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सांविधानिक विधि

अनुच्छेद 200 – वीटो पॉवर

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 10-Apr-2025

स्रोत: - द इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय 

अप्रैल 2025 में, उच्चतम न्यायालय ने विधायी प्रक्रिया में राज्यपालों की संवैधानिक भूमिका के विषय में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। यह मामला तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के 10 विधेयकों के संबंध में की गई कार्यवाही पर केंद्रित था, जो उनके पास जनवरी 2020 से लंबित थे। न्यायालय ने इन विधेयकों को प्रभावी रूप से स्वीकृति प्रदान करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग किया, साथ ही राज्यपालों के लिये अपनी विधि निर्माण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये स्पष्ट समयसीमा भी निर्धारित की।

  • यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 200 के निर्वचन को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है तथा भारत के संघीय ढाँचे में राज्य विधानसभाओं एवं राज्यपालों के बीच संबंधों को पुनः परिभाषित करता है।

तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल एवं अन्य तथा कुलपति एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

पृष्ठभूमि: 

  • उच्चतम न्यायालय का निर्णय तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के पास लंबित 10 विधेयकों पर केंद्रित था, जिनमें से कुछ जनवरी 2020 से लंबित थे। 
  • राज्यपाल द्वारा बिना कारण बताए स्वीकृति रोके रखने के बाद, तमिलनाडु विधानसभा ने इन विधेयकों को फिर से अधिनियमित किया। 
  • राज्यपाल ने पुनः अधिनियमित विधेयकों को स्वीकृति देने के बजाय उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिये सुरक्षित रख लिया, विशेष रूप से पंजाब के राज्यपाल के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयकों पर रोक नहीं लगा सकते। 
  • तमिलनाडु सरकार ने इन कार्यवाहियों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन किया तथा राज्य विधायिका के अधिकार को कमजोर किया।

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की टिप्पणियाँ:

  • संवैधानिक ढाँचा: न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 200 का निर्वचन किया, जो विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका से संबंधित है। इसने निर्धारित किया कि राज्यपाल के कार्यों के लिये कोई स्पष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन पहले प्रावधान में "जितनी जल्दी हो सके" वाक्यांश का तात्पर्य है कि निर्णय शीघ्रता से लिये जाने चाहिये।
  • कोई पॉकेट या पूर्ण वीटो नहीं: निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संवैधानिक योजना के अंतर्गत न तो "पॉकेट वीटो" (अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोके रखना) तथा न ही "पूर्ण वीटो" (विधायिका को वापस किये बिना विधेयकों को अस्वीकार करना) स्वीकार्य है।
  • पुनः अधिनियमित विधेयक: न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब राज्यपाल द्वारा लौटाए जाने के बाद राज्य विधानसभा द्वारा विधेयकों को पुनः अधिनियमित किया जाता है, तो राज्यपाल को निर्दिष्ट समय सीमा के अंदर स्वीकृति देनी चाहिये तथा उन्हें दूसरे दौर में राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित नहीं किया जा सकता है।
  • राज्यपाल का विवेकाधिकार: पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास आम तौर पर इन मामलों में विवेकाधिकार नहीं होता है तथा उन्हें मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह पर कार्य करना चाहिये। अनुच्छेद 200 को अपनाते समय भारत सरकार अधिनियम, 1935 से "अपने विवेकाधिकार से" वाक्यांश को हटाने को इस आशय के साक्ष्य के रूप में उद्धृत किया गया था।
  • सद्भावना संबंधी चिंताएँ: न्यायालय ने पाया कि राज्यपाल रवि ने सद्भावनापूर्वक कार्य नहीं किया था, यह देखते हुए कि उन्होंने विधानमंडल को कारण बताए बिना अपनी सहमति रोक ली थी तथा पंजाब राज्यपाल के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के तुरंत बाद अचानक राष्ट्रपति के लिये पुनः अधिनियमित विधेयकों को आरक्षित कर दिया था। 

इस मामले में तमिलनाडु के राज्यपाल के संबंध में न्यायालय ने क्या निर्णय दिया?

  • उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल रवि द्वारा 10 विधेयकों को स्वीकृति न देने तथा उसके बाद राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करने को "विधिक रूप से अवैध तथा त्रुटिपूर्ण" घोषित किया। 
  • न्यायालय ने पाया कि राज्यपाल ने "सद्भावपूर्वक कार्य नहीं किया" जब उन्होंने विधानमंडल को कारण बताए बिना स्वीकृति रोक दी तथा जब उन्होंने पंजाब के राज्यपाल के निर्णय के ठीक बाद पुनः अधिनियमित विधेयकों को राष्ट्रपति के लिये आरक्षित कर दिया। 
  • निर्णय में कहा गया कि राज्यपाल रवि ने विधेयकों को "अनावश्यक रूप से लंबे समय तक" लंबित रखा, जिनमें से कुछ विधेयक जनवरी 2020 तक के थे। 
  • न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए घोषित किया कि सभी 10 विधेयकों को राज्यपाल द्वारा "स्वीकृत माना जाएगा"।
  • इन विधेयकों के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए किसी भी कदम को "विधिविरुद्ध" (विधिक रूप से शून्य) घोषित किया गया और उसे रद्द कर दिया गया।
  • निर्णय में चेतावनी दी गई कि राज्यपाल को "राजनीतिक उद्देश्यों के लिये लोगों की इच्छा को विफल करने और तोड़ने के लिये राज्य विधानमंडल में अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिये या उसे दबाना नहीं चाहिये।"
  • न्यायालय ने चेतावनी दी कि राज्य विधानमंडल की स्पष्ट पसंद के विपरीत कोई भी कार्यवाही राज्यपाल द्वारा ली गई "संवैधानिक शपथ से विमुख होना" होगी। 

उच्चतम न्यायालय के निर्णय में किन मामलों का उल्लेख किया गया है?

  • शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974):
    • निर्णय में 1974 के इस ऐतिहासिक निर्णय का उदाहरण दिया गया, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल नियम के तौर पर मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से बंधे होते हैं और अपवाद के तौर पर ही विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं। 
    • न्यायालय ने कहा कि बी.के. पवित्रा मामले में लिया गया निर्णय "शमशेर सिंह मामले में इस न्यायालय की बड़ी पीठ के निर्णय में की गई टिप्पणियों के अनुरूप नहीं है।"
  • पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रधान सचिव (2023):
    • पंजाब के राज्यपाल द्वारा बजट सत्र बुलाने से मना करने के मामले का हाल ही में बार-बार उल्लेख किया गया। न्यायालय ने कहा कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने इस निर्णय के तुरंत बाद विधेयकों को राष्ट्रपति के लिये सुरक्षित रख लिया था।
    • इस निर्णय ने स्थापित किया था कि "राज्यपाल पूर्ण वीटो का प्रयोग नहीं कर सकते तथा विधेयकों पर हमेशा के लिये नहीं बैठ सकते तथा उन्हें इसे राज्य विधानमंडल को वापस करना होगा।"
  • रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006):
    • दस्तावेजों में इस मामले का उल्लेख इस प्रकार किया गया कि राज्यपाल की व्यक्तिगत राय राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार नहीं हो सकती।
  • नबाम रेबिया एवं बामंग फेलिक्स बनाम उपसभापति (2016):
    • अरुणाचल प्रदेश विधानसभा मामले में संविधान पीठ के इस निर्णय का संदर्भ देते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया कि सदन को बुलाने की शक्ति केवल राज्यपाल में निहित नहीं है।
  • बी.के. पवित्रा बनाम भारत संघ (2020):
    • न्यायालय ने इस निर्णय में अनुपात से विशेष रूप से असहमति जताई थी, जिसमें कहा गया था कि संविधान राज्यपाल को राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयकों को आरक्षित करने का विवेकाधिकार देता है। वर्तमान निर्णय ने बी.के. पवित्रा निर्णय के इस पहलू को खारिज कर दिया।
  • पेरारिवलन बनाम तमिलनाडु राज्य (2020):
    • न्यायालय ने इस मामले से समर्थन प्राप्त करते हुए कहा कि जब किसी कार्यवाही के लिये कोई स्पष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की जाती है, तो उसे उचित समय के अंदर ही निष्पादित किया जाना चाहिये।
  • भारत संघ बनाम वल्लूरी बसवैया चौधरी (1979):
    • इस मामले का संदर्भ अनुच्छेद 200 के प्रथम प्रावधान के निर्वचन के संबंध में दिया गया था, जिसमें न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि इस मामले में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "यह दर्शाती है कि एक बार राज्यपाल द्वारा स्वीकृति न देने की घोषणा करने तथा विधेयक को सदन या सदनों को लौटा देने के पश्चात, विधेयक तब तक निरस्त हो जाएगा या गिर जाएगा जब तक कि सदन या सदन विधेयक पर पुनर्विचार न कर लें।" 
    • इन उदाहरणों ने सामूहिक रूप से न्यायालय को राज्यपालीय शक्तियों की सीमाओं तथा संविधान के अनुच्छेद 200 के उचित निर्वचन पर अपना रुख स्थापित करने में सहायता की।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 क्या है?

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों से संबंधित है। इस अनुच्छेद के अनुसार, जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं:
    • विधेयक को स्वीकृति प्रदान करना
    • स्वीकृति रोक लेना
    • विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना
  • अनुच्छेद 200 के पहले उपबंध में यह प्रावधानित किया गया है कि यदि राज्यपाल स्वीकृति रोक लेता है, तो उसे "जितनी जल्दी हो सके" विधेयक को पुनर्विचार के अनुरोध वाले संदेश के साथ विधानमंडल को वापस कर देना चाहिये। यदि विधानमंडल संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के विधेयक को फिर से पारित करता है और राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करता है, तो राज्यपाल "उस पर स्वीकृति नहीं रोकेंगे।"

निर्णय में अनुच्छेद 200 का निर्वचन क्या है?

  • राज्यपाल के पास उपलब्ध तीन विकल्प:
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को तीन कार्यों (स्वीकृति, रोक, या राष्ट्रपति के लिये आरक्षित) में से एक चुनना होगा तथा वह अनिश्चित काल तक विधेयकों को नहीं रोक सकते। निर्णय में कहा गया: "अनुच्छेद 200 का मूल भाग साशय 'घोषणा करेगा' अभिव्यक्ति का उपयोग करता है जो दर्शाता है कि निष्क्रियता की कोई संभावना नहीं है।"
  • कार्यवाही के समय पर:
    • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि अनुच्छेद 200 में "जितनी जल्दी हो सके" अभिव्यक्ति में तात्कालिकता की भावना निहित है: "'जितनी जल्दी हो सके' अभिव्यक्ति अनुच्छेद 200 में समीचीनता की भावना से व्याप्त है तथा राज्यपाल को विधेयकों को रोकने और उन पर पॉकेट वीटो का प्रयोग करने की अनुमति नहीं देती है।"
  • सहमति रोक देने पर:
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि सहमति रोकना एक स्वतंत्र शक्ति नहीं है तथा इसे विधेयक को विधानमंडल को वापस भेजने के दायित्व के साथ पढ़ा जाना चाहिये: "अनुच्छेद 200 के प्रथम प्रावधान को अनुच्छेद 200 के मूल भाग में दिये गए सहमति रोकने के विकल्प के साथ पढ़ा जाना चाहिये। यह कार्यवाही का एक स्वतंत्र तरीका नहीं है।"
  • राष्ट्रपति के लिये आरक्षित करने पर:
    • निर्णय में यह स्थापित किया गया कि विधेयक को केवल प्रथम बार ही राष्ट्रपति के लिये आरक्षित किया जा सकता है: "सामान्य नियम के अनुसार, राज्यपाल के लिये यह अधिकार नहीं है कि वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित करे, जब वह पहले सदन में वापस भेजे जाने के बाद दूसरे दौर में उसके समक्ष प्रस्तुत किया गया हो।"
  • राज्यपाल के विवेक पर:
    • न्यायालय ने अनुच्छेद 200 को अपनाते समय भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 75 से "अपने विवेक से" वाक्यांश को हटाने को महत्त्वपूर्ण माना: "भारत सरकार अधिनियम, 1935 को संविधान के अनुच्छेद 200 के रूप में अपनाए जाने के समय इसकी धारा 75 से "अपने विवेक से" वाक्यांश को हटाना स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि विधेयकों के आरक्षण के संबंध में राज्यपाल को अधिनियम 1935 के अंतर्गत उपलब्ध कोई भी विवेकाधिकार संविधान के प्रारंभ के साथ अनुपलब्ध हो गया।"
  • पुनः अधिनियमित विधेयकों पर:
    • निर्णय में इस तथ्य पर बल दिया गया कि जब राज्यपाल द्वारा लौटाए जाने के बाद विधेयक विधानमंडल द्वारा पुनः अधिनियमित किये जाते हैं, तो संविधान यह अनिवार्य करता है कि राज्यपाल को स्वीकृति प्रदान करनी चाहिये: "पहले उपबंध में 'उनकी स्वीकृति नहीं रोकेगा' अभिव्यक्ति का प्रयोग राज्यपाल पर स्पष्ट प्रतिबंध लगाता है तथा इस आवश्यकता पर स्पष्ट घोषणा करता है कि राज्यपाल को पहले प्रावधान में निर्धारित प्रावधानों का अनुपालन करने के बाद उनके समक्ष प्रस्तुत विधेयकों को स्वीकार करना चाहिये।" 
    • न्यायालय के निर्वचन ने अनुच्छेद 200 में संभावित त्रुटियों को निश्चित रूप से समाप्त कर दिया, यह स्थापित करते हुए कि राज्यपाल विधेयकों पर निर्णय अनिश्चित काल तक विलंबित नहीं कर सकते, पूर्ण वीटो पॉवर का प्रयोग नहीं कर सकते, तथा उन्हें निर्वाचित विधानमंडल की इच्छा का सम्मान करना चाहिये, विशेष रूप से तब जब वह विधेयकों को पुनः अधिनियमित करके अपनी स्थिति की पुष्टि करता है।

निष्कर्ष 

उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भारत के संवैधानिक न्यायशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण विकास का प्रतिनिधित्व करता है, विशेष रूप से राज्य सरकारों एवं केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच शक्ति संतुलन के संबंध में। राज्यपाल की कार्यवाहियों के लिये विशिष्ट समयसीमा निर्धारित करके तथा विधायी प्रक्रिया में बाधा डालने की राज्यपाल की क्षमता को सीमित करके, न्यायालय ने भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे में निर्वाचित विधायिकाओं की प्रधानता को सुदृढ़ किया है। यह निर्णय एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि संवैधानिक प्राधिकारियों को "संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के प्रति उचित सम्मान" के साथ कार्य करना चाहिये तथा अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त लोगों की इच्छा का सम्मान करना चाहिये। जैसा कि न्यायमूर्ति पारदीवाला ने निर्णय के निष्कर्ष में डॉ. बी.आर. अंबेडकर को उद्धृत किया: "संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा सिद्ध होगा।"