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सांविधानिक विधि
जातिगत जनगणना
« »12-Jul-2024
स्रोत: द हिंदू
परिचय:
जनगणना अधिनियम, 1948, भारत में राष्ट्रीय जनगणना आयोजित करने के लिये वैधानिक ढाँचा प्रदान करता है, वर्तमान में इस अधिनियम में जाति गणना हेतु स्पष्ट प्रावधानों का अभाव है। इस चूक के कारण असंगत डेटा संग्रह और जनगणना में जाति से संबंधित प्रश्नों को शामिल करने के विषय में चर्चा हुई है। इस मुद्दे को संबोधित करने एवं जनसांख्यिकीय डेटा संग्रह हेतु अधिक व्यापक और सुसंगत दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिये, यह प्रस्तावित है कि जनगणना अधिनियम में संशोधन किया जाए। प्रस्तावित संशोधन जनगणना प्रश्नावली के एक मानक घटक के रूप में जाति-संबंधी प्रश्नों को शामिल करने को अनिवार्य करेगा, जिससे व्यवस्थित जातिगत जनगणना के लिये एक विधिक आधार प्रदान किया जाएगा और इस मामले में कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्ति को कम किया जाएगा।
जातिगत जनगणना और जातिगत सर्वेक्षण क्या है?
- जातिगत जनगणना:
- परिभाषा: जनगणना, किसी देश में किसी विशिष्ट समय पर सभी व्यक्तियों के जनसांख्यिकीय, आर्थिक एवं सामाजिक डेटा को एकत्रित, संकलित, विश्लेषित एवं प्रसारित करने की एक व्यापक प्रक्रिया है।
- आवृत्ति: भारत में प्रत्येक 10 वर्ष में आयोजित किया जाता है।
- विस्तार: वर्ष 1951 से 2011 तक, स्वतंत्र भारत में प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आँकड़े शामिल किये गये हैं, परंतु अन्य जातियों के आँकड़े शामिल नहीं किये गए।
- ऐतिहासिक संदर्भ: वर्ष 1931 से पूर्व की जनगणना में सभी जातियों के आँकड़े शामिल थे।
- जातिगत जनगणना:
- परिभाषा: इसे सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) के नाम से भी जाना जाता है।
- प्रथम उदाहरण: वर्ष 2011 में स्वतंत्र भारत में आयोजित किया गया।
- जातिगत सर्वेक्षण:
- विधिक अधिकार क्षेत्र: केवल केंद्र सरकार को ही राष्ट्रीय जनगणना कराने का संवैधानिक अधिकार है।
- राज्य स्तरीय पहल: बिहार और ओडिशा जैसी कुछ राज्य सरकारों ने सामाजिक-आर्थिक जातिगत सर्वेक्षण कराए हैं।
- उद्देश्य: नीति-निर्माण के लिये विभिन्न जातियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का पता लगाना।
जातिगत जनगणना की आवश्यकता क्यों है?
- सामाजिक आवश्यकता:
- जाति भारत में एक प्रमुख सामाजिक पहचान बनी हुई है।
- विवाह प्रतिमानों एवं आवासीय विकल्पों को प्रभावित करती है।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रभावित करती है।
- जाति-आधारित असमानताओं को समझने और उनका समाधान करने के लिये व्यापक डेटा की आवश्यकता है।
- विधिक आवश्यकता:
- संवैधानिक सामाजिक न्याय नीतियों के लिये विस्तृत जातिगत डेटा की आवश्यकता होती है।
- विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण लागू करने के लिये आवश्यक।
- उच्चतम न्यायालय के निर्णय, पिछड़ेपन के निर्धारण में जाति को महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
- आरक्षण नीतियों को कार्यान्वित करने के लिये यह डेटा आवश्यक है।
- प्रशासनिक दक्षता:
- यह आरक्षण लाभों के गलत आवंटन को रोकने में मदद करता है।
- वास्तविक रूप से योग्य लाभार्थियों की पहचान करने में सहायता करता है।
- आरक्षित श्रेणियों के भीतर कुछ जातियों के वर्चस्व को रोकता है।
- क्रीमी लेयर जैसे मानदंड निर्धारित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- संसाधनों के न्यायसंगत वितरण को सक्षम बनाता है।
- नैतिक दायित्व:
- विस्तृत डेटा का अभाव मौजूदा असमानताओं को कायम रखता है।
- प्रमुख समूहों को अनुपातहीन रूप से लाभ उठाने से रोकता है।
- राष्ट्रीय संसाधनों एवं अवसरों तक उचित पहुँच सुनिश्चित करता है।
- संसाधन आवंटन में पारदर्शिता को बढ़ावा देता है।
- सभी सामाजिक समूहों के लिये समान अवसर का समर्थन करता है।
- नीति निर्धारण:
- साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण के लिये तथ्यात्मक आधार प्रदान करता है।
- लक्षित कल्याण योजनाओं को विकसित करने में सहायता करता है।
- मौजूदा नीतियों के प्रभाव का आकलन करने में सक्षम बनाता है।
- सामाजिक प्रगति:
- समय के साथ जातिगत गतिशीलता में होने वाले परिवर्तनों की निगरानी करने की अनुमति देता है।
- सामाजिक न्याय उपायों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने में मदद करता है।
- सामाजिक गतिशीलता के विकास में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
जाति-आधारित सर्वेक्षणों की पृष्ठभूमि क्या है?
- स्वतंत्रता-पूर्व युग:
- ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने वर्ष 1881 में जातिगत जनसंख्या गणना आरंभ की।
- यह प्रथा वर्ष 1931 की जनगणना तक जारी रही।
- स्वतंत्रता के बाद का दृष्टिकोण:
- स्वतंत्र भारत की सरकारों ने पूर्ण जाति गणना बंद कर दी।
- तर्क: चिंता है कि इससे जाति विभाजन मज़बूत हो सकता है और जाति व्यवस्था कायम रह सकती है।
- जाति व्यवस्था का कायम रहना:
- जातिगत जनगणना न होने के बावजूद, यह प्रणाली स्वतंत्र भारत में भी फलती-फूलती रही है।
- आधिकारिक सर्वेक्षण और आँकड़े, समाज में व्याप्त भेदभावपूर्ण तथा बहिष्कारकारी परिणामों को प्रकट करते हैं।
- मंडल आयोग रिपोर्ट (1980):
- बी.पी. मंडल की अध्यक्षता वाले पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा प्रस्तुत किया गया।
- मुख्य सिद्धांत: "समानता केवल समान लोगों के बीच होती है। असमान को समान मानना असमानता को बनाए रखने के समान है।"
- वर्ष 1931 की जनगणना के आँकड़ों का उपयोग करके अनुमान लगाया गया कि OBC जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 52% है।
- इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जाति को नागरिकों का एक वर्ग माना जा सकता है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 15(4) राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।
- मंडल आयोग ने तर्क दिया कि यदि कोई जाति समग्र रूप से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी है, तो वह अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत आरक्षण के लिये योग्य है।
जाति जनगणना के खिलाफ तर्क क्या हैं?
- "सामाजिक रूप से विभाजनकारी" तर्क को संबोधित करना:
- भारत में सामाजिक विभाजन जनगणना प्रयासों से सहस्राब्दियों पहले से मौजूद है।
- वर्ष 1951 से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जनगणना के कारण कोई संघर्ष नहीं हुआ है।
- अन्य संभावित विभाजनकारी कारकों (धर्म, भाषा, क्षेत्र) की गणना पहले ही हो चुकी हैं।
- जनगणना से जाति को हटा देने से जातिवाद समाप्त नहीं हो जाएगा, ठीक उसी तरह जैसे सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद की गणना करने के बावजूद वे समाप्त नहीं हुए हैं।
- "प्रशासनिक दुःस्वप्न" दावे का प्रतिवाद:
- ‘नस्ल’ जैसी अस्पष्ट अवधारणाओं के विपरीत जातिगत पहचान सामान्यतः स्पष्ट होती है।
- सरकार ने 1,234 अनुसूचित जाति जातियों और 698 अनुसूचित जनजाति जनजातियों की सफलतापूर्वक गणना की है।
- लगभग 4,000 अन्य जातियों की गणना करना, जिनमें से अधिकांश राज्य-विशिष्ट हैं, कोई बड़ी चुनौती नहीं होगी।
- आरक्षण की बढ़ती मांग की आशंकाओं का समाधान:
- सटीक जातिगत आँकड़े वास्तव में जाति समूहों की मनमानी मांगों पर अंकुश लगाने में सहायक हो सकते हैं।
- वस्तुनिष्ठ आँकड़े नीति निर्माताओं को आरक्षण दावों के बारे में सूचित निर्णय लेने में सक्षम बनाएंगे।
- चुनावी उद्देश्यों के लिये आरक्षण के कार्यान्वयन में लचीलापन बनाए रखने के लिये सरकारें अस्पष्ट आँकड़ों को प्राथमिकता दे सकती हैं।
- जातिगत जनगणना डेटा के लाभ:
- नीतिगत निर्णयों के लिये तथ्यात्मक आधार उपलब्ध होगा।
- इससे विभिन्न समूहों (जैसे- मराठा, पाटीदार, जाट) के दावों को अधिक वस्तुनिष्ठ ढंग से संबोधित करने में मदद मिल सकती है।
- इससे आरक्षण नीतियाँ अधिक पारदर्शी और डेटा-संचालित हो सकती हैं।
- यथास्थिति को चुनौती:
- वर्तमान दृष्टिकोण पुराने या अधूरे डेटा पर निर्भर करता है।
- वर्तमान जातिगत डेटा की कमी गलत धारणाओं और अप्रभावी नीतियों को बढ़ावा दे सकती है।
- जातिगत जनगणना भारत के सामाजिक परिदृश्य की स्पष्ट तस्वीर प्रदान कर सकती है।
- डेटा संग्रह में निरंतरता:
- यदि अन्य संभावित विभाजनकारी कारकों को भी शामिल किया जाए तो जाति को बाहर रखना असंगत प्रतीत होता है।
- व्यापक डेटा संग्रहण से अधिक समग्र नीति-निर्माण संभव हो सकता है।
भारत में जातिगत जनगणना के लिये क्या विधान हैं?
- भारत में ऐसा कोई विशिष्ट विधान नहीं है जो व्यापक जातिगत जनगणना को अनिवार्य या प्रतिबंधित करता हो, परंतु जातिगत गणना और डेटा संग्रहण से संबंधित कई प्रासंगिक विधान तथा संवैधानिक प्रावधान हैं।
- जनगणना अधिनियम, 1948:
- राष्ट्रीय जनगणना के संचालन के लिये विधिक ढाँचा प्रदान करता है।
- जातिगत जनगणना का विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है।
- सरकार को यह निर्णय लेने की अनुमति देता है कि कौन-सी सूचना एकत्र की जाए।
- भारत का संविधान:
- अनुच्छेद 15(4): राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने के लिये विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 16(4): पिछड़े वर्गों के लिये सार्वजनिक रोज़गार में आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 340: राष्ट्रपति को पिछड़े वर्गों की स्थिति की जाँच के लिये एक आयोग नियुक्त करने का अधिकार देता है।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) अधिनियम, 1976:
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सूची बनाने का प्रावधान करता है।
- अप्रत्यक्ष रूप से जाति संबंधी डेटा संग्रह के कुछ भाग की आवश्यकता होती है।
- राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम, 1993:
- OBC सूची में जाति समुदायों को शामिल करने के अनुरोधों की जाँच के लिये NCBC की स्थापना की गई।
- इसके लिये जाति-आधारित आँकड़ों की आवश्यकता है।
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005:
- यद्यपि इसका जातिगत जनगणना से कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी यह नागरिकों को सरकार के पास उपलब्ध सूचना का अनुरोध करने की अनुमति देता है।
- इसका उपयोग सरकारी संस्थानों से जाति-संबंधी आँकड़े प्राप्त करने के लिये किया गया है।
- सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC), 2011:
- यह किसी विशेष कानून द्वारा समर्थित नहीं है, बल्कि एक नीतिगत निर्णय के रूप में संचालित किया जाता है।
- इसका उद्देश्य जाति संबंधी जानकारी के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक डेटा एकत्र करना है।
जनगणना अधिनियम, 1948
सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना (SECC) की भूमिका क्या है?
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OBC को जनगणना में क्यों शामिल किया जाना चाहिये?
- संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान शिक्षा और सार्वजनिक रोज़गार में OBC के लिये आरक्षण की अनुमति देता है।
- मंडल आयोग की अनुशंसाओं के उपरांत OBC को केंद्र सरकार में आरक्षण मिला हुआ है।
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि OBC सूची को समय-समय पर संशोधित किया जाना चाहिये।
- स्थानीय निकाय चुनाव:
- संविधान में पंचायतों और नगर पालिकाओं में OBC आरक्षण का प्रावधान है।
- इस उद्देश्य के लिये OBC के जातिवार, क्षेत्रवार जनगणना डेटा आवश्यक है।
- न्यायिक मांगें:
- जातिगत आँकड़ों के अभाव के कारण न्यायालयों ने स्थानीय निकायों में OBC आरक्षण पर रोक लगा दी है।
- न्यायपालिका आरक्षण को बनाए रखने के लिये डेटा की मांग करती है, जबकि कार्यपालिका इसे एकत्र करने से बचती है।
- EWS आरक्षण के साथ सुसंगति:
- उपयुक्त डेटा के बिना उच्च जातियों के लिये 10% EWS आरक्षण को यथावत् रखा गया।
- जनगणना में अब उच्च जातियों सहित सभी जातियों की गणना होनी चाहिये।
निष्कर्ष:
जनगणना अधिनियम, 1948 में जाति गणना के लिये स्पष्ट प्रावधानों की अनुपस्थिति ने असंगत डेटा संग्रह और नीति कार्यान्वयन चुनौतियों को उत्पन्न किया है। जनगणना में जाति-संबंधी प्रश्नों को अनिवार्य बनाने के लिये अधिनियम में संशोधन करने से इस महत्त्वपूर्ण जनसांख्यिकीय कारक पर व्यवस्थित डेटा एकत्र करने के लिये एक दृढ़ विधिक आधार प्राप्त होगा। ऐसा संशोधन सामाजिक न्याय के संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप होगा, साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण का समर्थन करेगा और सटीक जाति डेटा के लिये न्यायिक मांगों को संबोधित करेगा। जनगणना के विधिक ढाँचे के भीतर जाति गणना को मानकीकृत कर, भारत सामाजिक कल्याण और प्रतिनिधित्व से संबंधित मामलों में अधिक न्यायसंगत शासन सुनिश्चित कर सकता है।