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सांविधानिक विधि

ध्वनि प्रदूषण पर बॉम्बे उच्च न्यायालय का दिशानिर्देश

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 29-Jan-2025

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस  

परिचय

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने जनवरी 2025 में धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के प्रयोग के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें मुंबई के नेहरू नगर, कुर्ला (पूर्व) एवं चूनाभट्टी क्षेत्रों के निवासी संघों द्वारा संस्थित याचिका पर विचार किया गया। इस निर्णय में कहा गया है कि लाउडस्पीकर का उपयोग करना एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है तथा धार्मिक स्थलों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण से निपटने के लिये व्यापक दिशा-निर्देश दिये गए हैं। इस मामले में शहरी क्षेत्रों, विशेषकर मुंबई जैसे महानगरीय शहर में धार्मिक प्रथाओं एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के बीच संवेदनशील संतुलन का अवलोकन किया गया।

जागो नेहरू नगर रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन बनाम पुलिस कमिश्नर, (2025) की पृष्ठभूमि एवं न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • यह मामला मुंबई के नेहरू नगर, कुर्ला (पूर्व) एवं चूनाभट्टी क्षेत्रों के निवासी संघों द्वारा संस्थित याचिकाओं से संबंधित था, जिसमें विशेष रूप से मस्जिदों एवं मदरसों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को लक्षित किया गया था। 
  • नवंबर 2023 में प्रस्तुत पुलिस शपथपत्रों में कुर्ला की दो मस्जिदों में अत्यधिक शोर के स्तर का दस्तावेजीकरण किया गया था, जो 79.4 एवं 98.7 डेसिबल मापे गए थे, जो दिन के दौरान 55 डेसिबल एवं रात में 45 डेसिबल की विधिक सीमाओं से काफी अधिक थे। 
  • न्यायालय ने मुंबई की स्थिति को एक महानगरीय शहर के रूप में मान्यता दी, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते हैं, जिससे शोर विनियमन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने शोर को एक "बड़ी स्वास्थ्य समस्या" के रूप में माना है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं कल्याण के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। 
  • पीठ ने पाया कि नागरिक आमतौर पर तब तक शिकायत दर्ज नहीं करते हैं जब तक कि स्थिति "असहनीय एवं परेशानी वाली" न हो जाए, जिससे पता चलता है कि जब शिकायत की जाती है तो समस्या कितनी गंभीर होती है। 
  • न्यायालय ने कहा कि अलग-अलग लाउडस्पीकर के शोर के स्तर को मापना पर्याप्त नहीं है; इसके अतिरिक्त, किसी निश्चित समय पर उपयोग में आने वाले सभी लाउडस्पीकरों के संचयी ध्वनि स्तर पर विचार किया जाना चाहिये।
  • न्यायाधीशों ने ध्वनि प्रदूषण के संबंध में पिछले न्यायालय के आदेशों का "साशय अतिलंघन" देखा, जो गैर-अनुपालन के पैटर्न को दर्शाता है। 
  • न्यायालय ने विधि प्रवर्तन अधिकारियों की आलोचना की कि वे कार्यवाही करने के बजाय इन अतिलंघनों के प्रति "विनम्र या मूक दर्शक" बने रहे। 
  • पीठ ने कहा कि वर्तमान में प्रतिदिन 5,000 रुपये का अर्थदण्ड (जो संभावित रूप से प्रतिवर्ष 18,25,000 रुपये तक पहुँच सकता है) अतिलंघनकर्त्ताओं के लिये पर्याप्त निवारक नहीं हो सकता है।
  • न्यायालय ने पाया कि धार्मिक संस्थाएँ शोर के उल्लंघन को "अधिकार के रूप में" मान रही हैं, जबकि शिकायतकर्त्ता "बेबस और असहाय पीड़ित" बने हुए हैं। 
  • न्यायाधीशों ने कहा कि लोकतांत्रिक राज्य में भी कोई व्यक्ति या समूह यह दावा नहीं कर सकता कि वे देश के विधि का पालन नहीं करेंगे। 
  • न्यायालय ने कहा कि कोविड-19 लॉकडाउन के बाद, कुछ धार्मिक संस्थाओं को सशर्त रूप से लाउडस्पीकर का उपयोग करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन वे डेसिबल सीमा का उल्लंघन करना जारी रखते हैं।

डॉ. महेश विजय बेडेकर बनाम महाराष्ट्र (2016) (पूर्व मामले) की पृष्ठभूमि एवं न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • वर्ष 2016 के मामले (डॉ. महेश विजय बेडेकर बनाम महाराष्ट्र) ने ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियमों के सख्त कार्यान्वयन का निर्देश देकर और शोर विनियमन के लिये मूलभूत सिद्धांतों की स्थापना करके एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया। 
  • वर्ष 2016 के निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि "लाउडस्पीकर का उपयोग किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है," जिसने भविष्य के मामलों के लिये एक स्पष्ट विधिक उदाहरण प्रस्तुत किया। 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि धर्म की परवाह किये बिना पूजा स्थल ध्वनि प्रदूषण के अतिलंघन के लिये दण्ड से छूट का दावा नहीं कर सकते।
  • इस निर्णय में स्पष्ट किया गया कि लाउडस्पीकर का उपयोग करना अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) या अनुच्छेद 19 (1) (a) (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के अंतर्गत मौलिक अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है।
  • न्यायालय ने विशेष अवसरों के लिये सीमित अपवादों के साथ रात 10 बजे से सुबह 6 बजे के बीच लाउडस्पीकर के उपयोग पर प्रतिबंध लगाते हुए विशिष्ट समय प्रतिबंध निर्धारित किये।
  • वर्ष 2016 के निर्णय ने राज्य सरकारों को प्रति कैलेंडर वर्ष में अधिकतम 15 दिनों के लिये सांस्कृतिक या धार्मिक अवसरों के दौरान रात 10 बजे से आधी रात के बीच लाउडस्पीकर के उपयोग की अनुमति दी।
  • इस निर्णय में शांत क्षेत्रों की स्पष्ट परिभाषा स्थापित की गई, स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों, धार्मिक स्थलों एवं न्यायालयों के 100 मीटर के अंदर के क्षेत्रों को साइलेंस जोन के रूप में चिह्नित किया गया। 
  • रात के समय विशेष संचार के लिये ऑडिटोरियम, कॉन्फ्रेंस रूम, कम्युनिटी हॉल और बैंक्वेट हॉल जैसे बंद परिसरों के लिये अपवाद दिये गए।
  • न्यायालय ने सार्वजनिक आपात स्थितियों के लिये विशेष प्रावधान किये, जिससे वास्तविक सार्वजनिक आपात स्थितियों के मामलों में सामान्य नियमों में अपवादों की अनुमति मिली।
  • इस निर्णय में हर समय साइलेंस जोन में तथा रात के समय आवासीय क्षेत्रों में हॉर्न के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया।
  • यह मामला 2025 के निर्णय के लिये संदर्भ बिंदु बन गया, जिसमें नए निर्णय ने इन स्थापित सिद्धांतों को और सशक्त किया तथा अधिक विशिष्ट कार्यान्वयन दिशा-निर्देश जोड़े।
  • वर्ष 2016 के मामले में धार्मिक प्रथाओं एवं सार्वजनिक कल्याण के बीच संतुलन की आवश्यकता पर ध्यान दिया गया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया कि शोर के स्तर पर उचित प्रतिबंध धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं।

विधिक प्रावधान एवं संवैधानिक पहलू क्या हैं?

संवैधानिक ढाँचा

  • अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता):
    • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि लाउडस्पीकर का उपयोग धार्मिक स्वतंत्रता के अंतर्गत संरक्षित नहीं है। 
    • आवश्यक एवं अनावश्यक धार्मिक प्रथाओं के बीच अंतर किया। 
    • स्थापित किया कि शोर विनियमन धार्मिक अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करता है।
  • अनुच्छेद 19(1)(a) (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता):
    • निर्णय दिया कि लाउडस्पीकर का उपयोग मौलिक अधिकार नहीं है
    • सार्वजनिक हित के विरुद्ध मुक्त भाषण के अधिकारों को संतुलित किया गया
    • अभिनिर्धारित किया गया कि शोर विनियमन अभिव्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं

सांविधिक शर्तें

  • ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम, 2000:
    • अधिकतम शोर स्तर निर्धारित करना: आवासीय क्षेत्रों में 55 डेसिबल (दिन में) 
    • 45 डेसिबल (रात में) शोर के स्तर को मापने एवं निगरानी के लिये ढाँचा स्थापित किया जाना 
    • प्रवर्तन कार्यवाहियों के लिये आधार प्रदान किया जाना 
  • महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, 1960:
    • धारा 38: पुलिस को संगीत, ध्वनि या शोर रोकने का अधिकार देता है। 
    • धारा 70: लाउडस्पीकर एवं एम्पलीफायर जब्त करने की अनुमति देता है। 
    • धारा 136: अर्थदण्ड लगाने का प्रावधान करता है।

उच्च न्यायालय के निर्देश क्या थे?

  • न्यायालय ने एक श्रेणीबद्ध दण्ड प्रणाली स्थापित की, जिसमें पहली बार उल्लंघन करने वालों के लिये चेतावनी, उसके बाद लगातार उल्लंघन करने वालों के लिये अर्थदण्ड एवं अंततः उपकरणों की जब्ती और लगातार गैर-अनुपालन के लिये लाइसेंस रद्द करने की अनुमति दी गई। 
  • पीठ ने निर्देश दिया कि पुलिस को शिकायतकर्त्ता की पहचान किये बिना ध्वनि प्रदूषण की शिकायतों को संभालना चाहिये ताकि उन्हें संभावित उत्पीड़न या "दुर्भावना और घृणा विकसित होने" से बचाया जा सके।
  • उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह किसी भी धार्मिक स्थल पर प्रयोग किये जाने वाले लाउडस्पीकरों और अन्य ध्वनि-उत्सर्जक उपकरणों में डेसिबल स्तर को नियंत्रित करने के लिये एक अंतर्निहित तंत्र विकसित करे, विशेष रूप से डेसिबल सीमाओं के "अंशांकन या ऑटो-फिक्सेशन" के माध्यम से। 
  • मुंबई पुलिस आयुक्त को विशेष रूप से यह सुनिश्चित करने के लिये निर्देशित किया गया था कि पुलिस अधिकारी उल्लंघन की सटीक जाँच करने के लिये डेसिबल स्तर मापने वाले मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग करें।
  • अतिलंघनों को मापने के लिये, न्यायालय ने निर्दिष्ट किया कि पुलिस को अलग-अलग उपकरणों को मापने के बजाय, किसी विशेष समय में उपयोग में आने वाले सभी लाउडस्पीकरों के संचयी ध्वनि स्तर पर विचार करना चाहिये। 
  • पीठ ने अनधिकृत लाउडस्पीकरों के लिये एक व्यापक ट्रैकिंग सिस्टम बनाने का आदेश दिया, जिसमें बिना अनुमति के प्रयोग किये जा रहे 2,940 लाउडस्पीकरों के विरुद्ध की गई कार्यवाही के विषय में सूचना मांगी गई।
  • न्यायालय ने धार्मिक संस्थाओं को निर्देश दिया कि वे किसी भी ध्वनि प्रवर्धन उपकरण का उपयोग करने से पहले उचित अनुमति प्राप्त करें तथा दिन में 55 डेसिबल तथा रात में 45 डेसिबल की अनुमत डेसिबल सीमा का सख्ती से पालन करें।
  • धार्मिक ट्रस्टों तथा संगठनों को सीधे जवाबदेह बनाया गया तथा न्यायालय ने निर्देश दिया कि उल्लंघन के मामलों में ट्रस्टियों तथा प्रबंधकों से अर्थदण्ड वसूला जाना चाहिये।
  • उच्च न्यायालय ने अनुपालन की नियमित निगरानी तथा रिपोर्टिंग को अनिवार्य किया, तथा भविष्य की न्यायालयीय सुनवाई के माध्यम से कार्यान्वयन की आवधिक समीक्षा के लिये एक प्रणाली स्थापित की, जिसकी अगली सुनवाई 18 मार्च को निर्धारित की गई है।

निष्कर्ष

बॉम्बे उच्च न्यायालय का निर्णय संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करते हुए धार्मिक स्थलों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को संबोधित करने में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। स्पष्ट दिशा-निर्देश, प्रवर्तन प्रोटोकॉल और एक क्रमिक दण्ड प्रणाली स्थापित करके, न्यायालय ने एक ऐसा ढाँचा तैयार किया है जो धार्मिक प्रथाओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ संतुलित करता है। तकनीकी समाधानों और व्यवस्थित प्रवर्तन तंत्रों पर निर्णय का जोर एक संवेदनशील मुद्दे के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह निर्णय पूरे भारत में इसी तरह के मामलों के लिये एक उदाहरण सिद्ध होता है तथा शहरी धार्मिक स्थलों में ध्वनि प्रदूषण के प्रबंधन के लिये एक मॉडल प्रदान करता है।