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सांविधानिक विधि

एक राष्ट्र, एक चुनाव की चुनौतियाँ

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 23-Sep-2024

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

हाल ही में भारत सरकार ने "एक राष्ट्र, एक चुनाव" के प्रस्ताव को स्वीकृति दी है, जिसका उद्देश्य एक ही समय में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय चुनाव आयोजित कराना है। यह विचार, जिसे प्रथम बार 2017 में प्रस्तावित किया गया था, अब पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा की गई अनुशंसाओं के बाद आगे बढ़ रहा है। प्रस्ताव में दो-चरणीय प्रक्रिया का सुझाव दिया गया है: पहला, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय चुनाव एक साथ कराना, फिर 100 दिनों के भीतर स्थानीय स्तर के चुनाव आयोजित कराना। यह परिवर्तन भारत में लोकतंत्र के काम करने के तरीके को विशेष रूप से प्रभावित कर सकता है।

एक साथ चुनाव कराने की क्या हानियाँ हैं?

  • संवैधानिक ढाँचे का उल्लंघन
    • एक साथ चुनाव कराने से भारतीय संविधान के मूल संघीय ढाँचे का उल्लंघन हो सकता है।
    • संविधान में संघ और राज्यों के लिये अलग-अलग और स्वतंत्र चुनावी चक्रों की परिकल्पना की गई है, जिसमें संघीय ढाँचे के भीतर उनकी स्वायत्तता का सम्मान किया गया है।
  • चुनाव आयोग के अधिकार का उल्लंघन:
    • यह प्रस्ताव भारतीय चुनाव आयोग (ECI) को अनदेखा करता हुआ प्रतीत होता है, जो एक संवैधानिक निकाय है जिसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्व सौंपा गया है। संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनावों का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण ECI को सौंपा गया है।
    • चुनावी प्रक्रिया में मूलभूत परिवर्तनों पर सरकार द्वारा नियुक्त समिति द्वारा निर्णय लेना, चुनाव आयोग के संवैधानिक अधिदेश का उल्लंघन हो सकता है।
  • मूल संरचना सिद्धांत का संभावित उल्लंघन:
    • उच्चतम न्यायालय के "मूल संरचना सिद्धांत" में कहा गया है कि संविधान की कुछ विशेषताओं को संविधान संशोधन द्वारा भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
    • स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव इस मूल संरचना का भाग माने जाते हैं।
    • एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया को भारतीय लोकतंत्र के इस मूलभूत पहलू में परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है।
  • अनुच्छेद 172 संशोधन से संबंधित मुद्दे:
    • इस प्रस्ताव में सुझाव दिया गया है कि अनुच्छेद 172 (राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल के संबंध में) में संशोधन राज्य की स्वीकृति के बिना किया जा सकता है।
    • इसे संघवाद के सिद्धांत और अनुच्छेद 368 के अधीन संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी जा सकती है।
  • दलबदल विरोधी विधान से टकराव:
    • यदि प्रस्ताव के सुझाव के अनुसार "अनिश्चित अवधि" के लिये सरकारें गठित की जाती हैं, तो संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत दलबदल विरोधी प्रावधानों से समझौता किया जा सकता है।
    • इससे राजनीतिक अस्थिरता तथा जन प्रतिनिधियों के मतों का क्रय-विक्रय बढ़ सकता है।
  • राष्ट्रपति की शक्तियों में कटौती:
    • यह प्रस्ताव अनुच्छेद 85 के अंतर्गत प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा को भंग करने की राष्ट्रपति की शक्ति को सीमित कर सकता है, जिससे कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्ति संतुलन में संभावित रूप से परिवर्तन आ सकता है।
  • राज्य की स्वायत्तता पर प्रभाव:
    • राज्यों को अपने चुनावी चक्र को राष्ट्रीय चुनावों के साथ संरेखित करने के लिये बाध्य करना राज्य की स्वायत्तता पर अतिक्रमण के रूप में देखा जा सकता है, जो संविधान के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत संरक्षित भारत के संघीय ढाँचे की एक प्रमुख विशेषता है।
  • अनुच्छेद 83 तथा 172 के साथ संघर्ष:
    • प्रस्ताव में अनुच्छेद 83 और 172 में महत्त्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता हो सकती है, जो क्रमशः संसद और राज्य विधानमंडलों के सदनों की अवधि को परिभाषित करते हैं।
    • ऐसे संशोधन पृथक निर्वाचन चक्रों के संवैधानिक स्वरूप को मौलिक रूप से परिवर्तित कर सकते हैं।
  • अनुच्छेद 14 का संभावित उल्लंघन:
    • केवल "अनिश्चित अवधि" के लिये मध्यावधि चुनाव के प्रस्ताव को अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के अंतर्गत चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि यह अलग-अलग कार्यकाल वाली निर्वाचित सरकारों की विभिन्न श्रेणियाँ बनाता है।
  • स्थानीय निकाय चुनावों की चुनौतियाँ:
    • राष्ट्रीय और राज्य चुनावों के 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव कराने का सुझाव, स्थानीय निकायों को नियंत्रित करने वाले राज्य विधानों के साथ टकराव उत्पन्न कर सकता है और इसे सत्ता के केंद्रीकरण के रूप में भी देखा जा सकता है, जो 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों के विपरीत है, जो स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाते हैं।

एक राष्ट्र एक चुनाव के लिये संविधान के कौन-से अनुच्छेद संशोधित किये जा रहे हैं?

  • अनुच्छेद 83(2):
    • चुनाव चक्रों के समन्वयन को सुगम बनाने के लिये संसद के दोनों सदनों, विशेषकर लोक सभा की अवधि में संशोधन की आवश्यकता है।
  • अनुच्छेद 172(1):
    • राज्य विधानमंडलों की अवधि में परिवर्तन करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्रीय चुनाव कार्यक्रम के साथ संरेखण हो सके।
  • अनुच्छेद 85:
    • राष्ट्रपति की लोकसभा को भंग करने की शक्ति को प्रतिबंधित करने के लिये संशोधन, ताकि एक साथ चुनावों के लिये आवश्यक निश्चित अवधि सुनिश्चित की जा सके।
  • अनुच्छेद 174:
    • राज्य विधान सभाओं को भंग करने तथा समन्वित चुनाव चक्र बनाए रखने की राज्यपाल की शक्ति को सीमित करने के लिये संशोधन।
  • अनुच्छेद 356:
    • राष्ट्रपति शासन लागू करके राज्य विधानसभाओं को समय से पहले भंग होने से रोकने के लिये संशोधन की आवश्यकता है, जिससे एक साथ चुनाव कार्यक्रम को संरक्षित किया जा सके।
  • अनुच्छेद 324:  
    • राष्ट्रीय और राज्य दोनों विधानमंडलों के लिये एक साथ चुनावों के संचालन और कार्यान्वयन को समायोजित करने के लिये संशोधन।
  • अनुच्छेद 325:
    • भारत के निर्वाचन आयोग के अधीन मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया को केंद्रीकृत करने के लिये एकल मतदाता सूची और एकल मतदाता फोटो पहचान पत्र स्थापित करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है।
  • अनुच्छेद 243K एवं 243ZA:
    • अनुच्छेद 325 में संशोधन से स्थानीय निकाय चुनावों के लिये मतदाता सूची तैयार करने में राज्य चुनाव आयोगों की भूमिका में संभावित रूप से परिवर्तन हो सकता है।
  • प्रस्तावित अनुच्छेद 324A:
    • लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के चुनावों के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर ग्राम पंचायतों और नगर पालिका चुनावों के लिये भी चुनाव कराने के लिये भी एक नया अनुच्छेद प्रस्तुत किया जाएगा।

एक राष्ट्र एक चुनाव पर प्रमुख अनुशंसाएँ क्या हैं?

  • संवैधानिक संशोधन:
    • लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये निश्चित कार्यकाल स्थापित करने तथा उनके विघटन के प्रावधानों को संशोधित करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन आवश्यक हैं।
  • समकालिक चुनाव चक्र:
    • एक चक्र में लोक सभा और लगभग आधे राज्य विधानसभाओं के चुनाव आयोजित करना।
    • शेष राज्य विधानसभाओं के लिये दूसरे चक्र में, लगभग ढाई वर्ष बाद चुनाव आयोजित करना।
  • अविश्वास प्रस्ताव प्रक्रिया में संशोधन:
    • यह अधिदेश दिया गया है कि लोकसभा या विधानसभा में किसी भी अविश्वास प्रस्ताव के साथ वैकल्पिक सरकार के गठन के लिये विश्वास प्रस्ताव भी होना चाहिये।
    • इसके लिये प्रासंगिक संसदीय प्रक्रियाओं और संभवतः संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी।
  • समय से पहले भंग हुए सदनों के लिये सीमित अवधि:
    • लोक सभा या राज्य विधानसभा के अपरिहार्य समयपूर्व विघटन की स्थिति में, नवगठित सदन केवल मूल सदन की शेष अवधि तक ही कार्य करेगा।
    • इसके लिये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 और संभवतः संविधान में संशोधन आवश्यक है।
  • उप-चुनाव समेकन:
    • सदस्यों की मृत्यु, त्यागपत्र या अयोग्यता के कारण आवश्यक उप-चुनावों को समेकित करना।
    • ये समेकित उप-चुनाव प्रतिवर्ष एक बार आयोजित किये जाएंगे।
    • इसके लिये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 और प्रासंगिक चुनाव नियमों में संशोधन की आवश्यकता है।
  • संक्रमणकालीन प्रावधान:
    • मौजूदा विधानसभाओं के कार्यकाल को कम करने या बढ़ाने के प्रावधानों को एक साथ चुनाव चक्रों के अनुरूप लागू करना।
    • इसके लिये विशिष्ट संवैधानिक संशोधनों और कार्यान्वयन विधियों में संक्रमणकालीन खंडों की आवश्यकता है।
  • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन:
    • नए चुनाव कार्यक्रम, सदनों की परिवर्तित अवधि तथा उप-चुनावों के लिये संशोधित प्रक्रियाओं को समायोजित करने के लिये अधिनियम को संशोधित किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष:

"एक राष्ट्र, एक चुनाव" योजना विवादास्पद है और इसे न्यायालय और संसद में चुनौती मिलने की संभावना है। आलोचकों को चिंता है कि इससे चुनावों की निष्पक्षता तथा भारत के संघीय ढाँचे पर प्रभाव पड़ सकता है। उनका तर्क है कि ऐसे परिवर्तनों को भारत के चुनाव आयोग को संभालना चाहिये, न कि किसी सरकारी समिति को। इस योजना पर चर्चा भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये महत्त्वपूर्ण होगी। राजनीतिक दलों और नागरिकों के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे भारत के विविधतापूर्ण लोकतंत्र पर इस प्रस्तावित परिवर्तन के प्रभावों पर सावधानीपूर्वक विचार करें।