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अंतर्राष्ट्रीय नियम

सीमा पार दिवालियापन

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 26-Sep-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में सीमा पार दिवालियापन से संबंधित विधियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, ये वैश्विक स्तर पर परिचालन करने वाली विधिक संस्थाओं को निश्चितता प्रदान कर उनके विकास में योगदान देती हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि पर संयुक्त राष्ट्र आयोग (UNCITRAL) 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही राष्ट्रों में इन विधियों को सुसंगत बनाने हेतु अपनी आदर्श विधि को प्रोत्साहित कर रहा है। हालाँकि इस आदर्श विधि को अनुपालन की प्रगति मंद रही है, अब तक केवल 60 देशों ने इसे कार्यान्वित किया है।

UNCITRAL क्या है?

  • संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 1966 में स्थापित UNCITRAL, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधियों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली का मुख्य विधिक निकाय है, जिसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि में हो रहे प्रगामी परिवर्तनों को समाविष्ट करते हुए एक एकीकृत रूपरेखा प्रदान करना है।
  • आयोग में 60 राज्यों के विविध सदस्य हैं, जिन्हें वैश्विक स्तर पर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, आर्थिक प्रणालियों और विधिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करने के लिये चुना गया है।
  • भारत UNCITRAL के केवल आठ संस्थापक सदस्यों में से एक के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है तथा आयोग की स्थापना के बाद से ही इसकी निरंतर सदस्यता बनाए रखी है।
  • UNCITRAL का कार्य आदर्श विधि, अभिसमय और विधायी मार्गदर्शिकाओं का निर्माण करना, साथ ही कार्य समूहों के मध्य संवाद को सुविधाजनक बनाना है तथा देशों को अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक और व्यापार विधि के सिद्धांतों को विकसित करने एवं अपनाने के लिये एक मूल्यवान मंच प्रदान करना है।
  • UNCITRAL की स्थापना इस मान्यता पर आधारित थी कि राज्यों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सहयोग मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने तथा वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण है।

सीमा पार दिवालियापन क्या है?

  • सीमा पार दिवालियापन, जिसे अंतर्राष्ट्रीय दिवालियापन भी कहा जाता है।
    • यह उन स्थितियों को संदर्भित करता है जहाँ एक दिवालिया देनदार के पास विभिन्न देशों के कई अधिकार क्षेत्रों में ऋण और/या देनदार होते हैं।
  • दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (IBC), ने भारत में घरेलू दिवाला प्रक्रियाओं को सुसंगत बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई है, लेकिन यह सीमा पार दिवाला कार्यवाही को विनियमित करने के लिये पर्याप्त प्रक्रियाएँ प्रदान नहीं करती है।
  • कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (MCA) ने सीमा पार दिवाला (ILC) पर अपनी दिवालियापन विधि समिति के माध्यम से IBC के कार्यान्वयन का मूल्यांकन किया है और पाया है कि भारत में वर्तमान दिवालियापन ढाँचा वैश्विक मानकों के अनुरूप नहीं है।
  • ILC ने वर्तमान दिवालियापन ढाँचे का पुनर्मूल्यांकन करने तथा भारत में सीमा पार दिवालियापन से संबंधित चिंताओं के समाधान के लिये सीमा पार दिवालियापन पर संयुक्त राष्ट्र आयोग के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विधि (UNCITRAL) (जोकि एक आदर्श विधि है), 1997 को अपनाने की अनुशंसा की है।
  • घरेलू दिवालियापन कार्यवाही में, एक दिवालिया वृत्तिक विभिन्न चरणों का प्रबंधन करता है, जैसे कि देनदार की आस्तियों और लेनदारों की पहचान करना तथा न्यायनिर्णयन प्राधिकरण से अनुमोदन के बाद प्राथमिकता नियमों के आधार पर दावों का परिनिर्धारण करना।

सीमा पार दिवालियापन के लिये आदर्श विधि क्या है?

  • UNCITRAL ने सीमा पार दिवालियापन को संबोधित करने के लिये चार स्तंभों पर आधारित  एक आदर्श विधि विकसित की है, ये चार स्तंभ हैं: पहुँच, मान्यता, सहयोग और समन्वय।
  • आदर्श विधि गैर-बाध्यकारी है, जिससे देशों को अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार इसके कार्यान्वयन के अनुपालन की अनुमति मिलती है।
  • रिपोर्ट की तिथि तक, केवल 60 देशों ने सीमा पार दिवालियापन पर UNCITRAL आदर्श विधि को कार्यान्वित किया है।

सीमा पार दिवालियापन के लिये आदर्श विधि पर भारत की स्थिति क्या है?

  • दिवालियापन विधि सुधार समिति ने 2016 में दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) का मसौदा तैयार करते समय UNCITRAL आदर्श विधि के संभावित लाभों को मान्यता दी थी।
  • भारत सरकार ने आदर्श विधि के लाभों को स्वीकार किया है, जैसा कि आर्थिक सर्वेक्षण 2022 में उल्लेख किया गया है।
  • समिति की सिफारिशों के बावजूद, भारत ने अभी तक सीमा पार दिवालियापन पर UNCITRAL आदर्श विधि को नहीं अपनाया है।
  • हालिया रिपोर्टों से ज्ञात होता है कि आदर्श विधि को अपनाने का निर्णय संभवतः फिर से स्थगित कर दिया गया है।
  • केंद्रीय बजट में प्रौद्योगिकी प्लेटफॉर्मों और न्यायिक बुनियादी ढाँचे के विस्तार के माध्यम से IBC की दक्षता में सुधार का समर्थन किया गया, लेकिन आदर्श विधि को अपनाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
  • वर्तमान में, भारत सीमा-पार दिवालियापन के लिये मामला-दर-मामला आधार पर द्विपक्षीय समझौतों की अनुमति देने वाले सीमित प्रावधानों पर निर्भर है, जिन्हें तदर्थ और अपर्याप्त माना जाता है।
  • भारत 54 से अधिक देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (FTA), व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते (CECA) और व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (CEPA) में सक्रिय रूप से शामिल रहा है, लेकिन इन समझौतों में आमतौर पर विस्तृत सीमा पार दिवालियापन प्रावधानों का अभाव होता है।
  • मुक्त व्यापार समझौते (FTA) और इसी तरह के व्यापार सौदे आम होते जा रहे हैं, लेकिन उनमें आमतौर पर सीमा पार दिवालियापन को संबोधित करने हेतु पर्याप्त नियम शामिल नहीं हैं।
    • यद्यपि इन समझौतों में जटिल व्यापार मुद्दों को शामिल किया जाना है, लेकिन इनमें ज़्यादातर सामान्य विवादों एवं व्यापार समाधानों के बारे में ही चर्चा की गई है
  • भारत अन्य देशों के साथ नए व्यापार समझौते कर रहा है हालाँकि इनमें दिवालियापन संबंधी नियम शामिल हो सकते हैं, लेकिन अभी ऐसा नहीं है।
    • यद्यपि विश्व व्यापार संगठन जैसे बड़े संगठन भी व्यापार के भविष्य पर चर्चा करते समय सीमा पार दिवालियापन के संबंध में विवेचना नहीं करते।
    • व्यापार समझौतों में दिवालियापन नियमों को शामिल करने से वे अधिक सुदृढ़ और उपयोगी बनेंगे, विशेष रूप से भारत जैसे देश के लिये, जो इस तरह के समझौतों में शामिल हो रहा है।
  • व्यापार और दिवालियापन के लिये ज़िम्मेदार सरकारी विभागों को विधिक विशेषज्ञों के साथ यह पता लगाना चाहिये कि इन नियमों को व्यापार समझौतों में कैसे शामिल किया जाए।

IBC, 2016 के अंतर्गत भारत में सीमा पार दिवालियापन को नियंत्रित करने वाले विधिक ढाँचे क्या हैं?

  • धारा 234 अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के साथ समझौतों से संबंधित है।
    • यह धारा भारत की केंद्र सरकार को दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता के प्रावधानों को लागू करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सरकारों के साथ समझौते करने का अधिकार देती है।
    • केंद्र सरकार राजपत्र में एक आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से, उन देशों में स्थित निगमित ऋणियों या व्यक्तिक प्रतिभूति दाताओं की आस्तियों या संपत्ति पर संहिता के प्रावधानों को लागू करने के लिये शर्तें निर्दिष्ट कर सकती है, जिनके साथ भारत के पारस्परिक करार (reciprocal arrangements) हैं।
    • यह प्रावधान दिवालियापन कार्यवाही में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की अनुमति देता है, जिससे सीमा पार दिवाला के  समाधान को सुविधाजनक बनाया जा सकता है।
  • धारा 235: कुछ मामलों में भारत से बाहर किसी देश को अनुरोध-पत्र।
    • दिवाला समाधान, समापन या शोधन अक्षमता कार्यवाहियों के दौरान, यदि समाधान वृत्तिक, समापक या शोधन अक्षमता न्यासी का यह मत है कि निगमित ऋणी या व्यक्तिक प्रतिभूति दाता की आस्तियाँ भारत के बाहर किसी ऐसे देश में स्थित हैं, जिसके साथ धारा 234 के तहत पारस्परिक करार किये गए हैं, तो वे कार्रवाई कर सकते हैं।
    • ऐसे मामलों में, कार्यवाही को सँभालने वाला वृत्तिक, न्यायनिर्णायक प्राधिकारी के समक्ष आवेदन कर सकता है, यदि चल रही कार्यवाही के लिये उन विदेशी आस्तियों से संबंधित साक्ष्य या कार्रवाई की आवश्यकता हो।
    • ऐसा आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायनिर्णायक प्राधिकारी को यह आकलन करना होगा कि विदेशी आस्तियों से संबंधित साक्ष्य या कार्रवाई वास्तव में दिवाला, समापन या शोधन अक्षमता कार्यवाही के लिये आवश्यक है या नहीं।
    • यदि आवश्यकता हो तो न्यायनिर्णायक प्राधिकारी को उस देश के सक्षम न्यायालय या प्राधिकारी को अनुरोध-पत्र जारी करने का अधिकार है जहाँ आस्तियाँ स्थित हैं।
    • यह प्रावधान विदेश में स्थित आस्तियों से संबंधित साक्ष्य जुटाने या कार्रवाई करने में अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सहायता प्राप्त करने के लिये एक तंत्र बनाता है, जो प्रभावी दिवाला समाधान के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
    • यह खंड पारस्परिक करार के महत्त्व पर ज़ोर देता है, इसे धारा 234 से जोड़ता है तथा सीमा पार दिवालियापन मामलों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता बताता है।

सीमा पार दिवालियापन पर निर्णयज विधियाँ:

  • जेट एयरवेज (इंडिया) लिमिटेड बनाम भारतीय स्टेट बैंक (2016):
    • जेट एयरवेज मामले में विभिन्न न्यायक्षेत्रों में आस्तियों, ऋणदाताओं और हितों की उपस्थिति के कारण सीमा पार दिवालियापन की जटिलताओं का उल्लेख किया गया है।
    • इसने भारत में और भारत से बाहर दिवालियापन कार्यवाहियों के बीच समन्वय को आवश्यक बना दिया, जिससे विभिन्न विधिक क्षेत्राधिकारों में विविध दिवालियापन प्रणालियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में चुनौतियों का पता चला।
    • इस मामले में वैश्विक परिचालन वाली कंपनियों के लिये दिवालियापन कार्यवाही के अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं के प्रबंधन हेतु एक ढाँचे के निर्माण की आवश्यकता बताई गई है।
  • वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड बनाम भारतीय स्टेट बैंक, 2018
    • यह मामला सीमा पार दिवालियापन की जटिलताओं का उदाहरण है, जब किसी कंपनी की सहायक कंपनियों एवं आस्तियों का विस्तार कई देशों में होता है।
    • इसने अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में आस्ति वसूली और ऋणदाता समन्वय के संबंध में महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न उठाए।
    • इस मामले ने भारत द्वारा विदेशी दिवालियापन कार्यवाही को मान्यता देने तथा एक व्यापक सीमा पार दिवालियापन व्यवस्था की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
    • इसमें एक ही निगमित समूह के लिये विभिन्न न्यायक्षेत्रों में समवर्ती दिवालियापन कार्यवाही के प्रबंधन में आने वाली चुनौतियों का उल्लेख किया गया है।
  • भारतीय स्टेट बैंक एवं अन्य बनाम किंगफिशर एयरलाइंस (2017):
    • इस दिवालियापन मामले ने सीमा पार दिवालियापन परिदृश्य में अंतर्राष्ट्रीय पट्टादाताओं, ऋणदाताओं और आस्तियों के प्रबंधन में शामिल जटिलताओं को प्रदर्शित किया।
    • इसमें विदेशी क्षेत्राधिकारों में स्थित आस्तियों और देनदारियों पर भारतीय दिवाला विधियों के कार्यान्वयन के संबंध में प्रश्न उठाए गए।
    • इस मामले में विदेशी ऋणदाताओं को संबोधित करने और अंतर्राष्ट्रीय दिवालियापन कार्यवाही में आस्ति वसूली के लिये स्पष्ट प्रोटोकॉल की आवश्यकता बताई गई है।
    • इसमें भारतीय दिवाला विधियों को अंतर्राष्ट्रीय विमानन पट्टा समझौतों और प्रथाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों का उल्लेख किया गया है।

निष्कर्ष:

मुक्त व्यापार समझौतों (FTA) और इसी तरह के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों में सीमा पार दिवालियापन प्रावधानों को एकीकृत करने की ज़रूरत है। यद्यपि UNCITRAL एक मान्यता प्राप्त आदर्श विधि है,  फिर भी इसका कार्यान्वयन चुनौतीपूर्ण रहा है। चूँकि भारत अभी भी FTA करारों में शामिल हो रहा है, इसलिये दिवाला संबंधी प्रावधानों को इन करारों में शामिल करने से ये करार सुदृढ़ होंगे और संभावित सीमा पार दिवालियापन से संबंधित मुद्दों के लिये व्यापारिक संस्थाओं को सुदृढ़ किया जा सकेगा। यह एकीकरण अंततः भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार परिदृश्य को लाभान्वित करेगा।