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सांविधानिक विधि
अध्यक्ष की शक्तियाँ
« »14-Jun-2024
परिचय:
18वीं लोकसभा का सत्र प्रारंभ होने के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में हलचल मच गई है क्योंकि सत्तारूढ़ भाजपा के प्रमुख सहयोगी दल, अध्यक्ष के प्रतिष्ठित पद के लिये कड़ी प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं। यह बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा अध्यक्ष के चयन के महत्त्व को रेखांकित करती है, जो पदभार ग्रहण करने के उपरांत सदन के सर्वोच्च पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करता है। प्रोटेम स्पीकर (अल्पकालिक अध्यक्ष) की देखरेख में होने वाली प्रारंभिक कार्यवाही संसदीय ढाँचे के भीतर महत्त्वपूर्ण अधिकार और उत्तरदायित्व के लिये किसी व्यक्ति को चुनने की जटिल प्रक्रिया के प्रारंभ को चिह्नित करती है।
अध्यक्ष की संवैधानिक शक्तियाँ और अधिदेश क्या हैं?
- भारत का संविधान, 1950 संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है।
- अनुच्छेद 93 के अनुसार, सदन की कार्यवाही प्रारंभ होने के तुरंत बाद अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव अनिवार्य है।
- साधारण बहुमत द्वारा चुना गया अध्यक्ष सदन के भंग होने तक कार्य करता है, जब तक कि वह सदन के भंग होने से पूर्व त्याग-पत्र न दे अथवा उसे अध्यक्ष पद से हटा न दिया जाए।
- अनुच्छेद 94 अध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के लिये एक तंत्र प्रदान करता है, जो उत्तरदायित्व सुनिश्चित करता है।
- अध्यक्ष का पद किसी भी सदस्य के लिये खुला होता है तथा इसमें सदन की अध्यक्षता करने से लेकर सदस्यों की अयोग्यता पर विचार करने तक के विशिष्ट संवैधानिक कार्य और विशेषाधिकार शामिल होते हैं।
अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया और कार्यकाल क्या है?
- अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया संसदीय परंपराओं और नियमों द्वारा शासित होती है।
- यद्यपि इस पद के लिये कोई विशिष्ट योग्यता नहीं है, फिर भी सदन का कोई भी सदस्य इसके लिये विचार हेतु पात्र है।
- अध्यक्ष के कर्त्तव्य एक साधारण सदस्य के कर्त्तव्यों से कहीं अधिक होते हैं, जैसा कि सदन में विशिष्ट स्थिति,व्यवस्था और शिष्टाचार बनाए रखने के उनके महत्त्वपूर्ण कार्य से स्पष्ट होता है।
- अध्यक्ष का कार्यकाल सदन के विघटन तक जारी रहता है, जब तक कि त्याग-पत्र या निष्कासन की बाधा न आए, इससे सदन के नेतृत्व में स्थिरता और निरंतरता बनी रहती है।
अविश्वास प्रस्ताव क्या है तथा अध्यक्ष का उत्तरदायित्व क्या है?
- संविधान का अनुच्छेद 94 सदस्यों को अध्यक्ष के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार देता है, जो संसदीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत को रेखांकित करता है।
- ऐसे प्रस्तावों के लिये 14 दिनों की नोटिस अवधि की आवश्यकता होती है, जो सदस्यों के लिये अध्यक्ष के आचरण या निष्पक्षता के संबंध में चिंता व्यक्त करने के लिये एक तंत्र के रूप में कार्य करते हैं।
- सदन के किसी भी अन्य सदस्य की तरह अध्यक्ष को भी कुछ परिस्थितियों में अयोग्य ठहराया जा सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उच्च पद पर आसीन व्यक्ति भी ईमानदारी और निष्पक्षता के उच्चतम मानकों को कायम रखे।
सदन की कार्यवाही में अध्यक्ष अपनी शक्तियों का प्रयोग कैसे करते हैं?
- अध्यक्ष की शक्ति:
- सदन की कार्यवाही को विनियमित करने तथा नियमों और प्रक्रियाओं का पालन सुनिश्चित करने में अध्यक्ष के पास पर्याप्त अधिकार होते हैं।
- सदन के नेता के साथ परामर्श करके अध्यक्ष चर्चा के प्रवाह को नियंत्रित करते हैं तथा सदस्यों के प्रश्नों और बहसों की अनुमति देते हैं।
- इसके अतिरिक्त, अध्यक्ष प्रश्नों की ग्राह्यता पर निर्णय करता है, सदन की कार्यवाही के प्रकाशन पर निर्णय लेता है तथा शिष्टाचार का रक्षण करते हुए असंसदीय टिप्पणियों को हटाने का अधिकार रखता है।
- प्रश्नों की स्वीकार्यता निर्धारित करने में भूमिका:
- अध्यक्ष की भूमिका का एक महत्त्वपूर्ण आयाम सदन की कार्यवाही के दौरान सदस्यों द्वारा उठाए गए प्रश्नों की ग्राह्यता निर्धारित करना है।
- अध्यक्ष द्वारपाल के रूप में कार्य करते हैं तथा यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रश्न संसदीय मानदंडों के अनुरूप हों तथा कार्य से प्रासंगिक हों।
- इस संबंध में विवेक का प्रयोग करके अध्यक्ष संसदीय बहस की गुणवत्ता और प्रासंगिकता बनाए रखते हैं तथा सार्वजनिक महत्त्व के मामलों पर सार्थक विचार-विमर्श को बढ़ावा देते हैं।
- असंसदीय टिप्पणियों को हटाने का अधिकार:
- सदन की गरिमा और शिष्टाचार को बनाए रखने के लिये अध्यक्ष के पास असंसदीय समझी जाने वाली टिप्पणियों को हटाने का अधिकार है।
- यह विवेकाधीन शक्ति अध्यक्ष को सदस्यों के बीच शिष्टाचार और सम्मान बनाए रखने, संसदीय मानदंडों के क्षरण को रोकने तथा रचनात्मक संवाद के लिये अनुकूल वातावरण सुनिश्चित करने में सक्षम बनाती है।
- इस प्राधिकार का प्रयोग करने के लिये संबंधित टिप्पणियों के संदर्भ और प्रभाव पर सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति की आवश्यकता एवं शिष्टाचार बनाए रखने की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
मतदान प्रक्रिया में अध्यक्ष की क्या भूमिका होती है?
- परिचय:
- ध्वनि मत या विभाजन के मामलों में, अध्यक्ष मतदान की विधि पर नियंत्रण रखता है तथा यह निर्धारित करता है कि विधेयक साधारण बहुमत से पारित होगा या उसे लिखित विभाजन की आवश्यकता होगी।
- यद्यपि अध्यक्ष द्वारा निर्णायक मत देना दुर्लभ है, परंतु बराबर मतों की स्थिति में इसका काफी महत्त्व होता है, क्योंकि परंपरागत रूप से अध्यक्ष का मत सत्तारूढ़ दल के मंतव्य के अनुरूप होता है।
- मतदान प्रक्रिया और निर्णय लेना:
- मतदान प्रक्रियाओं में अध्यक्ष की भूमिका विधायी प्रक्रिया के लिये केंद्रीय होती है, क्योंकि यह सदन द्वारा लिये गए महत्त्वपूर्ण निर्णयों के परिणाम को निर्धारित करती है।
- यह प्रक्रिया चाहे ध्वनि मत से हो या लिखित मतविभाजन से, अध्यक्ष यह सुनिश्चित करता है कि निष्पक्षता और पारदर्शिता के सिद्धांतों के द्वारा बहुमत प्राप्ति की इच्छा ही सर्वोपरि हो।
- इसके अतिरिक्त, अध्यक्ष का मत समानता की स्थिति में निर्णायक मत के रूप में कार्य करता है, जो इस प्राधिकार के प्रयोग में निष्पक्षता और विवेकपूर्ण निर्णय लेने के महत्त्व को रेखांकित करता है।
- वोट डालने के निहितार्थ:
- यद्यपि अध्यक्ष का मतदान एक दुर्लभ घटना है, फिर भी इसके निहितार्थ बहुत गहरे हैं तथा इससे परिणाम, एक पक्ष की तुलना में दूसरे पक्ष की ओर झुक सकता है।
- अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल के साथ मिलकर मतदान करने की परंपरा इस निर्णय के राजनीतिक महत्त्व को रेखांकित करती है, जो अक्सर विधायी कार्यवाही को प्रभावित करता है तथा सरकार के मंतव्य को आकार देता है।
- तथापि, अध्यक्ष द्वारा मतदान का प्रयोग संवैधानिक सिद्धांतों और संसदीय परंपराओं द्वारा निर्देशित होना चाहिये, जो अध्यक्ष के कार्यालय की अखंडता तथा स्वतंत्रता को बनाए रखने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
दल-बदल विरोधी विधियों के माध्यम से अध्यक्ष राजनीतिक गतिशीलता को कैसे प्रभावित करते हैं?
- दसवीं अनुसूची:
- संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत, अध्यक्ष के पास दल-बदल के मामलों में निर्णय लेने का अधिकार है, इस शक्ति को किहोतो होलोहान बनाम ज़ाचिल्हु (1993) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यथावत् रखा गया था।
- अयोग्यता याचिकाओं पर समय पर निर्णय महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि देरी से सदन में शक्ति संतुलन प्रभावित हो सकता है और सरकारें अस्थिर हो सकती हैं।
- हाल के न्यायिक निर्देशों में लोकतांत्रिक अखंडता को बनाए रखने के लिये अयोग्यता के मामलों के शीघ्र समाधान पर ज़ोर दिया गया है।
- दल-बदल विरोधी विधि लागू करने में भूमिका:
- दल-बदल विरोधी विधियों को लागू करने में अध्यक्ष की भूमिका विधायी प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा करने और लोकतांत्रिक संस्थाओं की पवित्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण है।
- दल-बदल के मामलों पर निर्णय देकर और अयोग्यता याचिकाओं पर समय पर निर्णय जारी करके, अध्यक्ष संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों को कायम रखते हैं तथा लोकतांत्रिक जनादेश को नष्ट करने के उद्देश्य से किये जाने वाले अवसरवादी दल-बदल को रोकते हैं।
- हालाँकि, अध्यक्ष द्वारा इस प्राधिकार का प्रयोग प्राकृतिक न्याय और प्रक्रियागत निष्पक्षता के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होना चाहिये तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा की जाए एवं उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए।
- न्यायिक समीक्षा और अध्यक्ष के निर्णयों के निहितार्थ:
- दल-बदल विरोधी विधियों को लागू करने में अध्यक्ष की भूमिका पर उच्चतम न्यायालय के न्यायशास्त्र का संसदीय लोकतंत्र पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
- ऐतिहासिक किहोतो होलोहान बनाम ज़चिल्हू एवं अन्य (1993) मामले में न्यायालय ने दल-बदल के मामलों पर निर्णय लेने के लिये अध्यक्ष के अधिकार की पुष्टि की, जो केवल दुर्भावना या संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन के लिये न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- अध्यक्ष के निर्णयों के प्रति यह न्यायिक सम्मान संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत को रेखांकित करता है, साथ ही अध्यक्ष की शक्तियों के प्रयोग में उत्तरदायित्व एवं पारदर्शिता की आवश्यकता पर भी ज़ोर देता है।
- दल-बदल विरोधी विधियों को लागू करने में अध्यक्ष की भूमिका पर उच्चतम न्यायालय के न्यायशास्त्र का संसदीय लोकतंत्र पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।
निष्कर्ष:
संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है, जिसके पास संवैधानिक शक्तियाँ होती हैं जो पार्टी संबद्धता से परे होती हैं। वे सदन की कार्यवाही की देखरेख करते हैं और दलबदल जैसे मुद्दों को निष्पक्ष रूप से संभालते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि विधायी निकाय सुचारु रूप से काम करें, लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखा जाए तथा विधि का पालन किया जाए। संसदीय नियमों और रीति-रिवाज़ों के संरक्षक के रूप में, अध्यक्ष चर्चाओं को सुविधाजनक बनाते हैं, सहमति को प्रोत्साहित करते हैं तथा राष्ट्र के सामान्य लक्ष्यों की दिशा में काम करते हैं।