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आपराधिक कानून
जारकर्म विधि में सुधार
« »27-Oct-2023
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
परिचय
भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 497 जारकर्म (adultery) अपराध से संबंधित है। ऐतिहासिक रूप से, इसने जारकर्म को अपराध घोषित कर दिया और इसे कारावास से दंडनीय अपराध बना दिया। हालाँकि, जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा सितंबर, 2018 में धारा 497 को अपराधमुक्त करने से वैधानिक संरचना संपरिवर्तित हो गई।
जारकर्म की वैधानिक संरचना
- IPC की धारा 497 के अनुसार "जो भी कोई ऐसी महिला के साथ, जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी है और जिसका किसी अन्य पुरुष की पत्नी होना वह विश्वास पूर्वक जानता है, बिना उसके पति की सहमति या उपेक्षा के शारीरिक संबंध बनाता है जो कि बलात्कार के अपराध की श्रेणी में नहीं आता, वह जारकर्म (adultery) के अपराध का दोषी होगा, और उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास की सजा जिसे पाँच वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है या आर्थिक दंड या दोनों से दंडित किया जाएगा। ऐसे मामले में पत्नी दुष्प्रेरक के रूप में दण्डनीय नहीं होगी।”
जारकर्म विधि का इतिहास
- धारा 497 की उत्पत्ति का पता 150 वर्ष पुराने कानून में निहित औपनिवेशिक युग से लगाई जा सकती है।
- यह धारा, जैसा कि प्रारंभ में थी, जारकर्म को अपराध मानती थी लेकिन केवल पुरुष को व्यभिचारी/जारकर्मी के रूप में दंडित करती थी, महिला को अपराधी के बजाय पीड़ित मानती थी।
- सौमित्री विष्णु बनाम भारत संघ (1985) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने धारा 497 की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन इसकी लैंगिक-विशिष्ट प्रकृति पर असंतोष व्यक्त किया।
- न्यायालय ने अपनी टिप्पणियों में विधायिका से आग्रह किया कि वह इसे लैंगिक तटस्थ बनाने के प्रावधान में संशोधन पर विचार करे।
जारकर्म विधि से संबंधित मुद्दे
- मनमाना और विभेदकारी:
- न्यायालय ने माना कि यह प्रावधान मनमाना और विभेदकारी था क्योंकि यह केवल एक विवाहित महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बिना जारकर्म में शामिल पुरुष को दंडित करता था।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि यह प्रावधान एक विवाहित महिला को उसके पति की संपत्ति मानता है, जो उसकी गरिमा और व्यक्तित्व का उल्लंघन है।
- समता के अधिकार का अतिक्रमण:
- न्यायालय ने माना कि धारा 497 भारतीय संविधान में निहित अनुच्छेद 14 के तहत समता के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण करती है।
- निजता के अधिकार का उल्लंघन:
- फैसले ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के रूप में निजता के अधिकार पर भी ज़ोर दिया है।
- जारकर्म को अपराध घोषित करने को व्यक्तियों की गोपनीयता और उनके वैयक्तिक संबंधों में घुसपैठ के रूप में देखा गया।
- बदलती सामाजिक गतिशीलता:
- न्यायालय ने समाज की बदलती गतिशीलता और उन कानूनों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को पहचाना, जो समकालीन मूल्यों के अनुरूप नहीं हो सकते हैं।
- फैसले में व्यक्तियों, विशेषकर महिलाओं के अपने वैयक्तिक संबंधों के बारे में विकल्प चुनने की स्वायत्तता को स्वीकार किया गया।
जारकर्म विधि में हुए बदलाव
- असंवैधानिक:
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) मामले के ऐतिहासिक फैसले में, उच्चतम न्यायालय ने IPC की धारा 497 को असंवैधानिक करार देकर उसे रद्द कर दिया।
- न्यायालय ने महिलाओं को विवाह में समान भागीदार के रूप में मान्यता देने के महत्त्व पर ज़ोर दिया, जो अपने रिश्तों के बारे में विकल्प चुनने में सक्षम हैं।
- यह निर्णय उस पुरातन धारणा से महत्त्वपूर्ण विचलन को प्रदर्शित करता है, कि विवाह के बाद एक महिला अपनी आत्म-स्वायत्तता खो देती है।
- विधानमंडल द्वारा उठाए गए कदम:
- उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियों के जवाब में विधायिका ने धारा 497 में निहित लैंगिक पूर्वाग्रह को सुधारने के लिये संशोधन प्रस्तुत किये।
- संशोधित प्रावधान ने न केवल जारकर्म को अपराध की श्रेणी से हटा दिया, बल्कि विधि के समक्ष समता पर ज़ोर देते हुए इसे पुरुषों तथा महिलाओं दोनों पर लागू कर दिया।
- सहमति पर संकेंद्रित:
- धारा 497 में परिवर्तन केवल लैंगिक पूर्वाग्रह को दूर करने पर केंद्रित नहीं थे; वे सहमति के मुद्दे को भी संबोधित करते हैं क्योंकि धारा 497 के तहत जारकर्म का कार्य करने के लिये महिला के पति की सहमति आवश्यक होती है।
- संशोधित प्रावधान ने संबंधों में सहमति के महत्त्व पर ज़ोर दिया, जो विवाहों में वैयक्तिक स्वायत्तता की व्यापक सामाजिक समझ को दर्शाता है।
जारकर्म अधिनियम की वर्तमान स्थिति
- हालाँकि, गैर-अपराधीकरण का तात्पर्य यह नहीं है कि कारावास के अलावा जारकर्म का कोई परिणाम नहीं होगा।
- अब विवाहेतर संबंधों में शामिल होने पर आपराधिक आरोप नहीं लगेंगे, लेकिन पारिवार विधि के दायरे में इसका गहरा प्रभाव हो सकता है, मूलतः तलाक की कार्यवाही के संबंध में।
- जारकर्म को प्रायः तलाक के लिये वैध आधार के रूप में उद्धृत किया जाता है, जिससे पति-पत्नी को वैवाहिक निष्ठा के विघटन के आधार पर वैवाहिक विश्वस्तता को भंग करने की अनुमति मिलती है।
- हालाँकि कानून अब विवाहेतर संबंधों में शामिल होने के लिये व्यक्तियों को दंडित करने का प्रावधान नहीं करता है, लेकिन यह वैवाहिक संस्था पर ऐसे व्यवहार के प्रभाव को संबोधित करने के लिये एक क्रियाविधि प्रदान करता है।
- यह इस सामाजिक स्वीकृति को दर्शाता है कि विवाह केवल एक विधिक संविदा नहीं है बल्कि एक नैतिक और भावनात्मक प्रतिबद्धता भी है।
निष्कर्ष
IPC की धारा 497 की औपनिवेशिक उत्पत्ति से लेकर वर्ष 2018 में इसके अंतिम गैर-अपराधीकरण तक की यात्रा जारकर्म पर विधिक दृष्टिकोण में एक परिवर्तनकारी बदलाव का प्रतीक है। इसका ध्यान दंडात्मक उपायों से हटकर पारिवारिक और वैयक्तिक संबंधों के संदर्भ में वैवाहिक विच्छेदन के परिणामों को संबोधित करने पर केंद्रित हो गया है।