होम / एडिटोरियल
सांविधानिक विधि
COI का अनुच्छेद 137
« »25-Jan-2024
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
परिचय:
24 जनवरी, 2024 को उच्चतम न्यायालय महाराष्ट्र सरकार द्वारा दायर उपचारात्मक याचिका पर विचार करेगा, जिसमें मराठा आरक्षण को रद्द करने के न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी गई है।
पृष्ठभूमि क्या है?
5 मई, 2021 को, उच्चतम न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने महाराष्ट्र राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग आरक्षण अधिनियम, 2018 को रद्द कर दिया था, जो शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में प्रवेश के लिये मराठा समुदाय को आरक्षण प्रदान करता था।
- राज्य सरकार द्वारा दायर एक पुनर्विलोकन याचिका भी 21 अप्रैल, 2023 को खारिज़ कर दी गई।
- इसके बाद, उपर्युक्त उपचारात्मक याचिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष दायर की गई है।
उपचारात्मक याचिका क्या है?
- उपचारात्मक याचिका की अवधारणा भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 137 में निहित है। यह उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णयों या आदेशों के पुनर्विलोकन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
- संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों या अनुच्छेद 145 के तहत बनाए गए किसी भी नियम के अधीन, उच्चतम न्यायालय को अपने द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय या दिये गए आदेश की समीक्षा करने की शक्ति होगी।
- उपचारात्मक याचिका वह है जो पुनर्विलोकन याचिका खारिज़ होने के बाद शीर्ष न्यायालय से अपने ही निर्णय के पुनर्विलोकन करने का अनुरोध करती है।
- इन याचिकाओं की सुनवाई भारत के मुख्य न्यायाधीश और पुनर्विलोकन याचिका को खारिज़ करने वाले न्यायाधीशों सहित उच्चतम न्यायालय के शीर्ष तीन न्यायाधीशों द्वारा की जाती है
- न्यायालय ऐसी याचिकाओं पर केवल दुर्लभ परिस्थितियों में ही विचार करती है ताकि निरर्थक मुकदमेबाज़ी को रोका जा सके।
- यह शिकायतों के निवारण के लिये उपलब्ध अंतिम विकल्प है, जिस पर आमतौर पर चैंबर में ही विचार किया जाता है, जब तक कि निर्णय पर पुनर्विचार के लिये प्रथम दृष्टया कोई मामला न बनता हो।
- उपचारात्मक याचिका की अवधारणा रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा एवं अन्य (2002) के मामले में उत्पन्न हुई।
- इस मामले में 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सामने प्रश्न यह था कि क्या कोई पीड़ित व्यक्ति पुनर्विलोकन याचिका खारिज़ होने के बाद उच्चतम न्यायालय के अंतिम निर्णय/आदेश के खिलाफ किसी अनुतोष का हकदार है।
- उच्चतम न्यायालय ने खारिज़ की गई पुनर्विलोकन याचिकाओं पर पुनर्विचार करने के लिये उपचारात्मक याचिका को अंतिम उपाय के रूप में मान्यता दी और यह अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपने निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है।
उपचारात्मक याचिका के उद्देश्य क्या हैं?
- उच्चतम न्यायालय के अंतिम निर्णय में न्याय के घोर दुरूपयोग को सुधारने के लिये उपचारात्मक याचिका की अवधारणा को मान्यता दी गई थी जिसे दोबारा चुनौती नहीं दी जा सकती।
- भारत संघ बनाम यूनियन कार्बाइड (2023) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उपचारात्मक क्षेत्राधिकार के दायरे को सीमित कर दिया और माना कि इस पर तब विचार किया जा सकता है जब न्याय के घोर दुरुपयोग, धोखाधड़ी या भौतिक तथ्यों का दमन हुआ हो।
- इसका उद्देश्य कानून की प्रक्रियाओं और न्याय के दुरुपयोग को रोकना है।
उपचारात्मक याचिका की क्या शर्तें हैं?
उपचारात्मक याचिकाओं पर विचार करने के उद्देश्य से, उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित विशिष्ट शर्तें रखी हैं:
- याचिकाकर्त्ता को यह सिद्ध करना होगा कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया है, और इस निर्णय से उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
- याचिका में विशेष रूप से बताया जाएगा कि उल्लिखित आधार पुनर्विलोकन याचिका में दर्शाए गए थे और इन्हें सर्कुलेशन द्वारा खारिज़ कर दिया गया था।
- एक उपचारात्मक याचिका को पहले उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों और यदि उपलब्ध हो तो संबंधित निर्णय पारित करने वाले न्यायाधीशों की पीठ को प्रसारित किया जाना चाहिये।
- यदि अधिकांश न्यायाधीश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मामले को सुनवाई की आवश्यकता है, तो उसकी उसी पीठ के समक्ष सुनवाई होती है।
- उपचारात्मक याचिका के किसी भी चरण में पीठ किसी वरिष्ठ अधिवक्ता को एमिकस क्यूरी (amicus curiae) (न्याय मित्र) के रूप में सहायता करने के लिये कह सकती है।
- उपचारात्मक याचिका होने पर आमतौर पर न्यायाधीशों द्वारा चैंबर में निर्णय लिया जाता है, जब तक कि खुले न्यायालय में सुनवाई के लिये किसी विशिष्ट अनुरोध की अनुमति नहीं दी जाती है।
- यदि याचिका महत्त्वहीन है, तो न्यायालय याचिकाकर्त्ता पर अनुकरणीय ज़ुर्माना लगा सकता है।
निष्कर्ष:
भारतीय कानूनी प्रणाली में, उपचारात्मक याचिका एक नवीन विचार और न्यायिक नवाचार है। यह सुनवाई का एक तरीका प्रदान करता है तथा न्यायालय में प्रतिनिधित्व का उचित अवसर देता है। यह पालन की जाने वाली प्रक्रिया या निर्णय सुनाने में उत्पन्न होने वाली किसी भी भ्रांति को रोकता है।