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सिविल कानून

भरोसा एक विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person)

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 28-Sep-2023

प्राण एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट एवं अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य।

ट्रस्ट विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person) के समान है, इसे परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत चेक के बाउंस के अपराध के लिये उत्तरदायी बनाया जा सकता है।

केरल उच्च न्यायालय

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

केरल उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि भरोसा चाहे वह सार्वजनिक, निजी या धर्मार्थ हो, एक विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person) के समान है और परक्राम्य लिखत अधिनियम (एनआई अधिनियम) की धारा 138 के तहत चेक बाउंस के अपराध के लिये उत्तरदायी बनाया जा सकता है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • देनदारी के निर्वहन के लिये शिकायतकर्त्ता को एक चेक जारी किया गया था, जो आरोपी (प्राण एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट) के खाते से जारी किया गया था और उसे "अपर्याप्त धनराशि" के कारण बाउंस कर दिया गया था।
  • शिकायतकर्त्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (ट्रायल कोर्ट) के न्यायालय में परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध करने का आरोप लगाते हुए आरोपी के खिलाफ अभियोजन शुरू किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को धारा 138 के तहत दोषी ठहराया और सजा सुनाई। फिर इससे व्यथित होकर, आरोपी ने सजा और दोषसिद्धि को सत्र न्यायालय के समक्ष चुनौती दी।
  • सत्र न्यायाधीश ने भी ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सजा की पुष्टि की।
  • ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय द्वारा सुनाये गये दोषसिद्धि और सजा के समवर्ती फैसलों को चुनौती देते हुए, पुनरीक्षण याचिका दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 397 और 401 के तहत केरल उच्च न्यायालय (HC) में दायर की गई थी।
    • याचिकाकर्त्ताओं के वकील ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि शिकायतकर्त्ता द्वारा अभियोजन कानूनी रूप से वैध नहीं था क्योंकि ट्रस्ट परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के तहत एक विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person) के समान नहीं है।
  • याचिकाकर्ता ने के. पी. शिबू और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (वर्ष 2019) के मामले को आधार बनाया था जिसमें केरल उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 138 पराक्रम्य लिखत अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध करने का आरोप लगाने वाले ट्रस्ट के खिलाफ अभियोजन कायम नहीं रहेगा, क्योंकि ट्रस्ट न तो एक कॉर्पोरेट निकाय है, न ही व्यक्तियों का संघ है, जैसा कि एनआई एक्ट की धारा 141 धारा में प्रदान किया गया है।
  • प्रतिवादी ने इन पर भरोसा जताया:
    • अब्राहम मेमोरियल एजुकेशनल ट्रस्ट बनाम सी. सुरेश बाबू (वर्ष 2012) मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि किसी ट्रस्ट पर भी मुकदमा चलाया जा सकता है, हालाँकि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत कारावास की सजा अनिवार्य है, लेकिन एक ट्रस्ट पर केवल जुर्माना या मुआवज़ा लगाया जा सकता है।
    • दादासाहेब रावल सहकारी बैंक ऑफ डोंडाइचा लिमिटेड बनाम रमेश और अन्य (2008) तथा शाह राजेंद्र भाई जयंतीलाल बनाम डी. प्राणजीवनदास और बेटे प्रो. धीरजलाल प्राणजीवनदास पोपट (वर्ष 2015) मामले में क्रमशः मुंबई और गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 में दिये गये 'कंपनी' में कोई भी 'व्यक्तियों का संघ' शामिल होगा और 'व्यक्तियों के संघ' में एक क्लब, ट्रस्ट या हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) शामिल होगा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायालय ने कई उदाहरणों से विकसित हुए कानूनी रुख का सारांश निम्नलिखित तरीके से प्रदान किया:
    • परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 की व्याख्या के उप-खंड (a) में अभिव्यक्ति 'कंपनी' में कोई भी कॉर्पोरेट या अन्य 'व्यक्तियों का संघ' शामिल है और 'व्यक्तियों का संघ' शब्द की व्याख्या एजुस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत को लागू करके की जानी है।
      • एजुस्डेम जेनेरिस का अर्थ है "एक ही प्रकार का।" जहाँ सामान्य शब्द या वाक्यांश कई विशिष्ट शब्दों या वाक्यांशों का अनुसरण करते हैं, वहाँ सामान्य शब्दों को विशेष रूप से सीमित माना जाता है, जो केवल एक ही प्रकार के व्यक्तियों या वस्तुओं पर लागू होते हैं।
      • उदाहरण के लिये, यदि किसी वाक्य में जहाज़ों, नावों, स्टीमर और अन्य वाहनों का संदर्भ दिया गया है, तो न्यायालय यह मानने के लिये एजुस्डेम जेनेरिस का उपयोग कर सकता है, ऐसे वाहनों में केवल जल परिवहन वाहन शामिल होंगे।
    • एक ट्रस्ट, चाहे निजी हो या सार्वजनिक, धर्मार्थ या अन्यथा, एक विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person) के समान है और पराक्रम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध के लिये सजा के लिये उत्तरदायी भी है।
    • एक ट्रस्ट, चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक, धर्मार्थ हो या अन्यथा, जिसमें एक ट्रस्टी या दो या अधिक ट्रस्टी होते हैं, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 141 के संदर्भ में एक कंपनी के समान है।
    • ऐसे मामलों में जहाँ कोई ट्रस्ट परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध करता है, ट्रस्ट के दैनिक कार्यों की देखरेख के लिये ज़िम्मेदार प्रत्येक ट्रस्टी को ट्रस्ट के स्थान पर सजा का सामना करना पड़ेगा।
  • केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी और याचिकाकर्त्ताओं को फैसले की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाये गये जुर्माना/मुआवज़ा का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।

विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person)

एक विधिवेत्ता इकाई (Jurist Person) कानून द्वारा मान्यता प्राप्त एक गैर-मानवीय कानूनी इकाई है, जो एक इंसान की तरह ही अधिकारों और कर्त्तव्यों का हकदार भी है।

परक्राम्य लिखत अधिनियम में शामिल कानूनी प्रावधान

धारा 138 - खातों में अपर्याप्त निधियों, आदि के कारण चेक का बाउंस होना -- जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णत: या भागत: उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो लौटा दिया जाता है, जो उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है और वह इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक होगा, या दोनों से, दंडनीय होगा:

परंतु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक--

(क) वह चेक उसके, लिखे जाने की तिथि से छह माह की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के भीतर जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो;

(ख) चेक का पाने वाला या धारक, सम्यक्‌ अनुक्रम में चेक के लेखीवाल को, असंद्त चेक के लौटाए जाने के बाबत् बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर, लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के संदाय के लिये मांग नहीं करता है; और

(ग) ऐसे चेक का लेखीवाल, चेक के पाने वाले को या धारक को उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय सम्यक्‌ अनुक्रम में करने में असफल नहीं रहता है।

स्पष्टीकरण --इस धारा के प्रयोजनों के लिये, “ऋण या अन्य दायित्व” से विधित: प्रवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व अभिप्रेत है।

धारा 141 - कंपनियों द्वारा अपराध -

  • यदि धारा 138 के अधीन अपराध करने वाला व्यक्ति कोई कंपनी है तो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो उस अपराध के किए जाने के समय उस कंपनी के कारबार के संचालन के लिए उस कंपनी का भारसाधक और उसके प्रति उत्तरदायी था और साथ ही वह कंपनी भी ऐसे अपराध के लिए दोषी समझे जाएंगे और तदनुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किए जाने और दंडित किए जाने के भागी होंगे :

परंतु इस उपधारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को दंड का भागी नहीं बनाएगी यदि वह यह साबित कर देता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था अथवा उसने ऐसे अपराध के निवारण के लिए सब सम्यक्‌ तत्परता बरती थी, परंतु यह और कि जहां किसी व्यक्ति को, यथास्थिति, केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार या केंद्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन किसी वित्त निगम में कोई पद धारण करने या नियोजन में रहने के कारण किसी कंपनी के निदेशक के रूप में नामनिर्दिष्ट किया जाता है, वहां वह इस अध्याय के अधीन अभियोजन का भागी नहीं होगा।

सीआरपीसी के कानूनी प्रावधान

धारा 397 - पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेख मंगाना -

(1) उच्च न्यायालय या कोई सत्र न्यायाधीश अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर स्थित किसी अवर दंड न्यायालय के समक्ष की किसी कार्यवाही के अभिलेख को, किसी अभिलिखित या पारित किये गए निष्कर्ष, दंडादेश या आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य के बारे में और ऐसे अवर न्यायालय की किन्हीं कार्यवाहियों की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन से, मंगा सकता है और उसका परीक्षण कर सकता है और ऐसा अभिलेख मंगवाते समय निर्देश दे सकता है कि अभिलेख की परीक्षा लंबित रहने तक किसी दण्डादेश का निष्पादन निलंबित किया जाए और यदि अभियुक्त परिरोध में है तो उसे जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए।

स्पष्टीकरण - सभी मजिस्ट्रेट, चाहे वे कार्यपालक हो या न्यायिक और चाहे वे आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग कर रहे हो, या अपीलीय अधिकारिता का, इस उपधारा के और धारा 398 के प्रयोजनों के लिये सत्र न्यायाधीश अवर समझे जाएँगे।

(2) उपधारा (1) द्वारा प्रदत पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किसी अपील, जाँच विचारण या अन्य कार्यवाही में पारित किसी अंतर्वर्ती आदेश के बाबत् नहीं किया जाएगा।

(3) यदि किसी व्यक्ति द्वारा इस धारा के अधीन आवेदन या तो उच्च न्यायालय को या सत्र न्यायाधीश को किया गया है तो उसी व्यक्ति द्वारा कोई और आवेदन उनमें से दूसरे के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाएगा।

धारा 401 - उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की शक्तियाँ -

(1) ऐसी किसी कार्यवाही के मामले में, जिसका अभिलेख उच्च न्यायालय ने स्वयं मंगवाया है या जिसकी उसे अन्यथा जानकारी हुई है, वह उक्त धाराओं 386, 389, 390 और 391 के द्वारा अपील न्यायालय को या धारा 307 द्वारा सेशन न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों में से किसी के स्वविवेकानुसार प्रयोग कर सकता है और जब वे न्यायाधीश, जो पुनरीक्षण न्यायालय में पीठासीन हैं, राय में समान रूप से विभाजित हैं तब मामले का निपटारा धारा 392 द्वारा उपबंधित रीति से किया जाएगा।

(2) इस धारा के अधीन कोई आदेश, जो अभियुक्त या अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तब तक नहीं किया जाएगा जब तक उसे अपनी प्रतिरक्षा में या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा सुने जाने का अवसर न मिल चुका हो।

(3) इस धारा की कोई बात उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि के निष्कर्ष में संपरिवर्तित करने के लिये प्राधिकृत करने वाली नहीं  समझी जाएगी।

(4) जहाँ इस संहिता के अधीन अपील हो सकती है, किंतु कोई अपील की नहीं जाती है वहाँ उस पक्षकार की प्रेरणा पर, जो अपील कर सकता था, पुनरीक्षण की कोई कार्यवाही ग्रहण नहीं की जाएगी।

(5) जहाँ इस संहिता के अधीन अपील होती है, किंतु उच्च न्यायालय को किसी व्यक्ति द्वारा पुनरीक्षण के लिये आवेदन किया गया है और उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा आवेदन इस गलत विश्वास के आधार पर किया गया था कि उससे कोई अपील नहीं होती है और न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है तो उच्च न्यायालय पुनरीक्षण के लिये आवेदन को अपील की अर्जी मान सकता है और उस पर तद्नुसार कार्यवाही कर सकता है।