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आपराधिक कानून

बाल साक्षी का परिसाक्ष्य

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 19-Mar-2025

मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह   

"साक्ष्य अधिनियम में साक्षी  के लिये  कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की गई है, और इसलिये  बाल साक्षी  एक सक्षम साक्षी है और उसके साक्ष्य को प्रत्यक्ष  तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता है।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों?  

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ नेबाल साक्षी का परिसाक्ष्य  अभिलिखित  करते समय ध्यान में रखे जाने वाले सिद्धांत निर्धारित किये ।  

  • उच्चतम न्यायालय  नेमध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलवीर सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?    

  • 15 जुलाई, 2003 कोमध्यरात्रि के समय भूरा सिंह उर्फ ​​यशपाल और उसके पिता भरत सिंह ने बलवीर सिंह यादव (अभियुक्त) के घर से वीरेंद्र कुमारी (मृतका) की चीखें सुनीं। 
  • चीख-पुकार बंद होने के पश्चात  करीब तीन बजे उन्होंने देखा कि बलवीर और उसके परिवार के सदस्य अपने खेत में वीरेंद्र कुमारी के शव का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। 
  • परिवादी 16 जुलाई 2003 को सुबह करीब 9 बजे इंदार पुलिस स्टेशन गएऔरदण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 174 के अधीन  अप्राकृतिक मृत्यु  की रिपोर्ट दर्ज कराई। 
  • ASI महेंद्र सिंह चौहान ने जांच की, जिसमें पता चला कि अभियुक्त  ने अपनी पत्नी को पहली मंजिल पर बरामदे में जमीन पर फेंक दिया और फिर अपने पैर से उसकी गर्दन दबा दी। 
  • 20 जुलाई 2003 को, बलवीर सिंह यादव और उनकी बहन जतन बाई के विरुद्ध भारतीय दण्ड  संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302, 201 के साथ 34 के अधीन  अपराध के लिये FIR  संख्या 142/2003 रजिस्ट्रीकृत की गई थी। 
  • अन्वेषण के दौरान, पुलिस ने साक्षियों  के कथन  अभिलिखित किये, साइट प्लान तैयार किया और दाह संस्कार स्थल से हड्डियां और जली हुई चूड़ियां तथा एक प्लास्टिक डीजल कैन जब्त किया। 
  • अभियुक्त को गिरफ्तार कर लिया गयाऔर आरोप पत्र दाखिल कर दिया गया। 
  • 3 अगस्त 2003 को पुलिस नेअभियुक्त  और मृतक की पुत्री  रानी, ​​जो एक बाल साक्षी  थी, काकथन अभिलिखित  किया । 
  • सह-अभियुक्त जतन बाई अवयस्क  पाई गई, इसलिये  उसकावाद पृथक  कर दिया गया। 
  • बलवीर सिंह यादव के विरुद्ध  मामला सत्र न्यायालय को S.T. संख्या 197/2003 के रूप में सुपुर्द किया  गया था, जहाँ  अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा आरोप विरचित  किये  गए थे, जिस पर अभियुक्त  ने निर्दोष होने का अभिवाक् दिया था ।  

  • विचारण न्यायालय  ने निम्नलिखित आदेश दिये :  
    • विचारण न्यायालय ने अभियुक्त  बलवीर सिंह यादव को धारा 302, 201 सहपठित भारतीय दण्ड संहिता  की धारा 34 के अधीन  दोषी ठहराया, जो मुख्य रूप से पीडब्लू 6 रानी (अभियुक्त  और मृतक की 7-8 वर्षीय पुत्री ) के परिसाक्ष्य  पर आधारित था, जिसने अपने पिता को अपनी माँ  की गर्दन पर अपना पैर दबाते हुए देखा था, जिससे उसकी मृत्यु  हो गई थी। 
    • न्यायालय  ने पाया कि परिवार के सदस्यों को सूचित किये  बिना रात में मृतक का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार कर दिया जाना, अभियुक्त  का घटनास्थल से भाग जाना, तथा अभियुक्त  और मृतक के बीच तनावपूर्ण संबंध (पूर्व भरण-पोषण मामलों सहित) अपराध सिद्ध करने वाली परिस्थिति थी 
    • दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161  के अधीन  पीडब्लू 6 के कथन  को अभिलिखित  करने में देरी के बावजूद, न्यायालय  ने उसके परिसाक्ष्य  को विश्वसनीय, स्वाभाविक पाया, तथा अन्य साक्षियों  द्वारा संपुष्टि  की गई, जिन्होंने मृतक की चीखें सुनी थीं, तथा अंतिम संस्कार स्थल पर पाए गए जले हुए चूड़ियों जैसे भौतिक साक्ष्यों द्वारा भी इसकी संपुष्टि  की गई। 
    • अभियुक्त को हत्या के लिये  आजीवन कठोर कारावास व 1,000 रुपये जुर्माना (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 ) तथा साक्ष्य नष्ट करने के लिये  चार वर्ष का  कठोर कारावास व 2,000 रुपये जुर्माना (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201) का दण्ड  सुनाया गया 
  • उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिये  जिसके विरुद्ध मामला उच्चतम  न्यायालय में आया: 
    • उच्चन्यायालय ने अभियुक्त बलवीर सिंह यादव को दोषमुक्त  कर दिया, तथा अधीनस्थ न्यायालय  के निर्णय  को पलट दिया, जिसका मुख्य कारण पी.डब्लू.6 रानी के परिसाक्ष्य  की विश्वसनीयता के बारे में चिंता थी, तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 161  के अधीन  उसका कथन  अभिलिखित  करने में 18 दिन की देरी हुई थी। 
    • न्यायालय  ने यह संदिग्ध पाया कि अभियुक्त को पी.डब्लू.6 के कथन अभिलिखित  होने के पश्चात  ही गिरफ्तार किया गया था, जिससे पता चलता है कि उससे पहले पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे और यह भी संकेत मिलता है कि उसका पहले का शवगृह जांच कथन  (जो न्यायालय  में पेश नहीं किया गया था) अभियोजन  के लिये  प्रतिकूल हो सकता है। 
    • उच्च न्यायालय ने परिवादी  पी.डब्लू.3 भूरा के परिसाक्ष्य में विरोधाभासों की पहचान की, जिसमें मुर्दाघर रिपोर्ट में उसके द्वारा अभियुक्त के घर प्रातः 3:00 बजे जाने के बारे में दिये  गए कथनों  से इंकार  करना भी शामिल था, तथा उसके द्वारा यह स्वीकृति  भी अभिलिखित  की गई कि दाह संस्कार के दौरान ग्रामीण मौजूद थे, जिससे शव को गुप्त तरीके से दफनाने के दावे कमजोर हो गए। 
    • स्वतंत्र साक्षी  पी.डब्लू.1 और पी.डब्लू.2 के परिसाक्ष्य  के आधार पर, न्यायालय  ने पाया कि यह बात अविश्वसनीय है कि पी.डब्लू.3 ने मृतक की चीखें 4-5 फर्लांग दूर से सुनी होंगी और कहा कि चूंकि 
    •  ग्राम में कोई  श्मशान घाट नहीं था, इसलिये  खेतों में दाह संस्कार करना ग्राम  में सामान्य प्रथा थी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ  क्या थीं? 

  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  किभारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 118, जोअबभारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 124 में निहित है , यह उपबंध  करती है कि सभी व्यक्ति साक्ष्य देने के लिये  सक्षम होंगे, जब तक कि न्यायालय यह न समझे कि कम आयु, अत्यधिक बुढ़ापे, मानसिक बीमारी या इसी तरह के किसी अन्य कारण से उन्हें उनसे पूछे गए प्रश्नों को समझने या इन प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर देने से रोका जा रहा है। 
  • यदि किसी अल्पवयस्क बालकों में प्रश्नों को समझने तथा उनके तर्कसंगत उत्तर देने की बौद्धिक क्षमता है तो उसे भीपरिसाक्ष्य  देने की अनुमति दी जा सकती है । 
    • बाल साक्षी  की विश्वसनीयता के पहलू पर न्यायालय ने निम्नलिखित बिंदु निर्धारित किये: 
    • बाल साक्षी का साक्ष्य किसी भी अन्य साक्षी  के समान ही माना जाएगा, जब तक कि बालक परिसाक्ष्य  देने में सक्षम हो। 
    • न्यायालय को बाल साक्षी के साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय केवल इस सावधानी का पालन करना चाहिये कि उक्त साक्षी विश्वसनीय हो, क्योंकि बालक  प्रायः प्रभावित किये  जाने अथवा शिक्षण (Tutoring) का शिकार होने की प्रवृत्ति रखते हैं। 
    • अपितु, इसका यह आशय बिलकुल नहीं है कि बालक  के साक्ष्य को थोड़ी-सी भी विसंगति पर सीधे खारिज कर दिया जाना चाहिये, अपितु  जरूरत इस बात की है कि उसका बहुत सावधानी से मूल्यांकन किया जाए। 
    • इसके अतिरिक्त, बाल साक्षी  के परिसाक्ष्य  की सराहना करते समय न्यायालयों को यह आकलन करना आवश्यक है कि क्या ऐसे साक्षी  का साक्ष्य उसकी स्वैच्छिक अभिव्यक्ति है और दूसरों के प्रभाव से उत्पन्न नहीं है तथा क्या परिसाक्ष्य  विश्वास पैदा करती है। 
    • इसके अतिरिक्त, ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके अधीन  किसी भी तरह के साक्ष्य पर भरोसा करने से पहले बाल साक्षी  की संपुष्टि  की आवश्यकता हो। 
    • संपुष्टि करण पर जोर देना केवल सावधानी और विवेक का एक उपाय है, जिसे न्यायालय  मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों में आवश्यक समझे जाने पर अपना सकती हैं। 
  • न्यायालय ने इस मामले में प्रशिक्षित परिसाक्ष्य पर विधि  भी निर्धारित की : 
    • न्यायालय ने कहा कि जहाँ शिक्षण (Tutoring) दिया गया है, वहाँ  इसे दो तरीकों से किया जा सकता है: (i) अचिंतित रचना (improvisation) और (ii) विरचना (fabrication)। 
      (i) के संबंध में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि साक्षी  का खण्डन  करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता  की धारा 162 के साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम  की धारा 145 की सहायता  लेनी होगी। 
      (ii) के संबंध में न्यायालय ने माना कि जहाँ  आरोप शिक्षण (Tutoring)  से संबंधित है, वहाँ  निम्नलिखित दोहरी आवश्यकताओं को साबित किया जाना चाहिये  
    • साक्षी  को प्रशिक्षित किये जाने की संभावना या अवसर। 
    • शिक्षण (Tutoring)  की उचित संभावना. 
  • वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे यह पता चले कि बाल साक्षी  को कुछ सिखाया गया था। 
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर किया गया था और ऐसी स्थिति में भारतीय दण्ड  संहिता की धारा 106 लागू की जा सकती है, यदि यह दर्शाया जाता है कि प्रथम दृष्टया मामला अभियुक्त  के पक्ष में है। 
  • न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया  कि निम्नलिखित जैसे कारक एक “प्रथम दृष्टया” मामला बनाएंगे जिसके आधार पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम  की धारा 106 को लागू किया जा सकता है- 
    • प्रतिवादी ने घर में अपनी उपस्थिति पर कोई विवाद नहीं किया। 
    • अभियुक्त द्वारा मृतका की मृत्यु की सूचना उसके माता-पिता को न देना। 
    • फरार होने के दौरान अभियुक्त का आचरण। 
    • मृतक की संदिग्ध परिस्थितियों में असामयिक मृत्यु। 
    • अभियुक्त द्वारा अपने विरुद्ध प्रकट होने वाली आपत्तिजनक परिस्थितियों को स्पष्ट करने में विफलता। 
  • इस प्रकार, मामले के तथ्यों को देखते हुए न्यायालय नेअपील को स्वीकार कर लियातथा विचारण न्यायालय  द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश को बहाल कर दिया। 

बाल साक्षी  के परिसाक्ष्य  पर न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत क्या हैं? 

  • बाल साक्षी  की सक्षमता :साक्षी  के लिये  कोई न्यूनतम आयु नहीं है; बाल साक्षी  तब तक योग्य होता है जब तक अन्यथा सिद्ध न हो जाए। 
  • प्रारंभिक परीक्षा :साक्ष्य अभिलिखित  करने से पूर्व विचारण  न्यायालय को बालक के परिसाक्ष्य  की पवित्रता को समझने की क्षमता का आकलन करना चाहिये  
  • न्यायालय की राय:न्यायालय को इस बात पर अपनी संतुष्टि अभिलिखित  करनी चाहिये  कि बालक सत्य  बोलने के कर्त्तव्य  को समझता है। 
  • परीक्षा विवरण का अभिलेखन:पूछे गए प्रश्नों और बालकों  के उत्तरों को अपील न्यायालयों द्वारा समीक्षा के लिये  दस्तावेजित किया जाना चाहिये  
  • साक्षी  की ग्राह्यता :यदि बालकों के परिसाक्ष्य  सुसंगत और तर्कसंगत हो तो वह ग्राह्य  है। 
  • आचरण एवं प्रभाव:न्यायालय  को यह सुनिश्चित करना होगा कि परिसाक्ष्य  स्वैच्छिक हो और दूसरों से प्रभावित न हो। 
  • संपुष्टि   अनिवार्य नहीं:किसी विश्वसनीय बाल साक्षी  पर बिना संपुष्टि  के भी भरोसा किया जा सकता है। 
  • संपुष्टि  में सावधानी:यदि परिसाक्ष्य  बनावटी या असंगत प्रतीत होती है तो न्यायालय संपुष्टि करण की मांग कर सकता है। 
  • शिक्षण (Tutoring)  का जोखिम:न्यायालयों को बाहरी प्रभाव को खारिज करने के लिये परिसाक्ष्य  की सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए। 
  • शिक्षण (Tutoring)   संकेतक:यदि किसी साक्षी  का कथन  बदला हुआ या गढ़ा हुआ है, तो उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिये  और पूर्व कथनों  के आधार पर उसका विचारण  किया जाना चाहिये 
  • शिक्षण (Tutoring)   का आकलन:यदि यह साबित हो जाए कि बालक  प्रभावित है, तो उसकी परिसाक्ष्य  को खारिज किया जा सकता है, जबकि शिक्षण (Tutoring)   के अवसर और संभावना को दर्शाने वाले साक्ष्य भी उपस्थित  होने चाहिये 
  • आंशिक विश्वसनीयता:भले ही बालकों के परिसाक्ष्य  के कुछ हिस्से प्रशिक्षित हों, किंतु  यदि वह विश्वसनीय हो तो न्यायालय अशिक्षित हिस्से पर भी भरोसा कर सकता है।