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सांविधानिक विधि
क्रीमी लेयर आरक्षण प्रणाली
« »30-Jul-2024
स्रोत: द हिंदू
परिचय:
हाल ही में OBC नॉन-क्रीमी लेयर के अंतर्गत बहुविकलांगताओं वाले अभ्यर्थियों को IAS में पद आवंटित किये जाने से OBC आरक्षण में क्रीमी लेयर अवधारणा के विषय में बहस छिड़ गई है। विवाद इस बात पर केंद्रित है कि क्या OBC के भीतर अपेक्षाकृत विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिये, विशेषतः तब जब उनके पास विकलांगता जैसे अतिरिक्त योग्यता कारक हों। इस मामले ने वर्तमान आरक्षण प्रणाली की प्रभावशीलता और निष्पक्षता, विशेष रूप से OBC के लिये क्रीमी लेयर बहिष्करण मानदंड के विषय में चर्चाओं को फिर से आरंभ कर दिया है।
वर्तमान आरक्षण प्रणाली के समक्ष प्रमुख मुद्दे और आलोचनाएँ क्या हैं?
- धोखाधड़ी से नॉन-क्रीमी लेयर (NCL) या आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के आरोप सामने आए हैं।
- केंद्रीय सरकार की नौकरियों में विकलांग व्यक्तियों के लिये 4% आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के लिये विकलांगता प्रमाण-पत्रों के संभावित दुरुपयोग के संबंध में भी इसी प्रकार की चिंताएँ हैं।
- कुछ आवेदकों और उनके माता-पिता पर आरोप है कि उन्होंने क्रीमी लेयर के बहिष्करण से बचने के लिये रणनीतियाँ अपनाईं, जैसे कि संपत्ति उपहार में देना या समय से पहले सेवानिवृत्ति ले लेना।
- वर्तमान प्रणाली में क्रीमी लेयर के बहिष्करण के लिये आवेदक या उसके पति/पत्नी की आय पर विचार नहीं किया जाता है, केवल माता-पिता द्वारा अर्जित आय को ही ध्यान में रखा जाता है।
- रोहिणी आयोग ने OBC समुदायों के बीच आरक्षण लाभों के महत्त्वपूर्ण संकेंद्रण पर प्रकाश डाला है, जहाँ केंद्रीय स्तर पर 97% आरक्षित नौकरियाँ और शैक्षणिक सीटें OBC की जातियों/उप-जातियों की मात्र 25% जनसंख्या को ही प्राप्त होती हैं।
- लगभग 2,600 OBC समुदायों (जातियों/उप-जातियों) में से लगभग 1,000 का नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में शून्य प्रतिनिधित्व है।
- इसी प्रकार की संकेंद्रण संबंधी समस्याएँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों में भी उपस्थित हैं, जिन्हें क्रीमी लेयर से बाहर नहीं रखा गया है।
- वर्तमान में EWS कोटा सहित कुल आरक्षण सीमा 60% है।
- संसद में प्रस्तुत सरकारी आँकड़ों के अनुसार, इस उच्च प्रतिशत के बावजूद, केंद्र सरकार में OBC, SC और ST के लिये आरक्षित 40-50% सीटें खाली रह जाती हैं।
- इस बात पर बहस चल रही है कि क्या सामाजिक वास्तविकताओं को देखते हुए वर्तमान आरक्षण प्रतिशत आवश्यक है।
- इस प्रणाली को सभी पिछड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व प्रभावी ढंग से न करने के कारण आलोचना का सामना करना पड़ता है।
- आरक्षण प्रणाली को अधिक न्यायसंगत और प्रभावी बनाने के लिये पुनर्मूल्यांकन और संभावित सुधारों की मांग की जा रही है।
समय के साथ भारत में आरक्षण की अवधारणा कैसे विकसित हुई है?
- भारत में आरक्षण की अवधारणा स्वतंत्रता से बहुत पहले से चली आ रही है, कुछ रियासतों ने पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण लागू किया था।
- वर्ष 1950 में अपनाए गए भारत के संविधान में समानता के सिद्धांत को प्रतिस्थापित किया गया तथा साथ ही वंचित समूहों के लिये विशेष प्रावधान भी किये गए।
- संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 सभी नागरिकों के लिये समानता सुनिश्चित करते हैं, परंतु सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों (SC) एवं अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये विशेष प्रावधान भी करते हैं।
- प्रारंभ में, केंद्र सरकार की नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अनुसूचित जातियों के लिये 15% तथा अनुसूचित जनजातियों के लिये 7.5% आरक्षण निर्धारित किया गया था।
- प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे काका कालेलकर आयोग के नाम से जाना जाता है, की स्थापना वर्ष 1953 में की गई थी परंतु इसकी अनुशंसाओं को लागू नहीं किया गया।
- बी.पी. मंडल के नेतृत्व में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन वर्ष 1979 में किया गया तथा इसने वर्ष 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- मंडल आयोग ने केंद्रीय सरकारी सेवाओं और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) के लिये 27% आरक्षण की अनुशंसा की थी।
- वर्ष 1990 में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू किया, जिसके कारण व्यापक विरोध और बहस हुई।
- उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में OBC आरक्षण की संवैधानिक वैधता को यथावत् बनाए रखा, परंतु कुल आरक्षण को 50% तक सीमित कर दिया तथा OBC के लिये "क्रीमी लेयर" की अवधारणा प्रस्तुत की।
- वर्ष 2005 में 93वें संविधान संशोधन द्वारा निजी संस्थानों सहित शैक्षणिक संस्थानों में OBC, SC और ST के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया।
- केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 में केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में OBC के लिये 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया।
- वर्ष 2019 में, 103वें संविधान संशोधन द्वारा अनारक्षित वर्ग में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (EWS) के लिये 10% आरक्षण का आरंभ किया गया।
- पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राज्यों ने अपनी-अपनी आरक्षण नीतियाँ लागू की हैं, जो प्रायः उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा से अधिक हैं।
क्रीमी लेयर अवधारणा क्या है और इसे कैसे परिभाषित और लागू किया जाता है?
परिभाषा और उद्देश्य:
- ‘क्रीमी लेयर’ अवधारणा एक सीमा निर्धारित करती है जिसके भीतर OBC आरक्षण लाभ लागू होते हैं।
- इसका उद्देश्य OBC समुदायों के अपेक्षाकृत समृद्ध या सुविधा संपन्न व्यक्तियों को आरक्षण के लाभ से वंचित करना है।
- यह अवधारणा उच्चतम न्यायालय द्वारा इंद्रा साहनी मामले (1992) में प्रस्तुत की गई थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आरक्षण का लाभ वास्तविकता में वंचितों तक पहुँच सके।
आय मानदण्ड:
- क्रीमी लेयर के लिये वर्तमान आय सीमा 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष है।
- यह आय सीमा वेतन एवं कृषि आय के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से प्राप्त आय पर लागू होती है।
- आय सीमा को हर तीन वर्षों में संशोधित किया जाना चाहिये, परंतु इसे अंतिम बार वर्ष 2017 में अद्यतन किया गया था।
अन्य मानदण्ड:
- सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिये क्रीमी लेयर का निर्धारण उनकी आय के बजाय उनके माता-पिता की पदस्थिति के आधार पर किया जाता है।
- संवैधानिक पदों पर आसीन माता-पिता, सीधी भर्ती वाले ग्रुप-A अधिकारी, या ग्रुप-B सेवाओं में कार्यरत कर्मचारियों (स्त्री/पुरुष) के बच्चे क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते हैं।
- उच्च पदस्थ सैन्य अधिकारियों (कर्नल और उससे ऊपर या समकक्ष) के बच्चों को भी क्रीमी लेयर का भाग माना जाता है।
प्रस्तावित परिवर्तन:
- सरकार इस आय सीमा को बढ़ाकर 12 लाख रुपए प्रतिवर्ष करने पर विचार कर रही है।
- एक संसदीय समिति ने इस आय सीमा को बढ़ाकर 15 लाख रुपए प्रतिवर्ष करने की अनुशंसा की है।
- आय सीमा की गणना में वेतन को शामिल करने तथा कृषि आय को इससे बाहर रखने का प्रस्ताव है।
आरक्षण प्रणाली में मुख्य मुद्दे और कमियाँ क्या हैं?
- धोखाधड़ी से नॉन-क्रीमी लेयर (NCL), आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS) और विकलांगता प्रमाण-पत्र प्राप्त करना।
- आरक्षण लाभ के लिये पात्रता की अपर्याप्त जाँच।
- क्रीमी लेयर के बहिष्करण से बचने के लिये रणनीतियाँ, जैसे संपत्ति उपहार में देना या माता-पिता द्वारा समय से पहले सेवानिवृत्ति लेना।
- क्रीमी लेयर निर्धारण में आवेदक या उसके पति/पत्नी की आय पर विचार न किया जाना।
- OBC जातियों/उप-जातियों के एक छोटे प्रतिशत के बीच लाभों का संकेंद्रण होना।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिये क्रीमी लेयर अवधारणा का अभाव।
- उच्च आरक्षण प्रतिशत के बावजूद आरक्षित सीटों पर लगातार रिक्तियाँ बनी रहना।
- आरक्षित श्रेणियों में उप-वर्गीकरण का अभाव, जिसके कारण कुछ समुदायों का प्रतिनिधित्व कम हो रहा है।
- आरक्षित सीटों को प्राप्त करने के लिये विकलांगता प्रमाण-पत्रों का संभावित दुरुपयोग।
- वंचित समूहों में सबसे अधिक हाशिए पर पड़े लोगों तक लाभ पहुँचाने के लिये अपर्याप्त तंत्र।
- पिछड़े वर्गों और आय सीमा की सूची की नियमित समीक्षा तथा सूची अद्यतन करने का अभाव।
- एक परिवार की कई पीढ़ियों को आरक्षण का निरंतर लाभ मिलने से रोकने तथा उन पर निगरानी रखने के लिये एक व्यापक प्रणाली का अभाव।
आरक्षण के संबंध में न्यायिक दृष्टिकोण क्या है?
- मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन (1951) मामला आरक्षण के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय का पहला बड़ा मामला था। इस मामले के कारण संविधान में पहला संशोधन हुआ।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्य के अधीन रोज़गार के मामले में अनुच्छेद 16(4) पिछड़े वर्ग के नागरिकों के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करता है, जबकि अनुच्छेद 15 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
- मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसरण में, संसद ने खंड (4) जोड़कर अनुच्छेद 15 में संशोधन किया।
- इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4) के दायरे और सीमा की जाँच की।
- न्यायालय ने कहा है कि OBC की क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभार्थियों की सूची से बाहर रखा जाना चाहिये, पदोन्नति में आरक्षण नहीं होना चाहिये तथा कुल आरक्षित कोटा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिये।
- संसद ने 77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995 पारित करके प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसमें अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा गया।
- यह अनुच्छेद राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में पदोन्नति में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के पक्ष में सीटें आरक्षित करने की शक्ति प्रदान करता है, यदि समुदायों का सार्वजनिक रोज़गार में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4A) की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से वैध होने के लिये किसी भी आरक्षण नीति को निम्नलिखित तीन संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करना होगा:
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों को सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना चाहिये।
- सार्वजनिक रोज़गार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- ऐसी आरक्षण नीति से प्रशासन की समग्र दक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले (2018) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि पदोन्नति में आरक्षण के लिये राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पिछड़ेपन पर मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि क्रीमी लेयर का बहिष्करण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तक प्रसारित है, अतः राज्य उन अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दे सकता जो अपने समुदाय के क्रीमी लेयर से संबंधित हैं।
- जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022) में 103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने 103वें संविधान संशोधन की वैधता को यथावत् रखा।
- न्यायालय ने अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करके 103वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2019 के अंतर्गत 10% EWS आरक्षण लागू किया।
- इसमें अनुच्छेद 15 (6) और अनुच्छेद 16 (6) सम्मिलित किये गये।
निष्कर्ष:
OBC क्रीमी लेयर आरक्षण को लेकर हाल ही में उठे विवाद ने आरक्षण प्रणाली के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को प्रकट किया है। जबकि आरक्षण का उद्देश्य वंचितों का उत्थान करना है, परंतु धोखाधड़ी से प्रमाण-पत्र प्राप्त करना, अप्रभावी आय सीमा और लाभों का असमान वितरण जैसे मुद्दे, सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। सामाजिक-आर्थिक स्थिति और यह लाभ सबसे अधिक हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुँच सके, इन दोनों पर स्थितियों पर विचार करते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण, आरक्षण प्रणाली की प्रभावशीलता एवं निष्पक्षता में वृद्धि कर सकता है।