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अंतर्राष्ट्रीय कानून
रूस -उत्तर कोरिया पारस्परिक रक्षा संधि
« »28-Jun-2024
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
परिचय:
हाल ही में रूसी राष्ट्रपति की प्योंगयांग यात्रा के परिणामस्वरूप रूस और उत्तर कोरिया के बीच एक ऐतिहासिक संधि हुई है। इस उच्च स्तरीय राजनयिक अभियान के दौरान हस्ताक्षरित इस संधि में एक पारस्परिक रक्षा खंड शामिल है, जिसके अधीन दोनों देश सशस्त्र आक्रमण होने की स्थिति में एक दूसरे को तत्काल सैन्य सहायता प्रदान करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। यह समझौता पूर्वोत्तर एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को दर्शाता है, जो संभावित रूप से क्षेत्रीय शक्ति गतिशीलता एवं सुरक्षा रणनीतियों को नया रूप दे सकता है।
पश्चिमी शक्तियों के साथ प्रायः मतभेद रखने वाले दो देशों के रूप में, रूस और उत्तर कोरिया के बीच सुदृढ़ गठबंधन वैश्विक राजनीति तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिये दूरगामी परिणाम हो सकता है। यह संधि ऐसे समय में हुई है जब वैश्विक तनाव बढ़ रहा है तथा यह संधि, क्षेत्रीय शक्ति संतुलन एवं दक्षिण कोरिया, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों की संभावित प्रतिक्रियाओं के विषय में महत्त्वपूर्ण है।
रूस और उत्तर कोरिया को निकट लाने में कौन-सी ऐतिहासिक घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं?
- द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात्:
- सोवियत संघ ने कोरिया में साम्यवादी शासन का समर्थन किया।
- कोरियाई युद्ध के समय किम इल सुंग को महत्त्वपूर्ण सैन्य सहायता प्रदान की।
- कोरियाई युद्ध के पश्चात्:
- सोवियत संघ और चीन ने उत्तर कोरिया को सैन्य और आर्थिक रूप से समर्थन देना जारी रखा।
- 1961:
- रूस-उत्तर कोरिया मैत्री, सहयोग और पारस्परिक सहायता संधि पर हस्ताक्षर किये गए तथा इसमें पारस्परिक रक्षा समझौता भी शामिल था।
- 1991:
- सोवियत संघ विघटित हो गया।
- संधि रद्द हो गई, जिससे दोनों देशों के संबंधों में अस्थायी गिरावट आई।
- 2000 के दशक का प्रारंभ:
- पुतिन के नेतृत्व में रूस ने उत्तर कोरिया के साथ संबंध सुधारने शुरू कर दिये।
- 2022 से पूर्व:
- रूस ने उत्तर कोरिया की परमाणु बम बनाने की महत्त्वाकांक्षा का समर्थन नहीं किया।
- उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम के विरुद्ध प्रतिबंध का समर्थन किया।
- 2022 से अब तक:
- रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया, जिससे उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पृथकता की स्थिति का सामना करना पड़ा।
- उत्तर कोरिया के साथ संबंध और भी मज़बूत हुए।
- वर्तमान स्थिति:
- इस वैश्विक विभाजन ने शीत-युद्ध युग जैसी स्थितियाँ उत्पन्न की हैं।
- रूस और उत्तर कोरिया ने पश्चिमी उदारवादी व्यवस्था के विरुद्ध गठबंधन किया।
- यह व्यावहारिक विचारों पर आधारित गठबंधन है।
व्यापक रणनीतिक साझेदारी संधि क्या है?
- व्यापक सामरिक साझेदारी संधि रूस और उत्तर कोरिया के बीच हुई है।
- यह एक व्यापक संधि है जो विभिन्न क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग को मज़बूत करेगी।
- मूलतः इस संधि में पारस्परिक सैन्य समर्थन और अनिर्दिष्ट तकनीकी सहायता के प्रावधान शामिल हैं।
- इसका सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व पारस्परिक रक्षा खंड है, जो अनुच्छेद 4 में उल्लिखित है, जो प्रत्येक संधिकर्त्ता देश को सशस्त्र आक्रमण होने की स्थिति में दूसरे संधिकर्त्ता देश को तत्काल सैन्य एवं अन्य सहायता प्रदान करने के लिये बाध्य करता है।
- यह संधि वर्ष 1961 में हुए एक समान समझौते की याद दिलाती है।
- जबकि सू मी टेरी जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि इस रक्षा प्रावधान को लागू किये जाने की संभावना नहीं है, उनका तर्क है कि संधि का मुख्य उद्देश्य, हथियारों के उत्पादन में घनिष्ठ पारस्परिक सहयोग है।
- इसमें उत्तर कोरिया द्वारा रूस के लिये अधिक हथियार निर्मित करना शामिल हो सकता है, जबकि रूस, उत्तर कोरिया के परमाणु और मिसाइल कार्यक्रमों के लिये उन्नत सहायता प्रदान करेगा।
- तकनीकी सहायता विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उत्तर कोरिया के पास उन्नत, लंबी दूरी के परमाणु हथियार विकसित करने के लिये महत्त्वपूर्ण घटकों का अभाव है, जैसे- परिष्कृत मिसाइल मार्गदर्शन प्रणाली, अत्याधुनिक वारहेड डिज़ाइन और पुनः प्रवेश वाहन प्रौद्योगिकी।
- इस संधि में दोनों देशों की सैन्य क्षमताओं को बढ़ाने, उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम को गति देने तथा दोनों देशों को वैश्विक मंच पर अधिक शक्तिशाली बनाने की क्षमता है।
संधि के मुख्य बिंदु क्या हैं?
- एक दूसरे की संप्रभुता के प्रति पारस्परिक सम्मान तथा आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- वैश्विक रणनीतिक स्थिरता और नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिये सहयोग।
- पारस्परिक रक्षा प्रतिबद्धता, जिसमें आक्रमण होने पर सैन्य सहायता भी शामिल है।
- तीसरे पक्षों के साथ ऐसी संधियों पर हस्ताक्षर न करने का समझौता जो एक दूसरे के हितों का उल्लंघन करती हों।
- बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिये समर्थन एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में सहयोग।
- रक्षा क्षमताओं को दृढ़ करने एवं क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये संयुक्त प्रयास।
- खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा तथा जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों पर सहयोग।
- आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग का विस्तार।
- क्षेत्रीय एवं सीमा पार आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देना।
- सांस्कृतिक एवं शैक्षिक आदान-प्रदान।
- प्रत्यर्पण और संपत्ति वसूली सहित विधिक सहयोग।
- किसी भी देश के विरुद्ध एकपक्षीय बलपूर्वक कार्यवाही का विरोध।
- आतंकवाद, संगठित अपराध एवं अन्य सुरक्षा खतरों के विरुद्ध संयुक्त प्रयास।
- सूचना सुरक्षा और झूठी सूचना से निपटने पर सहयोग।
- एक दूसरे के साहित्य को बढ़ावा देना तथा वस्तुनिष्ठ सूचना का आदान-प्रदान करना।
क्षेत्र में अन्य महत्त्वपूर्ण समझौते क्या हैं?
- चीन-उत्तर कोरिया संधि (1961):
- यह चीन का एकमात्र पारस्परिक रक्षा समझौता है।
- जो किसी भी सहयोगी देश पर हमला होने की स्थिति में तत्काल सैन्य सहायता देने का वचन देता है।
- क्षेत्रीय तनाव के बावजूद कभी भी इसका इस्तेमाल नहीं किया गया।
- चीन ने चेतावनी दी है कि अगर उत्तर कोरिया ने आक्रमण शुरू किया तो वह सहायता नहीं करेगा।
- संयुक्त राज्य अमेरिका-फिलीपींस पारस्परिक रक्षा संधि (1951):
- यह संधि, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सामूहिक रक्षा समझौतों का भाग है।
- जो हाल ही में दक्षिण चीन सागर में तनाव के कारण चर्चा में थी।
- अमेरिका ने समुद्री क्षेत्र सहित फिलीपींस की रक्षा करने की प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
- यह संधि दक्षिण चीन सागर में कहीं भी फिलीपींस बलों पर किये गए सशस्त्र हमलों पर लागू होती है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्य रक्षा समझौते:
- दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और थाईलैंड के साथ सामूहिक रक्षा संधियाँ
- कई मध्य, दक्षिण अमेरिकी और कैरेबियाई देशों के साथ रियो संधि (1947)
- NATO दायित्व
- संयुक्त राज्य अमेरिका-ताइवान स्थिति:
- दोनों के बीच कोई औपचारिक पारस्परिक रक्षा समझौता नहीं है।
- अमेरिका "एक चीन" नीति का पालन करता है, परंतु ताइवान के साथ अनौपचारिक रक्षा संबंध बनाए रखता है।
- किसी संभावित आक्रमण की प्रतिक्रिया के संबंध में "रणनीतिक अस्पष्टता" की नीति।
- अमेरिकी नेतृत्व के हालिया बयानों से चीनी आक्रमण के प्रति संभावित सैन्य प्रतिक्रिया का संकेत मिलता है।
- अमेरिका बातचीत पर ज़ोर देता है और कहता है कि चीन के साथ युद्ध आसन्न या अपरिहार्य नहीं है।
- ये समझौते और संबंध, क्षेत्रीय सुरक्षा गतिशीलता तथा एशिया-प्रशांत में संभावित संघर्ष परिदृश्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यह संधि दक्षिण कोरिया और जापान की सुरक्षा नीतियों को किस प्रकार प्रभावित करेगी?
- रूस-उत्तर कोरिया संधि के वैश्विक सुरक्षा एवं क्षेत्रीय गतिशीलता के लिये महत्त्वपूर्ण रणनीतिक निहितार्थ हैं।
- दक्षिण कोरिया और जापान के लिये यह प्रत्यक्ष सुरक्षा खतरा है, जिसके कारण उन्हें अपनी सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा अपनी सुरक्षा नीतियों में संशोधन करने के लिये बाध्य होना पड़ सकता है।
- जापान का शांतिवादी रुख से हटना तथा दक्षिण कोरिया का यूक्रेन को हथियार देने पर विचार करना इस प्रवृत्ति के उदाहरण हैं।
- उपर्युक्त दोनों देशों से संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने गठबंधन को दृढ़ करने की अपेक्षा की जाती है, जिसने अपने सहयोगियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुनः पुष्टि की है।
- इस संधि ने पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ा दी है, तथा NATO ने सत्तावादी शक्तियों के बीच सहयोग एवं परमाणु प्रसार के संकट के विषय में चिंता व्यक्त की है।
- यह घटनाक्रम अन्यत्र भी इसी प्रकार की साझेदारियों को प्रेरित कर सकता है, विशेष रूप से ईरान के साथ, जो पश्चिमी हितों के लिये लगातार चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रहा है।
- चीन, एशिया में पश्चिम विरोधी गुट के मज़बूत होने से संभावित लाभ देख रहा है, परंतु वह उत्तर कोरिया पर रूस के बढ़ते प्रभाव और प्रतिक्रिया स्वरूप क्षेत्र में पश्चिमी सैन्य उपस्थिति में वृद्धि की संभावना से चिंतित हो सकता है।
- कुल मिलाकर, यह संधि पूर्वोत्तर एशिया में शक्ति संतुलन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला सकता है, जिससे संभावित रूप से हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा प्रारंभ हो सकती है तथा वैश्विक गठबंधनों में और अधिक ध्रुवीकरण हो सकता है।
- यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की जटिल और विकासशील प्रकृति को रेखांकित करता है, जहाँ नई साझेदारियाँ दीर्घकालिक भू-राजनीतिक स्थितियों को तेज़ी से परिवर्तित कर सकती हैं।
NATO क्या है?
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निष्कर्ष:
रूस-उत्तर कोरिया संधि, वैश्विक भू-राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके क्षेत्रीय स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों के लिये दूरगामी परिणाम होंगे। जैसे-जैसे दक्षिण कोरिया, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश इसकी प्रतिक्रिया में अपनी रणनीतियों को फिर से तैयार कर रहे हैं, सैन्यीकरण में वृद्धि तथा सत्ता की गतिशीलता में परिवर्तन की संभावना स्पष्ट होती जा रही है।