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सांविधानिक विधि

अधित्यजन का सिद्धांत

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 18-Jan-2024

परिचय:

अधित्यजन का सिद्धांत, जैसा कि ब्लैक लॉ डिक्शनरी द्वारा परिभाषित किया गया है, किसी ज्ञात अधिकार का जानबूझकर या स्वैच्छिक त्यजन है।

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 'अधित्यजन का सिद्धांत' प्रदान करता है।
  • अधित्यजन तब होता है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर और पूर्ण ज्ञान के साथ, प्रयोग करने का अपना अधिकार त्याग देता है या उस अधिकार का प्रयोग नहीं करने का विकल्प चुनता है जो अन्यथा उस व्यक्ति के पास होता।
  • किसी अधिकार को त्यागने का मतलब है कि कोई व्यक्ति अब उस अधिकार का दावा नहीं कर सकता है और उस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने से वंचित हो जाता है जिसके लाभ के लिये अधिकार का त्यजन कर दिया गया है।
  • किसी व्यक्ति के पास कुछ विधिक अधिकार होते हैं जो उसे संविधान, कानून या अनुबंध द्वारा प्रदान किये जाते हैं।
  • अधिकार को एक हित या दावे के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो व्यक्ति को दूसरों के कार्य को नियंत्रित करने की शक्ति देता है, अर्थात्, किसी को कोई कार्य करने के लिये मजबूर करना या उसे करने से रोकना।
  • एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या इन अधिकारों का त्याग किया जा सकता है?

अधित्यजन का सिद्धांत:

  • इसका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी अधिकार या विशेषाधिकार का हकदार है, वह ऐसे विशेषाधिकार को त्याग सकता है, अगर वह अपनी इच्छा से ऐसा करता है। यह सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति किसी भी विधिक दायित्व के तहत अपने हित का सबसे बेहतर निर्णायक होता है और अपनी इच्छा से इस तरह के अधिकार त्यागते समय उसे परिणामों का पता होता है।
  • लेकिन अधित्यजन का सिद्धांत भारत के संविधान के तहत गारंटीकृत मूल अधिकारों पर लागू नहीं होता है। संविधान में मूल अधिकारों को व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए शामिल किया गया था, न कि केवल व्यक्तिगत लाभ के लिये। इस प्रकार 'अधित्यजन के सिद्धांत' का उपयोग मूल अधिकारों को त्यागने के लिये नहीं किया जा सकता है।

इस सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ:

  • आशय: यह एक आवश्यक तत्त्व है क्योंकि किसी को भी ऐसे अधित्यजन का आशय रखना चाहिये। अधिकार का अधित्यजन व्यक्त या निहित हो सकता है। व्यक्त अधित्यजन लिखित रूप में या बयान देकर किया जाता है। निहित अधित्यजन का निर्णय किसी व्यक्ति के आचरण या कार्य के आधार पर किया जाता है।
  • जानकारी: यहाँ जानकारी का तात्पर्य यह है कि अधिकारों को त्यागने वाले व्यक्ति को ऐसे अधिकारों की प्रकृति एवं त्यागने के परिणामों के बारे में पता होना चाहिये। ऐसे में इन अधिकारों/विशेषाधिकारों की पूर्ण समझ के साथ इनके बारे में जानकारी होना आवश्यक है।
  • प्रासंगिकता: अधित्यजन का सिद्धांत अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और संवैधानिक अधिकारों पर इसका लागू न होना विधायिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। यदि यह सिद्धांत लागू होता तो राज्य द्वारा प्रदान किये गए कुछ लाभ के बदले में व्यक्तियों द्वारा अपने अधिकारों को त्यागने की संभावना हो सकती थी।

निर्णयज विधि:

  • ओल्गा टेलिस और अन्य बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985):
    • फुटपाथ पर रहने वालों ने MCD को शपथ पत्र दिया कि वे फुटपाथ व सड़कों पर झोपड़ियाँ बनाने के क्रम में किसी मूल अधिकार का दावा नहीं करेंगे और एक निश्चित तिथि के बाद झोपड़ियों के विध्वंस में बाधा नहीं डालेंगे। लेकिन बाद में जब निर्दिष्ट तिथि के बाद झोपड़ियों को ध्वस्त करने की मांग की गई, तो फुटपाथ पर रहने वालों ने दलील दी कि वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित हैं। नगर निगम ने तर्क दिया कि यह निवासी अपने पिछले क्रियाकलापों के मद्देनज़र ऐसी कोई याचिका नहीं कर सकते हैं।
    • उच्चतम न्यायालय ने नगर निगम की आपत्ति को खारिज़ करते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति द्वारा मूल अधिकारों का अधित्याग नहीं किया जा सकता है। संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती है।
  • बेहराम खुर्शीद पेसिकाका बनाम बॉम्बे राज्य (1954):
    • इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बहराम खुर्शीद पेसिकाका के मामले में बहुमत की राय यह थी कि मौलिक अधिकारों को केवल व्यक्तिगत लाभ के लिये संविधान में नहीं रखा गया था। इन अधिकारों को सार्वजनिक नीति के रूप में संविधान में जगह दी गयी थी और इसलिये मौलिक अधिकारों के मामले में अधित्यजन का सिद्धांत (Doctrine of Waiver) लागू नहीं किया जा सकता है।

निष्कर्ष:

  • अधित्यजन का सिद्धांत अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और संवैधानिक अधिकारों पर इसका लागू न होना विधायिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। यदि यह सिद्धांत लागू होता तो राज्य द्वारा प्रदान किये गए कुछ लाभ के बदले में व्यक्तियों द्वारा अपने अधिकारों को त्यागने की संभावना हो सकती थी।