किशोर न्याय प्रणाली
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किशोर न्याय प्रणाली

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 18-Jul-2024

स्रोत: द हिंदू 

परिचय:

पुणे में एक दुखद घटना में कथित तौर पर एक किशोर द्वारा चलाई जा रही तेज़ रफ्तार कार से दो युवाओं की मृत्यु हो गई, जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया और किशोर न्याय के विषय में वाद-प्रतिवाद शुरू हो गया। यह मामला किशोर न्याय अधिनियम के पुनर्वास दृष्टिकोण और अप्राप्तवयों द्वारा किये गए गंभीर अपराधों में उत्तरदायित्व की मांगों के बीच तनाव को प्रकट करता है। यह घटना गंभीर अपराधों से निपटने में किशोर न्याय प्रणाली की प्रभावशीलता और युवा अपराधियों के लिये पुनर्वास एवं दण्ड के बीच उचित संतुलन के विषय में प्रश्न उठाती है।

2021 के संशोधन से अपराध वर्गीकरण में क्या परिवर्तन आए?

  • किशोर न्याय अधिनियम 16 ​​वर्ष से अधिक आयु के किशोरों पर "जघन्य" अपराधों (न्यूनतम 7 या अधिक वर्ष के कारावास का दण्ड) के लिये वयस्कों की भाँति वाद चलाने की अनुमति देता है, परंतु आपराधिक मानव वध या लापरवाही से मृत्यु जैसे कम गंभीर अपराधों के लिये यह अनुमति नहीं देता है।
  • यह अधिनियम दण्ड की अपेक्षा पुनर्वास पर अधिक ज़ोर देता है तथा किशोरावस्था को एक विकासात्मक अवस्था मानता है जिसमें निर्णय लेने की क्षमता अपरिपक्व होती है।
  • इस दृष्टिकोण को उच्चतम न्यायालय और अंतर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा समर्थन प्राप्त है, जो उच्च न्यूरोप्लास्टिसिटी के कारण किशोरों के बौद्धिक परिवर्तन की क्षमता को स्वीकार करते हैं।
  • इस प्रक्रिया में किशोर न्याय बोर्ड और संभवतः सत्र न्यायालय द्वारा सावधानीपूर्वक मूल्यांकन शामिल है, जिसके उपरांत किसी किशोर पर वयस्क के रूप में वाद चलाया जा सकता है।

किशोर न्याय प्रणाली दण्ड की तुलना में पुनर्वास को कैसे प्राथमिकता देती है?

  • यह प्रणाली किशोर अपराधियों के लिये दण्ड की अपेक्षा पुनर्वास को प्राथमिकता देती है।
  • पीड़ित प्रभाव पैनल जैसे नये दृष्टिकोण का उद्देश्य अपराधियों द्वारा किये गए कृत्यों के प्रति उनकी समझ को बढ़ाना है।
  • पुनर्वास प्रक्रिया में परिवार और समुदाय शामिल होते हैं।
  • अच्छे इरादों के बावजूद यह प्रणाली, प्रभावी कार्यान्वयन के लिये संघर्ष कर रही है।
  • कुछ किशोरों पर वयस्कों की भाँति वाद चलाने का प्रस्ताव मूल समस्याओं को संबोधित करने के बजाय प्रणालीगत विफलता को प्रकट कर सकता है।

भारत में किशोर न्याय प्रणाली: 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में निहित।
  • 1960 का बाल अधिनियम: किशोरों को कारावास से बाहर रखा गया, कल्याण और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • किशोर न्याय अधिनियम 2000: संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों के अनुरूप, पुनर्वास पर ज़ोर दिया गया।
  • 2015 संशोधन: अधिक उम्र के किशोरों द्वारा किये गए गंभीर अपराधों के लिये अधिक दण्डात्मक दृष्टिकोण की ओर परिवर्तन।

वर्तमान विधिक ढाँचा:

  • किशोर न्याय अधिनियम द्वारा शासित, अंतिम बार 2015 में संशोधित किया गया।
  • 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को किशोर माना गया है।
  • किशोर कल्याण बोर्ड और किशोर न्यायालयों की स्थापना की गई।
  • पुनर्वास के लिये विशेष गृह तथा संरक्षण के लिये आश्रय गृहों का निर्माण।
  • दण्ड की अपेक्षा पुनर्वास पर ज़ोर दिया गया।
  • मूल्यांकन के उपरांत, 16-18 वर्ष के किशोरों पर जघन्य अपराधों के लिये वयस्कों की भाँति वाद चलाने की अनुमति देता है।
  • इसमें दत्तक ग्रहण, पालन-पोषण, देखरेख और अधिकारों के संरक्षण के प्रावधान शामिल हैं।

परिचालन संबंधी आयाम और चुनौतियाँ

  • गोपनीय कार्यवाही के साथ किशोरों और वयस्कों के लिये अलग-अलग वाद।
  • पुलिस या परिवीक्षा अधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी, उसके बाद 24 घंटे के भीतर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना।
  • न्यायालय परिवीक्षा अधिकारी के मूल्यांकन, चिकित्सा रिपोर्ट और अन्य प्रासंगिक जानकारी पर निर्भर करता है।
  • निपटान विकल्पों में निर्वहन, अर्थदण्ड, चेतावनी, अभिरक्षा या संस्थागत प्रतिबद्धता शामिल हैं।
  • संस्थानों में शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ज़ोर।
  • दो-तिहाई दण्ड पूरा होने के उपरांत मामलों की समीक्षा, एवं "अनुज्ञा" पर संभावित रिहाई।
  • उपयुक्त आश्रय गृह के बिना किशोरों के लिये देखभाल सेवाएँ उपलब्ध हैं।
  • चुनौतियों में सीमित संसाधन, अपराधियों और गैर-अपराधियों का मिश्रण, निर्णय लेने में विशेषज्ञों की भागीदारी का अभाव शामिल है।
  • विधिक प्रक्रियाओं और अभिरक्षा के दौरान अधिकारों के संरक्षण के विषय में चिंताएँ।
  • संसाधनों की कमी और अपर्याप्त प्रशिक्षण के कारण अपर्याप्त देखरेख तथा पुनर्वास के संबंध में आलोचनाएँ।

 सतत् विकास एवं सुधार:

  • विधियों एवं नीतियों की निरंतर जाँच एवं संशोधन।
  • अंतर्राष्ट्रीय किशोर न्याय मानकों के अनुरूप प्रयास।
  • भारत में बालकों के समक्ष आने वाली आवश्यकताओं एवं चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करना।

किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की महत्त्वपूर्ण धाराएँ क्या हैं?

  • धारा 2: इस धारा में परिभाषाएँ दी गई हैं, जिनमें "बालक", "विधि का उल्लंघन करने वाला बालक" तथा "देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाला बालक" की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ शामिल हैं।
  • धारा 4 और धारा 5: ये धाराएँ किशोर न्याय बोर्ड के गठन पर चर्चा करती हैं, जो विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों से निपटने के लिये सक्षम प्राधिकरण है।
  • धारा 14: यह धारा बाल कल्याण समिति के गठन का विवरण देती है, जो देखरेख एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों से संबंधित होती है।
  • धारा 15: यह एक महत्त्वपूर्ण धारा है जो इस बात के प्रारंभिक आकलन पर चर्चा करती है कि क्या किसी जघन्य अपराध में शामिल 16 से 18 वर्ष की आयु के किशोर के साथ एक बालक के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिये या एक वयस्क के रूप में वाद चलाया जाना चाहिये।
  • धारा 19: यह धारा देखरेख एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों के मामले में CWC की प्रक्रिया के विषय में बताती है।
  • धारा 21: बालकों की पहचान के प्रकटीकरण पर प्रतिबंध लगाती है, जिसका उद्देश्य उनकी गोपनीयता और प्रतिष्ठा की रक्षा करना है।
  • धारा 24 और धारा 25: किशोरों के पुनर्वास और आश्रय के लिये विशेष गृहों तथा अवलोकन गृहों की स्थापना से संबंधित हैं।
  • धारा 39: पुनर्वास और सामाजिक पुनः एकीकरण की प्रक्रिया का वर्णन करती है तथा इस बात पर बल देती है कि इसे बालक की व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर किया जाना चाहिये।
  • धारा 40: बाल देखरेख संस्थाओं के पंजीकरण तथा उनके संचालन के लिये अपेक्षित मानकों एवं उपायों के विषय में चर्चा करती है।
  • धारा 41: किसी बाल देखरेख संस्थान को किसी विशिष्ट उद्देश्य हेतु बालकों को रखने के लिये उपयुक्त घोषित करने के लिये मानदण्ड और प्रक्रिया का उल्लेख करती है।
  • धारा 53: दत्तक ग्रहण प्रक्रिया का प्रावधान करती है तथा यह अनिवार्य करती है कि न्यायालय द्वारा आदेश जारी करने के बाद ही दत्तक ग्रहण अंतिम माना जाएगा।
  • धारा 82 से 87: अधिनियम में बालकों के विरुद्ध अपराध और उन अपराधों के लिये दण्ड निर्धारित किये गए हैं, जिनमें बालकों के प्रति क्रूरता, भीख मांगने के लिये बालकों को काम पर रखना तथा आतंकवादी समूहों द्वारा बालकों का उपयोग करना शामिल है।

अन्य देशों में किशोर न्याय प्रणाली:

  • USA: किशोर न्याय प्रणाली, विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है, परंतु सामान्यतः दण्ड के स्थान पर पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करती है। इसके मुख्य घटकों में विशेष किशोर न्यायालय, परिवर्तन कार्यक्रम और किशोर रिकॉर्ड के लिये गोपनीयता सुरक्षा शामिल हैं।
  • स्कॉटलैंड: इस प्रणाली को मुख्य रूप से एक "रिपोर्टर" द्वारा संचालित किया जाता है जो यह तय करता है कि किसी बालक को अनिवार्य देखरेख की आवश्यकता है या नहीं। न्यायालय, बालकों की सुनवाई के स्थान पर 16 वर्ष से कम आयु के बालकों के उपचार एवं पर्यवेक्षण के विषय में निर्णय लेते हैं।
  • इंग्लैंड: वर्ष 1969 का बाल एवं युवा व्यक्ति अधिनियम, किशोर अपराधियों से यथासंभव न्यायालय के बाहर निपटने पर ज़ोर देता है। 14-17 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये "देखरेख" कार्यवाही, आपराधिक कार्यवाही का एक विकल्प है।
    • इंग्लैंड में, किशोरों को न्यायालय में लाया जा सकता है यदि वे उपेक्षा, नैतिक संकट या उचित शिक्षा की कमी से संबंधित विशिष्ट स्थितियों के अंतर्गत होते हैं। किशोरों को न्यायालय में भेजने से पूर्व पुलिस अक्सर गहन जाँच करती है।
    • इंग्लैंड कुछ विशेष परिस्थितियों में 12-17 वर्ष की आयु के बालकों के मामलों को आपराधिक न्यायालय में स्थानांतरित करने की अनुमति देता है, जैसे कि जब किसी वयस्क के साथ संयुक्त रूप से आरोप लगाया गया हो।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, स्कॉटलैंड और इंग्लैंड सहित कई देशों में ऐसी प्रणालियाँ हैं जो किशोर मामलों को निपटाने में विवेकाधिकार की अनुमति देती हैं, जिसमें मामले को अन्यत्र मोड़ने, पुनर्वास और समुदाय-आधारित हस्तक्षेप के विकल्प भी शामिल हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में आपराधिक दायित्व की आयु अलग-अलग है, यह राज्य के अनुसार अलग-अलग है, स्कॉटलैंड में यह 16 वर्ष से कम है तथा इंग्लैंड में 10 वर्ष है तथा 14 वर्ष से कम आयु वालों के लिये विशेष प्रावधान है।
  • तीनों देशों में किशोर मामलों में लिये गए निर्णयों के विरुद्ध अपील करने की व्यवस्था है, यद्यपि विशिष्ट प्रक्रियाएँ भिन्न हैं।
  • किशोर कार्यवाही और अभिलेखों की गोपनीयता इन सभी न्यायक्षेत्रों में एक सामान्य विषय है, जिसका उद्देश्य युवा अपराधियों की गोपनीयता तथा भविष्य की संभावनाओं की रक्षा करना है।
  • इन देशों में सामान्य प्रवृत्ति यह है कि विशुद्ध रूप से दण्डात्मक उपायों के स्थान पर पुनर्वास पर ज़ोर दिया जाता है तथा अपराध के मूल कारणों का समाधान किया जाता है।

निष्कर्ष:

भारत में किशोर न्याय प्रणाली स्वतंत्रता के उपरांत काफी विकसित हुई है, जो विशुद्ध रूप से कल्याण-उन्मुख दृष्टिकोण से एक अधिक संतुलित प्रणाली में परिवर्तित हो गई है जो पुनर्वास और उत्तरदायित्व दोनों पर विचार करती है। जबकि वर्तमान ढाँचा, मुख्य रूप से किशोर न्याय अधिनियम 2015 द्वारा शासित है, जो बालकों के अधिकारों के पुनर्वास और संरक्षण पर ज़ोर देता है, यह बड़े किशोरों द्वारा किये गए जघन्य अपराधों के मामलों में सख्त उपायों की भी अनुमति देता है। इसका अंतिम लक्ष्य एक ऐसी प्रणाली बनाना है जो किशोर अपराधियों के पुनर्वास को सार्वजनिक सुरक्षा और न्याय की मांगों के साथ प्रभावी ढंग से संतुलित करे।