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सांविधानिक विधि

निर्वाचन व्यवस्था में परिसीमन

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 19-Dec-2023

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला मतदान के मूल अधिकार में निहित है, लेकिन चुनावी प्रणाली में होने वाले निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन की जटिलताओं के क्रम में मात्रात्मक एवं गुणात्मक तनुकरण के कारण इस अधिकार की समग्रता को दोहरे खतरों का सामना करना पड़ सकता है।

मात्रात्मक तनुकरण तब होता है जब निर्वाचन क्षेत्रों के बीच पर्याप्त जनसंख्या विचलन से व्यक्तिगत मतों की संख्या विकृत हो जाती है। इस बीच, जब गेरीमैंडरिंग निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं में हेरफेर करता है, तो गुणात्मक तनुकरण सामने आता है, जिससे मतदाता की अपनी पसंद के प्रतिनिधि का चुनाव करने की क्षमता कम हो जाती है। नतीजतन, निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया एक प्रमुख कारक के रूप में उभरती है जो या तो लोकतंत्र की नींव को मज़बूत करती है या कमज़ोर करती है।

सरकार ने जनसंख्या कारक के आधार पर वोट का अंतर सुनिश्चित करने के लिये निर्वाचन क्षेत्रों के लिये परिसीमन आयोग का भी गठन किया।

मतदान अधिकारों की समान सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये संविधान में प्रमुख अनुच्छेद क्या हैं?

  • अनुच्छेद 80:
    • यह लेख राज्यसभा की संरचना से संबंधित है, जो भारतीय संसद में राज्यों की परिषद है।
    • यह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को राज्यसभा में सीटों के आवंटन से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 170:
    • यह अनुच्छेद राज्यों में विधान सभाओं की संरचना से संबंधित है।
    • इसमें विधानसभा में सीटों की संख्या, विभिन्न क्षेत्रों के लिये सीटों के आवंटन और अन्य संबंधित मामलों की रूपरेखा दी गई है।
  • अनुच्छेद 327:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 327 संसद और राज्यों के विधानमंडलों के चुनावों के संचालन के संबंध में कानून बनाने की संसद की शक्ति से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 330:
    • अनुच्छेद 330 भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा में अनुसूचित जाति (SCs) और अनुसूचित जनजाति (STs) के प्रतिनिधित्व से संबंधित है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि इन समुदायों को लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले।
  • अनुच्छेद 332:
    • अनुच्छेद 330 के समान, अनुच्छेद 332 अनुसूचित जाति (SCs) और अनुसूचित जनजाति (STs) के प्रतिनिधित्व से संबंधित है, लेकिन राज्यों की विधान सभाओं में।
    • यह राज्य विधानसभाओं में इन समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है।

सरकार द्वारा गठित परिसीमन आयोगों का योगदान क्या था?

  • प्रथम परिसीमन आयोग (1952):
    • वर्ष 1956 में पहले परिसीमन आदेश में 86 निर्वाचन क्षेत्रों को दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में पहचाना गया।
    • दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र (उन्मूलन) अधिनियम, 1961 ने दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों को समाप्त कर दिया।
  • दूसरा परिसीमन आयोग (1962):
    • वर्ष 1967 में दूसरे परिसीमन आदेश के तहत लोकसभा सीटों की संख्या 494 से बढ़ाकर 522 और राज्य विधानसभा सीटों की संख्या 3,102 से बढ़ाकर 3,563 कर दी गई।
  • तीसरा परिसीमन आयोग (1972):
    • वर्ष 1976 के तीसरे परिसीमन आदेश ने लोकसभा और राज्य विधानसभा क्षेत्रों की संख्या क्रमशः 543 व 3,997 तक बढ़ा दी।
    • वर्ष 1976 में 42वें संशोधन अधिनियम ने परिसीमन के लिये 1971 की जनगणना के जनसंख्या आँकड़े को 2001 की जनगणना के बाद तक के लिये रोक दिया।
  • चौथा परिसीमन आयोग (2002):
    • परिसीमन अधिनियम, 2002 परिसीमन आयोग को सीटों की संख्या बढ़ाने की शक्ति नहीं देता था।
    • इस आयोग को समता सिद्धांत में 10% तक बदलाव की अनुमति दी गई थी।
    • चौथा परिसीमन आयोग आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से आवंटित करने में सक्षम था, जिससे जनसंख्या में वृद्धि के आधार पर SC के लिये सीटों की संख्या 79 से बढ़कर 84 और ST के लिये 41 से बढ़कर 47 हो गई।
    • सीटों की संख्या में परिवर्तन पर रोक को वर्ष 2001 की जनगणना के बाद हटा दिया जाना था, लेकिन एक अन्य संशोधन द्वारा इसे वर्ष 2026 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।

एक और परिसीमन की आवश्यकता क्यों है?

  • कुछ भारतीय राज्यों जैसे राजस्थान, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड और गुजरात में जनसंख्या 1971 से 2011 तक बहुत अधिक (125% से अधिक) बढ़ी है।
  • दूसरी ओर, केरल, तमिलनाडु, गोवा और ओडिशा जैसे राज्यों ने सख्त उपायों के माध्यम से अपनी जनसंख्या वृद्धि (100% से कम) को नियंत्रित किया है।
  • जनसंख्या वृद्धि में इस अंतर के कारण विभिन्न राज्यों में वोटों के मूल्य में बड़ा असंतुलन सामने आया है।
  • उदाहरण के लिये, उत्तरप्रदेश में एक संसद सदस्य (सांसद) लगभग 2.53 मिलियन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिलनाडु में, एक सांसद लगभग 1.84 मिलियन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
  • इससे वोटों के मूल्य में मात्रात्मक कमी आती है।

आगे की राह

  • परिसीमन की आसन्न आवश्यकता जनसंख्या-प्रतिनिधित्व अनुपात में और विचलन को रोकने के लिये त्वरित कार्रवाई की मांग करती है।
  • दक्षिणी राज्यों के संसदीय प्रतिनिधित्व को कमज़ोर होने से बचाने के लिये उनके हितों की सुरक्षा को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
  • आगामी परिसीमन आयोग न केवल मत मूल्य के मात्रात्मक तनुकरण में सुधार करेगा, बल्कि प्रत्येक राज्य के अल्पसंख्यकों के लिये पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये गुणात्मक तनुकरण से भी निपटेगा।