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आपराधिक कानून

फेक एनकाउंटर में होने वाली हत्याएँ

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 09-Aug-2024

NCT दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह

“CrPC की धारा 197 के अधीन स्वीकृति, FIR के पंजीकरण को बाधित नहीं करेगी, क्योंकि इसे बाद में प्राप्त किया जा सकता है, यदि परिस्थितियाँ इसकी मांग करती हैं।”

न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने NCT दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह के मामले में यह प्रावधान किया कि जब भी कोई कथित फेक एनकाउंटर की सूचना मिले तो पुलिस के विरुद्ध FIR दर्ज की जानी चाहिये।

दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता 1860 (IPC) की धारा 186, धारा 353, धारा 307, धारा 34 और आर्म्स एक्ट, 2019 (AA ) की धारा 25 एवं धारा 27 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अपराध शाखा, रोहिणी, दिल्ली की विशेष टीम को सूचना मिली थी कि एक खूँखार, कट्टर एवं हताश अपराधी मनोज उर्फ ​​मोरेखेरी अपने सहयोगियों के एक गिरोह के साथ, जो हत्या, उददापन (जबरन वसूली), व्यापारियों से संरक्षण राशि एकत्र करने आदि के अपराधों में लिप्त है, अलीपुर, दिल्ली के क्षेत्र में व्याप्त है।
  • आरोपी एवं गिरोह के अन्य सदस्य कार में पाए गए तथा जब पुलिस ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की तो उनके बीच गोलीबारी हुई, जिससे राकेश उर्फ ​​राका नामक अपराधी की मौत हो गई।
  • पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौत का कारण आरोपी की पीठ के निचले हिस्से में पहले लगी चोटें थीं, जो गोली लगने के कारण बढ़ गई थीं।
  • यह भी तर्क दिया गया कि घटना की उप-मंडल मजिस्ट्रेट द्वारा गहन जाँच की गई थी, जिन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि पुलिस अधिकारियों द्वारा गोलियाँ उस कार सवार से स्वयं को बचाने के लिये आत्मरक्षा में चलाई गई थीं, जिसने उन पर गोली चलाई थी।
  • मृतक के पिता श्री पूरन सिंह (प्रतिवादी) ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200 के अधीन और IPC की धारा 302 तथा 34 और धारा 27 AA  के तहत दण्डनीय अपराधों के लिये अपने बेटे की मृत्यु के लिये एक आपराधिक शिकायत दर्ज की।
  • यह भी तर्क दिया गया कि भागने के लिये कथित तौर पर भाग रहे तीन आरोपियों में से किसी ने भी पुलिस की ओर गोली नहीं चलाई थी और किसी भी पुलिस अधिकारी को कोई चोट नहीं आई।
  • कार की निरीक्षण रिपोर्ट ने यह भी स्थापित किया कि कार के सभी तरफ से गोलीबारी की गई थी क्योंकि सभी विंड स्क्रीन टूटी हुई थीं, जबकि राकेश घायल अवस्था में पिछली सीट पर रक्त रंजित पाया गया था।
  • मृतक के पास कोई हथियार नहीं था, पहले उसे बेरहमी से पीटा गया तथा फिर उस पर गोली चलाई गई और यह मुठभेड़ नहीं बल्कि हत्या का स्पष्ट मामला था।
  • मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (CMM) के समक्ष संज्ञान लिया गया, जिन्होंने पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 156 (3) के अधीन FIR दर्ज करने का आदेश दिया।
  • इस आदेश को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष चुनौती दी गई, जिन्होंने CMM के आदेश की पुष्टि की।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई।
  • पुलिस ने CrPC की धारा 197 के अधीन आधार बनाया कि पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध FIR दर्ज करने के लिये पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि न्याय की परिधि से बाहर किये गए किसी भी कृत्य की न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये पूरी सावधानी से विवेचना की जानी चाहिये।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों का उदहारण दिया तथा निष्कर्ष निकाला कि पुलिस CrPC की धारा 197 (अब BNSSकी धारा 218) का उपयोग सभी कृत्यों के विरुद्ध सुरक्षात्मक बाधा के रूप में नहीं कर सकती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 197 पुलिस अधिकारियों को केवल उन कृत्यों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है जो उनके कर्त्तव्य निर्वहन में किये जाते हैं।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने सही कहा है कि जब भी कोई कथित फेक एनकाउंटर की सूचना मिलती है तो पुलिस के विरुद्ध FIR दर्ज की जानी चाहिये।

फेक एनकाउंटर क्या है?

परिचय:

  • यह उन व्यक्तियों की न्यायेतर हत्या का कृत्य है, जिन्हें विभिन्न अवसरों पर अपराधी बताया गया है और जो विधि प्रवर्तन एजेंसियों की अभिरक्षा में हैं।
  • यह कृत्य विधि की उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना किया जाता है।
  • एनकाउंटर मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
  • फर्जी एनकाउंटर तेज़ी से बढ़ रहे हैं, जिससे पीड़ितों के मौलिक एवं संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन हो रहा है।

भारत में मुठभेड़ से संबंधित विधिक प्रावधान:

  • भारत में मुठभेड़ से संबंधित कोई प्रत्यक्ष प्रावधान नहीं हैं, जबकि कुछ प्रावधान पुलिस अधिकारियों या अन्य जाँच एजेंसियों को निम्नलिखित प्रावधानों के अनुसार आवश्यक कार्यवाही करने का अधिकार देते हैं।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 34 से धारा 44 में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान बताए गए हैं तथा साथ ही उन परिस्थितियों के विषय में भी बताया गया है जैसे कि मृत्यु, गंभीर चोट, बलात्संग, एसिड अटैक, जहाँ कोई व्यक्ति अपने निजी बचाव के लिये किसी की मृत्यु का कारण बनता है, तो उसे विधिक दायित्वों से छूट दी जाएगी।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 43 (3) पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी के समय किसी आरोपी को मौत की सज़ा देने का अधिकार देती है, जिसके लिये मृत्यु या आजीवन कारावास की सज़ा हो सकती है।
  • सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम की धारा 4 सशस्त्र बलों को विशेष शक्ति प्रदान करती है, जिसके अधीन यह अधिकारियों को आवश्यक होने पर आरोपी के विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही करने में सक्षम बनाती है।

फेक एनकाउंटरों के पीड़ितों के अधिकार:

  • फेक एनकाउंटरों के पीड़ितों को निम्नलिखित प्रावधानों के अनुसार अधिकारियों के विरुद्ध अभियोजन चलाने का अधिकार है:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (COI): इस अनुच्छेद 14 के अनुसार, राज्य किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष संता से वंचित नहीं करेगा, लेकिन एनकाउंटर के कारण व्यक्ति के स्वयं उपस्थित होने एवं अभियोजन का सामना करने के अधिकार को क्षमा कर दिया गया है।
    • COI का अनुच्छेद 21: अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि किसी को भी व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाना चाहिये, जो आपराधिक इतिहास वाले व्यक्ति की भी रक्षा करता है।
    • COI का अनुच्छेद 22: अनुच्छेद 22 किसी आरोपी व्यक्ति को तब तक कुछ अधिकार देता है, जब तक कि वह दोषी सिद्ध न हो जाए।
    • BNS की धारा 100: फेक एनकाउंटरों के कृत्य के लिये दोषी ठहराए जाने वाले अधिकारियों के विरुद्ध भी BNS की धारा 100 उपलब्ध है।

फेक एनकाउंटरों के विरुद्ध दिशा-निर्देश:

उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश:

  • PUCL बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले (2014) में, उच्चतम न्यायालय मुंबई पुलिस द्वारा की गई 99 एनकाउंटर हत्याओं की वास्तविकता पर प्रश्न करने वाली रिट याचिकाओं पर विचार कर रहा था, जिसमें वर्ष 1995 एवं वर्ष 1997 के मध्य 135 कथित अपराधियों को गोली मार दी गई थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने तब पुलिस एनकाउंटरों के दौरान मृत्यु के मामलों में गहन, प्रभावी एवं स्वतंत्र जाँच के लिये मानक प्रक्रिया के रूप में निम्नलिखित 16 सूत्री दिशा-निर्देश निर्धारित किये:
    • रिकॉर्ड टिप-ऑफ: जब भी पुलिस को किसी गंभीर आपराधिक अपराध से संबंधित आपराधिक गतिविधियों के विषय में कोई गुप्त जानकारी या टिप-ऑफ मिलती है, तो उसे लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में रिकॉर्ड किया जाना चाहिये। ऐसी रिकॉर्डिंग में संदिग्ध व्यक्ति या समूह के मिलने के स्थान का विवरण प्रकट करना ज़रूरी नहीं है।
    • FIR संस्थित किया जाना: यदि किसी सूचना के आधार पर पुलिस आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करती है और इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उचित आपराधिक जाँच शुरू करने के लिये FIR दर्ज की जानी चाहिये तथा बिना किसी विलंब के न्यायालय को भेजी जानी चाहिये।
    • स्वतंत्र जाँच: ऐसी मौत की जाँच एक स्वतंत्र CID ​​टीम या किसी अन्य पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा वरिष्ठ अधिकारी की देखरेख में की जानी चाहिये। इसमें आठ न्यूनतम जाँच मानकों को पूरा करना होता है, जैसे पीड़ित की पहचान करना, साक्ष्य सामग्री को पुनः प्राप्त करना एवं संरक्षित करना, घटनास्थल के साक्षियों की पहचान करना आदि।
    • न्यायिक जाँच: मुठभेड़ में हुई मौतों के सभी मामलों की अनिवार्य न्यायिक जाँच की जानी चाहिये तथा इसकी रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिये।
    • NHRC को सूचित करना: NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोग (जैसा भी मामला हो) को मुठभेड़ में हुई मौतों के विषय में तुरंत सूचित किया जाना चाहिये।
    • चिकित्सा सहायता: यह घायल पीड़ित/अपराधी को अवश्य प्रदान की जानी चाहिये तथा मजिस्ट्रेट या चिकित्सा अधिकारी को फिटनेस प्रमाण-पत्र के साथ उसका बयान दर्ज करना चाहिये ।
    • विलंब का प्रतिषेध: FIR, पंचनामा, स्केच एवं पुलिस डायरी प्रविष्टियों को बिना किसी विलंब के संबंधित न्यायालय को भेजना सुनिश्चित करना होता है।
    • न्यायालय को रिपोर्ट भेजना: घटना की पूरी जाँच के बाद, शीघ्र विचारण सुनिश्चित करने के लिये सक्षम न्यायालय को रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये।
    • परिजनों को सूचित करना: आरोपी अपराधी की मृत्यु के मामले में, उनके निकटतम परिजनों को जल्द-से-जल्द सूचित किया जाना चाहिये।
    • रिपोर्ट प्रस्तुत किया जाना: सभी मुठभेड़ हत्याओं का द्विवार्षिक विवरण DGP द्वारा NHRC को एक निर्धारित तिथि तक निर्धारित प्रारूप में भेजा जाना चाहिये।
    • शीघ्र कार्यवाही: IPC के अधीन अपराध के रूप में, गलत मुठभेड़ के दोषी पाए गए पुलिस अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिये तथा तत्काल प्रभाव से उस अधिकारी को निलंबित किया जाना चाहिये।
    • क्षतिपूर्ति: CrPC की धारा 357-A (अब BNSS की धारा 396) के अधीन वर्णित क्षतिपूर्ति योजना को पीड़ित के आश्रितों को क्षतिपूर्ति देने के लिये लागू किया जाना चाहिये।
    • हथियार का समर्पण: संबंधित पुलिस अधिकारी को संविधान के अनुच्छेद 20 के अंतर्गत उल्लिखित अधिकारों के अधीन, फोरेंसिक एवं बैलिस्टिक विश्लेषण के लिये अपने हथियार सौंपने चाहिये।
    • अधिकारी को विधिक सहायता: घटना के विषय में आरोपी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना भेजी जानी चाहिये तथा अधिवक्ता/परामर्शदाता की सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिये।
    • पदोन्नति: मुठभेड़ में मारे गए अधिकारियों को ऐसी घटनाओं के तुरंत बाद कोई आउट-ऑफ-टर्न पदोन्नति या तत्काल वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाएगा।
    • शिकायत का निवारण: यदि पीड़ित परिवार को लगता है कि उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है, तो वह घटनास्थल पर क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र वाले सत्र न्यायाधीश से शिकायत कर सकता है। संबंधित सत्र न्यायाधीश को शिकायत के गुण-दोष पर गौर करना चाहिये तथा उसमें की गई शिकायतों का समाधान करना चाहिये।
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि पुलिस मुठभेड़ों में मृत्यु एवं गंभीर चोट के सभी मामलों में इन आवश्यकताओं/मानदण्डों का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के अधीन घोषित विधि मानकर इनका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये।

NHRC दिशा-निर्देश:

  • मार्च 1997 में, न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया (तत्कालीन NHRC के अध्यक्ष) ने पुलिस द्वारा फेक एनकाउंटरों के मामलों से संबंधित आम जनता एवं गैर-सरकारी संगठनों की बढ़ती शिकायतों की पृष्ठभूमि में इस बात पर ज़ोर दिया कि पुलिस को दो परिस्थितियों को छोड़कर किसी की जान लेने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है:
    • यदि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में मृत्यु हुई हो।
    • BNSS की धारा-43, पुलिस को बल प्रयोग करने का अधिकार देती है, जो मृत्यु तक विस्तारित हो सकता है, जैसा कि मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध के आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिये आवश्यक हो सकता है।
  • इस धारणा के आलोक में, NHRC ने सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों से यह सुनिश्चित करने को कहा कि पुलिस मुठभेड़ हत्याओं के मामलों में निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करे:
    • रजिस्टर: जब किसी पुलिस थाने के प्रभारी को मुठभेड़ में हुई मौतों के विषय में सूचना प्राप्त होती है, तो वह उस सूचना को उचित रजिस्टर में दर्ज करेगा।
    • जाँच: प्राप्त सूचना को संदेह के लिये पर्याप्त माना जाएगा तथा मृत्यु के लिये उत्तरदायी प्रासंगिक तथ्यों एवं परिस्थितियों की जाँच करने के लिये तत्काल कदम उठाए जाने चाहिये ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या कोई अपराध किया गया था और किसके द्वारा किया गया था।
    • क्षतिपूर्ति: यह मृतक के आश्रितों को तब दिया जा सकता है जब जाँच के परिणामों के आधार पर पुलिस अधिकारियों का अभियोजन किया जाता है।
    • स्वतंत्र एजेंसी: जब भी एक ही पुलिस स्टेशन से संबंधित पुलिस अधिकारी मुठभेड़ दल के सदस्य होते हैं, तो यह उचित है कि जाँच के लिये मामलों को किसी अन्य स्वतंत्र जाँच एजेंसी, जैसे राज्य CID ​​को भेजा जाए।
  • वर्ष 2010 में NHRC ने इन दिशा-निर्देशों को विस्तारित करते हुए निम्नलिखित को शामिल किया:
    • FIR दर्ज किया जाना: जब पुलिस के विरुद्ध कोई शिकायत की जाती है जिसमें आपराधिक मानव वध के संज्ञेय मामले के रूप में पहचाने जाने वाले आपराधिक कृत्य का आरोप लगाया जाता है, तो IPC की युक्तियुक्त धाराओं के अधीन FIR दर्ज की जानी चाहिये।
    • मजिस्ट्रेट जाँच: पुलिस कार्यवाही के दौरान होने वाली मौत के सभी मामलों में मजिस्ट्रेट जाँच जल्द-से-जल्द (अधिमानतः तीन महीने के भीतर) होनी चाहिये।
    • आयोग को रिपोर्ट करना: राज्यों में पुलिस कार्यवाही में मृत्यु के सभी मामलों की प्रारंभिक रिपोर्ट, जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक/पुलिस अधीक्षक द्वारा ऐसी मृत्यु के 48 घंटे के अंदर आयोग को भेजी जाएगी।
    • सभी मामलों में तीन महीने के अंदर आयोग को दूसरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये , जिसमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट, मजिस्ट्रेट जाँच के निष्कर्ष/वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की गई जाँच आदि जैसी सूचना दी जानी चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि NHRC की भागीदारी तब तक अनिवार्य नहीं है जब तक कि इस बात पर गंभीर संदेह न हो कि जाँच निष्पक्ष नहीं थी।

महत्त्वपूर्ण निर्णय/मामले:

  • अनिल कुमार एवं अन्य बनाम एम.के. अयप्पा एवं अन्य (2013): उच्चतम न्यायालय ने माना कि मजिस्ट्रेट की वैध स्वीकृति आदेश के बिना किसी लोक सेवक के विरुद्ध FIR दर्ज करने के लिये धारा 156(3) के अधीन मामले को संदर्भित नहीं कर सकता। इसलिये, पुलिस अधिकारी के विरुद्ध अपराध का कोई भी संज्ञान तब तक वर्जित है जब तक कि CrPC की धारा 197 के अधीन किसी युक्तियुक्त प्राधिकारी से स्वीकृति प्राप्त न हो जाए।
  • रोहताश कुमार बनाम हरियाणा राज्य (2013): यह देखा गया कि NHRC द्वारा दिये गए दो महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया था कि एनकाउंटर में हुई मौत की जाँच एक स्वतंत्र जांच एजेंसी द्वारा की जानी चाहिये तथा जब भी पुलिस के विरुद्ध आपराधिक मानव वध का मामला बनाते हुए शिकायत की जाती है तो FIR दर्ज की जानी चाहिये।
  • विनोतिनी बनाम राज्य एवं अन्य (2023): जिसमें न्यायालय ने NHRC के दिशा-निर्देशों को दोहराया था तथा यह भी कहा था कि अगर पुलिस अधिकारी एनकाउंटर में शामिल हैं तो उनके विरुद्ध FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
  • देवेंद्र सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2016): यह देखा गया कि अपराध करना आधिकारिक कर्त्तव्य का हिस्सा नहीं है। इसलिये, स्वीकृति का प्रश्न प्रारंभिक चरण में प्रासंगिक नहीं हो सकता है, लेकिन परीक्षण के दौरान किसी भी चरण में प्रासंगिक हो सकता है।
  • बख्शीश सिंह बनाम गुरमेज कौर (1988): माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह निर्धारित करने के लिये कि क्या पुलिस अधिकारी ने अपने आधिकारिक कर्त्तव्य में कार्य करते हुए अपनी आधिकारिक क्षमता की सीमाओं का उल्लंघन किया है या नहीं, अपराध का संज्ञान लिया जाना चाहिये तथा इन परिस्थितियों में, आरोपी अधिकारी के अभियोजन के लिये स्वीकृति के अभाव में अभियोजन को रोका नहीं जाएगा।