसीमा अवधि पर स्वयं विचार करने का एक सांविधिक कर्त्तव्य बनता है, भले ही पक्ष इस मुद्दे को उठाएं या नहीं।
    • यह प्रावधान परिसीमा अवधि को विधि के एक मामले के रूप में स्थापित करता है जिसे पक्षकारों द्वारा क्षमा नहीं किया जा सकता है।
    • न्यायालयों को पुराने दावों पर विचार किये जाने से रोकने के लिये इस नियम को स्वचालित रूप से लागू करना चाहिये।
  • वी.एम. सालगावकर एंड ब्रदर्स बनाम मोरमुगाओ बंदरगाह के न्यासी बोर्ड एवं अन्य (2005)
    • परिसीमा अधिनियम की धारा 3 का अधिदेश यह है कि न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह निर्धारित परिसीमा अवधि के बाद दायर किसी भी वाद को खारिज कर दे, भले ही परिसीमा अवधि को बचाव के रूप में स्थापित न किया गया हो। 
    • यदि कोई वाद परिसीमा विधि द्वारा पूर्व दृष्टया वर्जित है, तो न्यायालय के पास उसे खारिज करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है, भले ही प्रतिवादी ने साशय परिसीमा की दलील न दी हो।