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सांविधानिक विधि

तत्त्व एवं सार का सिद्धांत

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 04-Jun-2024

परिचय:

संवैधानिक विधि में मूलभूत विधिक सिद्धांत, तत्त्व एवं सार का सिद्धांत, विधि की वास्तविक प्रकृति और दायरे को समझने के लिये एक मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करता है, विशेषतः जब यह संघीय प्रणालियों के भीतर अधिकार-क्षेत्र के कई क्षेत्रों को जोड़ता है। यह न्यायालयों को विधानों के शाब्दिक अर्थों से परे, उनके अंतर्निहित उद्देश्य अथवा प्रमुख लक्ष्यों को प्रकट करने में सक्षम बनाता है।

  • यह सिद्धांत विशेष रूप से संघीय प्रणालियों जैसे कि कनाडा, भारत और ऑस्ट्रेलिया में प्रासंगिक है, जहाँ विधायी शक्तियाँ केंद्रीय एवं क्षेत्रीय शासनों के मध्य वितरित की जाती हैं। अपने अनुप्रयोग के माध्यम से, सार और तत्त्व का सिद्धांत विधायी प्राधिकार के सामंजस्यपूर्ण आवंटन को सुनिश्चित करता है तथा संवैधानिक व्यवस्थाओं की अखंडता एवं कार्यशीलता को बनाए रखता है। उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत को पहली बार बॉम्बे राज्य बनाम एफ.एन. बलसारा (1951) मामले में लागू किया और बरकरार रखा।

तत्त्व एवं सार के सिद्धांत की उत्पत्ति क्या है?

  • कनाडा में उत्पत्ति एवं विकास: तत्त्व एवं सार का सिद्धांत कनाडा के विधिक न्यायशास्त्र द्वारा उत्पन्न और विकसित हुआ। प्रारंभ में इसका उपयोग, विशेष रूप से विधान बनाने के लिये उचित अधिकार क्षेत्र की संवैधानिक व्याख्या के लिये किया गया था।
  • संवैधानिक व्याख्या में अनुप्रयोग: कनाडा के विधिक ढाँचे के भीतर इस सिद्धांत का उपयोग, यह जानने के लिये किया गया था कि कोई विधान अपने मूल उद्देश्य या सार के आधार पर संघीय अथवा प्रांतीय क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है या नहीं।
  • महत्त्वपूर्ण मामला: कुशिंग बनाम डुप्यू: इस मामले ने कनाडाई विधिक प्रणाली के भीतर तत्त्व एवं सार सिद्धांत की आधारभूत स्थापना को चिह्नित किया। इस मामले ने विधायी प्राधिकार की सीमाओं को स्पष्ट करते हुए सहायक या आकस्मिक अतिक्रमण के सिद्धांत के लिये आधार तैयार किया।
  • भारतीय न्यायशास्त्र में विस्तार: कनाडा में इसकी उत्पत्ति एवं परिशोधन के उपरांत, तत्त्व और सार के सिद्धांत को भारत में भी अपनाया गया। यह सिद्धांत भारतीय विधिक प्रणाली के भीतर विभिन्न महत्त्वपूर्ण संवैधानिक निर्णयों में आधारशिला बना, जिसमें विधानों की वैधता एवं अधिकार क्षेत्र निर्धारित करने के लिये इस सिद्धांत को लागू किया गया।
  • संविधान के प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद 246 एवं सातवीं अनुसूची के अंतर्गत यह सिद्धांत विधिक विवादों को सुलझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि विधायी शक्तियों में कथित अतिव्यापन अथवा अस्पष्टता के मामले में शासन के किस स्तर के पास विधान बनाने का अधिकार है।

तत्त्व एवं सार के सिद्धांत का अनुप्रयोग क्या है?

  • तत्त्व एवं सार के सिद्धांत का अनुप्रयोग विधायी शक्तियों के उचित आवंटन को सुगम बनाता है, क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों को सुलझाता है तथा संघीय प्रणालियों के भीतर संवैधानिक व्यवस्थाओं की सुसंगतता को बनाए रखता है।
    • विधायी क्षमता का निर्धारण: इस सिद्धांत का उपयोग यह पता लगाने के लिये किया जाता है कि शासन के किस स्तर- संघीय, प्रांतीय या स्थानीय- को किस विशेष विधान को लागू करने का अधिकार है, जबकि वह विधान कई अधिकार क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले विषयों को समाहित करता  है।
    • विधायी उद्देश्य की जाँच करना: न्यायालय, विधान के शाब्दिक अर्थों से परे जाकर उसके अंतर्निहित उद्देश्य या प्रमुख उद्देश्य का विश्लेषण करने के लिये इस सिद्धांत का उपयोग करते हैं। इसमें शक्तियों के संवैधानिक वितरण के साथ इसकी अनुकूलता निर्धारित करने के लिये विधान की वास्तविक प्रकृति एवं उद्देश्य का आकलन करना शामिल है।
    • क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों का समाधान: कनाडा, भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसी संघीय प्रणालियों में, जहाँ विधायी शक्तियाँ केंद्रीय एवं क्षेत्रीय शासनों के मध्य विभाजित होती हैं, विधियों की वैधता और दायरे को लेकर विवाद उत्पन्न हो सकते हैं। यह सिद्धांत विधानों के सार या मुख्य उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करके ऐसे विवादों को हल करने में मदद करता है।
    • संवैधानिक अखंडता बनाना: यह सिद्धांत विधियों की व्याख्या उनकी आकस्मिक विशेषताओं के बजाय उनके आवश्यक चरित्र के आधार पर करता है, जिससे संवैधानिक ढाँचे की अखंडता को बनी रहती है तथा शासन प्रणालियों के प्रभावी कामकाज में वृद्धि होती है।

सिद्धांत की संवैधानिक वैधता क्या है?

  • भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 246 संघ एवं राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों का परिसीमन करता है, जैसा कि सातवीं अनुसूची में उल्लिखित है।
  • संविधान की सातवीं अनुसूची केंद्र तथा राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण को चित्रित करती है, जिसमें तीन सूचियाँ शामिल हैं: संघ सूची (सूची I), राज्य सूची (सूची II) और समवर्ती सूची (सूची III)।
  • जब कोई विधान सातवीं अनुसूची में उल्लिखित तीन सूचियों में से किसी एक के दायरे में आता है, तो न्यायालय तत्त्व एवं सार के सिद्धांत का आह्वान करती हैं।
  • "तत्त्व एवं सार" के सिद्धांत का प्रयोग तब किया जाता है जब केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी प्राधिकार के संबंध में कोई संघर्ष या अस्पष्टता होती है। यह विधान की वास्तविक प्रकृति एवं चरित्र को निर्धारित करने में सहायता करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि शासन का प्रत्येक स्तर दूसरे के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण किये बिना अपने निर्दिष्ट क्षेत्राधिकार का पालन करे।
  • ऐसे मामलों में, न्यायालय विधान की संवैधानिक वैधता निर्धारित करने के लिये उसके सार या प्रमुख उद्देश्य की जाँच करते हैं।

तत्त्व एवं सार के सिद्धांत से संबंधित प्रासंगिक मामले क्या हैं?

  • प्रफुल्ल बनाम बैंक ऑफ कॉमर्स (1946):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धन उधार देने (राज्य का विषय) से संबंधित राज्य विधान, केवल इसलिये अवैध नहीं है क्योंकि यह संयोगवश वचन-पत्रों को प्रभावित करता है।
  • बॉम्बे राज्य बनाम एफ.एन. बलसारा (1951):
    • भारतीय न्यायशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण मामला जहाँ उच्चतम न्यायालय ने निषेध से संबंधित बॉम्बे राज्य विधान की वैधता निर्धारित करने के लिये तत्त्व एवं सार के सिद्धांत को लागू किया।
    • न्यायालय ने कहा कि व्यापार एवं वाणिज्य पर पड़ने वाले आकस्मिक प्रभावों के बावजूद यह विधान राज्य के अधिकार क्षेत्र में आता है।
  • भारत संघ एवं अन्य बनाम शाह गोवर्धन एल. काबरा टीचर्स (2002):
    • उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद अधिनियम, 1993 (NCTE) की धारा 17(4) के वास्तविक चरित्र को निर्धारित करने के लिये तत्त्व एवं सार के सिद्धांत को लागू किया।
    • इसने माना कि रोज़गार पर इसके आकस्मिक प्रभाव के बावजूद, यह प्रावधान प्रविष्टि 66, सूची I के अंतर्गत उच्च शिक्षा के समन्वय एवं मानकों पर संघ की विधायी क्षमता के अंतर्गत आता है।
  • एसोसिएशन ऑफ नेचुरल गैस बनाम भारत संघ (2004):
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किसी विशेष विषय पर विधायी शक्ति का दायरा निर्धारित करते समय, उस शक्ति के व्यावहारिक अनुप्रयोग पर विचार करना महत्त्वपूर्ण है।
    • न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि तत्त्व एवं सार के सिद्धांत का उपयोग अक्सर विधान के सार और विषय-वस्तु को समझने के लिये किया जाता है।
    • तथापि, केंद्रीय और राज्य विधान के बीच समाधान न हो सकने वाले टकराव के मामलों में, केंद्रीय विधान को प्राथमिकता दी जाती है तथा टकराव को सुलझाने का प्रयास किया जाता है।