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सांविधानिक विधि
AMU का अल्पसंख्यक दर्ज़ा
« »11-Nov-2024
स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया
परिचय
उच्चतम न्यायालय ने 1967 के उस निर्णय को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ, 1967 के निर्णय को खारिज करते हुए दिया। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अल्पसंख्यक संस्थान का दर्ज़ा निर्धारित करने के लिये नए मानदंड स्थापित किए, जबकि AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का अंतिम निर्धारण एक अलग पीठ पर छोड़ दिया। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ के बहुमत वाले निर्णय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 30(1) में "स्थापित" शब्द का व्यापक रूप से निर्वचन किया जाना चाहिये।
मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- वर्ष 1968 में, एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि इसकी स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं की गई थी।
- वर्ष 1981 में, अंजुमन-ए-रहमनिया बनाम जिला विद्यालय निरीक्षक मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने अज़ीज़ बाशा द्वारा दिये गए निर्णय की सत्यता पर प्रश्न किया तथा मामले को 7 न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ को भेज दिया।
- वर्ष 1981 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम पारित किया गया, जिसमें "स्थापित करें तथा " शब्दों को हटाकर AMU अधिनियम के लंबे शीर्षक एवं प्रस्तावना में संशोधन किया गया।
- वर्ष 2002 में, TMA पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य मामले में 11 न्यायाधीशों की पीठ ने किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान माने जाने के लिये किन संकेतों पर प्रश्न किया गया था।
- हालाँकि, उस मामले में इस प्रश्न का प्रत्युत्तर नहीं दिया गया था। वर्ष 2005 में मुस्लिम छात्रों के लिये AMU की आरक्षण नीति की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए कार्यवाही प्रारंभ की गई, जिसमें तर्क दिया गया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
- वर्ष 2005 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है तथा इसकी आरक्षण नीति असंवैधानिक है। 2006 में उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इसकी पुष्टि की।
- वर्ष 2019 में, उच्चतम न्यायालय की 3 न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि अज़ीज़ बाशा निर्णय की सत्यता अभी निर्धारित नहीं हुई है तथा मामले को 7 न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया।
- मौजूदा 7 न्यायाधीशों की पीठ को संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान माने जाने के लिये आवश्यक तत्त्वों या संकेतों को निर्धारित करने का कार्य सौंपा गया है।
- मुख्य प्रश्न यह है कि क्या अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिये किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित एवं प्रशासित दोनों होना चाहिये।
- न्यायालय को अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र पर बाद की घटनाओं एवं नियामक उपायों के प्रभाव की जाँच करनी है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
CJI धनंजय वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30(1) दोहरा उद्देश्य पूरा करता है: शैक्षिक मामलों में अल्पसंख्यकों को भेदभाव से बचाना तथा अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शैक्षिक संस्थानों को विशेष प्रशासनिक अधिकार प्रदान करना।
- धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत सुरक्षा के लिये अर्हता प्राप्त करने के लिये यह सिद्ध करना होगा कि उन्होंने शैक्षिक संस्थान की स्थापना की है, अल्पसंख्यक का दर्ज़ा संविधान के लागू होने के अनुसार परिभाषित किया गया है।
- अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अधिकार संविधान के लागू होने से पहले स्थापित विश्वविद्यालयों तक विस्तारित हैं, लेकिन संविधान-पूर्व संस्थानों के लिये नए अधिकार-धारक समूहों की पहचान नहीं की जा सकती है।
- किसी संस्थान को विश्वविद्यालय में परिवर्तित करने से उसका अल्पसंख्यक चरित्र स्वतः समाप्त नहीं हो जाता; न्यायालयों को दिये गए दर्जे में परिवर्तन द्वारा परिस्थितियों एवं प्रशासनिक व्यवस्था की समग्र रूप से जाँच करनी चाहिये।
- किसी संस्था को अल्पसंख्यक द्वारा 'स्थापित' माना जाने के लिये, तीन आवश्यक मानदंड पूरे होने चाहिये: अल्पसंख्यक समुदाय से विचार, अल्पसंख्यक समुदाय को लाभ पहुँचाने वाला उद्देश्य एवं अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा कार्यान्वयन।
- प्रशासनिक संरचना में अल्पसंख्यक चरित्र का प्रदर्शन होना चाहिये तथा यह सिद्ध करना चाहिये कि संस्था का उद्देश्य अल्पसंख्यक हितों की रक्षा एवं संवर्धन करना था।
- अज़ीज़ बाशा के निर्णय को विशेष रूप से इस दृष्टिकोण के कारण खारिज कर दिया गया है कि यदि कोई शैक्षणिक संस्थान संविधि के द्वारा विधिक चरित्र प्राप्त करता है तो वह अल्पसंख्यक का दर्ज़ा खो देता है।
- अज़ीज़ बाशा के निर्णय के विषय में अंजुमन-ए-रहमानिया में दिया गया संदर्भ, दाऊदी बोहरा समुदाय के केंद्रीय बोर्ड द्वारा निर्धारित मापदंडों के अंतर्गत वैध था।
- शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करने वाला कोई भी संविधि या कार्यकारी कार्यवाही अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन है।
- AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक निर्देशों के बाद नियमित पीठ द्वारा इन सिद्धांतों के आधार पर निर्धारित किया जाएगा।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत
- केरल शिक्षा विधेयक (सात न्यायाधीशों की पीठ) एवं अज़ीज़ बाशा (पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ) के निर्णयों के बीच कोई टकराव नहीं है।
- सिद्धाजभाई सभई के निर्णय में अभिनिर्णीत किया गया था कि अनुच्छेद 30 के अधिकार निरपेक्ष एवं शर्त से मुक्त हैं, जिसे TMA पाई ने प्रभावी रूप से खारिज कर दिया है; इसलिये, अज़ीज़ बाशा द्वारा सिधजभाई सभई का उदाहरण न देना इसे अमान्य नहीं करता है।
- किसी निर्णय पर 'संदेह' एवं 'असहमति' के बीच का अंतर विधिक रूप से महत्वहीन है, तथा अज़ीज़ बाशा को चुनौती देने वाले अंजुमन के संदर्भ में दो न्यायाधीशों की पीठ प्रक्रियात्मक रूप से अनुचित है।
- दो न्यायाधीशों वाली पीठ किसी बड़ी पीठ के निर्णय पर संदेह या असहमति नहीं जता सकती तथा इसे सीधे संख्यात्मक रूप से बड़ी पीठ को संदर्भित नहीं कर सकती, क्योंकि यह अनुच्छेद 145 के अंतर्गत रोस्टर के मास्टर के रूप में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका का उल्लंघन करता है।
- जबकि मूल अंजुमन संदर्भ विधिक रूप से अमान्य है, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में दिनांक 12.02.2019 का बाद का संदर्भ बनाए रखने योग्य है।
- AMU अधिनियम, 1920 की धारा 6 का निर्वचन के संबंध में अज़ीज़ बाशा के निर्णय को संशोधित किया गया है, विशेष रूप से इसका निष्कर्ष कि डिग्री की सरकारी मान्यता के कारण AMU को निजी व्यक्तियों द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता था।
- संविधान के लागू होने से पहले स्थापित अल्पसंख्यक संस्थान अनुच्छेद 30 के अंतर्गत संरक्षण के अधिकारी हैं।
- अनुच्छेद 30 में "शैक्षणिक संस्थान" शब्द विश्वविद्यालयों को शामिल करता है।
- अनुच्छेद 30 संरक्षण प्राप्त करने के लिये, संस्थानों को दो-भाग की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी: अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापना एवं उस समुदाय द्वारा निरंतर प्रशासन।
- अनुच्छेद 30 संरक्षण के लिये AMU इन मानदंडों को पूरा करता है या नहीं, इसका विशिष्ट प्रश्न एक नियमित पीठ द्वारा निर्धारित किया जाएगा, क्योंकि इसमें तथ्यात्मक एवं विधिक दोनों तरह के विचार शामिल हैं।
न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा
- रिट याचिका संख्या 54-51, 1981 में पीठ मुख्य न्यायाधीश के बिना सीधे 7 न्यायाधीशों की पीठ को मामला नहीं भेज सकती थी।
- अल्पसंख्यक द्वारा किसी संस्था की "स्थापना" अनुच्छेद 30 के अंतर्गत उसे प्रशासित करने के अधिकार का दावा करने के लिये अल्पसंख्यक के लिये आवश्यक है।
- अनुच्छेद 30 में "स्थापना" शब्द का अर्थ संस्था को अस्तित्व में लाना है, न कि केवल संस्था की "उत्पत्ति" या "स्थापना"।
- यह निर्धारित करने के लिये तीन प्रमुख कारक हैं कि क्या अल्पसंख्यक ने किसी संस्था को "स्थापित" किया है: संस्था बनाने में प्रमुख भूमिका, अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की सेवा करना एवं संस्था के प्रशासन पर नियंत्रण बनाए रखना।
- अज़ीज़ बाशा मामले में दिए गए निर्णय में अल्पसंख्यकों को विश्वविद्यालय स्थापित करने से स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं किया गया है, लेकिन विधायी मंशा एवं सांविधिक प्रावधानों के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।
- विधायिका द्वारा "स्थापित करना एवं शामिल करना" जैसे शब्दों का उपयोग निर्णायक रूप से यह निर्धारित नहीं करता है कि संस्था अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित की गई थी या नहीं।
- अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान करता है, लेकिन यह निरपेक्ष नहीं है तथा इसे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता
- अपीलकर्त्ताओं का यह दावा कि AMU संविधान के अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत संरक्षित अल्पसंख्यक संस्थान है, टिक नहीं सकता।
- AMU की स्थापना न तो किसी धार्मिक समुदाय द्वारा की गई थी तथा न ही इसका प्रशासन किसी ऐसे धार्मिक समुदाय द्वारा किया जाता है जिसे अल्पसंख्यक माना जाता है।
- इसलिये, AMU निर्धारित मानदंडों के अंतर्गत अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में योग्य नहीं है।
- इस प्रकार अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को उपलब्ध संरक्षण AMU पर लागू नहीं होता।
- न्यायालय में किए गए संदर्भों के लिये उत्तर की आवश्यकता नहीं है, तथा यह घोषित किया जाता है कि AMU अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है।
- इसलिये AMU के लिये अल्पसंख्यक दर्जे की मांग करने वाली अपीलें खारिज होनी चाहिये।
निष्कर्ष
न्यायालय ने अज़ीज़ बाशा के इस विचार को खारिज कर दिया कि यदि कोई संस्था संविधि के माध्यम से सांविधिक चरित्र प्राप्त करती है तो वह अल्पसंख्यक का दर्ज़ा खो देती है। इसने स्थापित किया कि अल्पसंख्यक का दर्ज़ा निर्धारित करने के लिये सिर्फ़ सांविधिक भाषा के बजाय संस्था के स्थापना इतिहास, उद्देश्य एवं प्रशासनिक ढाँचे की जाँच करना आवश्यक है। इस निर्णय में निर्धारित सिद्धांत AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का निर्धारण करने में नियमित पीठ का मार्गदर्शन करेंगे। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि निर्णय इस बात पर ज़ोर देता है कि अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत अधिकार का निर्वचन औपचारिक निर्वचन के बजाय वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर की जानी चाहिये।