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सांविधानिक विधि

आधारभूत संरचना का सिद्धांत

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 31-May-2024

परिचय:

संविधान में आधारभूत संरचना के सिद्धांत का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।

  • यह सिद्धांत एक न्यायिक नवाचार है और इसे उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में आकार दिया था।
  • यह अवधारणा न्यायपालिका द्वारा उन संविधान संशोधनों से निपटने के लिये प्रस्तुत की गई थी, जो संविधान की संरचना को क्षीण कर रहे थे।
  • इस सिद्धांत ने शासन की तीन शाखाओं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका- के मध्य शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा विकसित की।

आधारभूत संरचना के सिद्धांत की अवधारणा क्या है?

  • आधारभूत संरचना का सिद्धांत कहता है कि यदि संसद कोई ऐसा विधान पारित करती है जो संविधान की आधारभूत संरचना को नष्ट करता है, तो उस विधान को उस सीमा तक अवैध घोषित कर दिया जाएगा जहाँ तक ​​वह आधारभूत संरचना का उल्लंघन करता है।
  • इस सिद्धांत को विकसित करते समय उच्चतम न्यायालय का मुख्य लक्ष्य देश के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में अपने अधिकारों को बनाए रखना तथा शासन की तीन शाखाओं– विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य शक्ति संतुलन बनाए रखना था।

आधारभूत संरचना सिद्धांत का विकास कैसे हुआ?

  • शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति में मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति भी शामिल है।
    • उच्चतम न्यायालय अपना निर्णय इस तर्क पर दिया कि अनुच्छेद 13 में उल्लिखित 'विधि' शब्द में केवल सामान्य विधियाँ शामिल हैं, संविधान संशोधन अधिनियम नहीं।
  • IC गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967):
    • उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय रद्द कर दिया।
    • मौलिक अधिकारों को पारलौकिक एवं अपरिवर्तनीय स्थान दिया गया है, अतः संसद इनमें से किसी भी अधिकार को कम अथवा छीन नहीं सकती है।
    • इसने कहा कि संविधान संशोधन अधिनियम भी अनुच्छेद 13 के अधीन एक विधि है।
    • संसद ने इस निर्णय पर प्रतिक्रियास्वरूप 24वाँ संशोधन अधिनियम पारित किया, जिसमें अनुच्छेद 368 में एक प्रावधान जोड़ा गया, जिसके अनुसार संसद को किसी भी मौलिक अधिकार को छीनने का अधिकार है।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
    • आधारभूत संरचना सिद्धांत की उत्पत्ति वर्ष 1973 में केशवानंद भारती के ऐतिहासिक मामले से हुई थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने 7:6 के अत्यंत अल्प बहुमत से यह माना कि संसद की संशोधन करने की शक्ति पर सीमाएँ अंतर्निहित हैं।
    • मुख्य न्यायाधीश एस. एम. सीकरी ने निर्णय देते हुए यह विचार प्रतिपादित किया कि यद्यपि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, परंतु वह इसकी आधारभूत संरचना में परिवर्तन नहीं कर सकती
  • 42 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976:
    • संशोधित अनुच्छेद 368- संसद की संवैधानिक शक्ति की कोई सीमा नहीं है।
    • किसी भी संशोधन के आधार पर किसी भी न्यायालय में प्रश्न नहीं किया जा सकता।
  • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि संविधान की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
      • संविधान में संशोधन करने की संसद की सीमित शक्ति
      • मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के मध्य सामंजस्य और संतुलन;
      • कुछ मामलों में मौलिक अधिकार;
      • कुछ मामलों में न्यायिक समीक्षा की शक्ति।
  • बाद के मामलों में सिद्धांत की पुष्टि:
    • आधारभूत संरचना सिद्धांत को बाद के कई मामलों में पुष्ट एवं स्पष्ट किया गया है, जिससे संवैधानिक सिद्धांत के रूप में इसकी स्थिति मज़बूत हुई है।
    • इनमें से उल्लेखनीय मामले हैं- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) और वामन राव बनाम भारत संघ (1980)।

मूल संरचना के घटक क्या हैं?

आधारभूत संरचना सिद्धांत कुछ विशेषताओं को भारतीय संविधान के आधारभूत स्तंभों के रूप में मानता है, जिन्हें संशोधन की पहुँच से परे माना गया है। ये घटक लोकतंत्र, न्याय एवं समानता के सार को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

  • संविधान की सर्वोच्चता:
    • संविधान की सर्वोच्चता, आधारभूत संरचना सिद्धांत का एक प्रमुख सिद्धांत है।
    • कोई भी संशोधन जो इस सर्वोच्चता को क्षीण अथवा क्षीण करने का प्रयास करता है, तो इसे आधारभूत संरचना का उल्लंघन माना जाता है।
    • केशवानंद भारती मामले में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि संविधान देश की सर्वोच्च विधि है तथा कोई भी संशोधन इसकी आधारभूत संरचना को परिवर्तित नहीं सकता।
  • गणतांत्रिक एवं लोकतांत्रिक शासन प्रणाली:
    • आधारभूत संरचना में शासन का गणतांत्रिक एवं लोकतांत्रिक स्वरूप सम्मिलित है, जो यह सुनिश्चित करता है कि राज्य के कामकाज में लोगों की इच्छा प्रतिबिंबित हो।
    • इस अवधारणा पर इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) मामले में चर्चा की गई थी।
  • पंथनिरपेक्षता:
    • पंथनिरपेक्षता मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है, जो धर्म के मामलों में राज्य की निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।
    • न्यायपालिका ने यह माना है कि धर्मशासित राज्य की स्थापना करने अथवा पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को हानि पहुँचाने वाला कोई भी संशोधन असंवैधानिक होगा।
    • न्यायालय ने एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में इस अवधारणा पर गौर किया था।
  • संघीय ढाँचा:
    • केंद्र एवं राज्यों के मध्य शक्ति संतुलन करने वाले संविधान के संघीय ढाँचे को एक आधारभूत विशेषता माना जाता है।
    • इस संतुलन को बाधित करने का कोई भी प्रयास आधारभूत ढाँचे पर आक्रमण माना जाएगा।
  • शक्तियों का पृथक्करण:
    • आधारभूत संरचना में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य शक्तियों का पृथक्करण शामिल है।
    • जो संशोधन इस संतुलन का उल्लंघन करते हैं तथा शक्तियों को एक ही शाखा में अत्यधिक केंद्रित करते हैं, वे न्यायिक जाँच के दायरे में आ सकते हैं।
  • न्यायिक समीक्षा:
    • न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान का एक अंतर्निहित भाग हैं, जो न्यायपालिका को कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यों की समीक्षा करने की अनुमति देता है।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका:
    • एक स्वतंत्र न्यायपालिका सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं की शक्तियों पर नियंत्रण का काम करती है।
    • यह सुनिश्चित करती है कि ये शाखाएँ अपने संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण न करें तथा विधि के शासन के अनुरूप कार्य करें।
    • न्यायपालिका को अक्सर संविधान के संरक्षक के रूप में देखा जाता है। इसकी भूमिका में संविधान की व्याख्या करना, संवैधानिक विवादों को सुलझाना एवं यह सुनिश्चित करना सम्मिलित है कि शासन की कार्यवाहियाँ संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
    • SC एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 (NJAC) की संवैधानिकता को रद्द कर दिया।

निष्कर्ष:

आधारभूत संरचना सिद्धांत, लचीलेपन एवं कठोरता के मध्य एक उचित संतुलन बनाता है, जो किसी भी संविधान में संशोधन करने की शक्ति में उपस्थित होना चाहिये। आज, इस सिद्धांत के अस्तित्त्व पर कोई असहमति नहीं है। एकमात्र मुद्दा जो बार-बार उठता है वह है सिद्धांत की विशिष्टता या विषय-वस्तु। सिद्धांत के कुछ तत्त्वों की न्यायालयों द्वारा बारंबार पुष्टि की गई है, जबकि कुछ आयामों पर अभी भी विचार-विमर्श और चर्चा चल रही है।