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सांविधानिक विधि

प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षण

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 04-Sep-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

अगस्त में, CBI ने कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज की एक रेजिडेंट डॉक्टर के बलात्कार और हत्या से जुड़े सात लोगों पर पॉलीग्राफ टेस्ट का दूसरी बार परीक्षण किया। इसमें कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल, पीड़िता के साथ भोजन करने वाले कई डॉक्टर और दो सिविक पुलिस स्वयंसेवक शामिल थे, जिनमें से एक मुख्य संदिग्ध था। प्रिंसिपल के उत्तरों में असंगतता के कारण अतिरिक्त परीक्षण किये गए और कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के बाद 13 अगस्त से CBI इस मामले की जाँच कर रही है।

प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षण (DDT) क्या है?

प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षण (DDT) वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ हैं जो पूछताछ के दौरान अभियुक्त की और से किये जाने वाले संभावित धोखे का पता लगाती हैं। DDT के तीन मुख्य प्रकार हैं:

  • पॉलीग्राफ टेस्ट:
    • इस टेस्ट में इस धारणा पर कार्य किया जाता है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो विशिष्ट शारीरिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं।
    • रक्तचाप, गैल्वेनिक त्वचा प्रतिक्रिया, श्वास और नाड़ी दर जैसी स्थितियों का मापन।
    • संदिग्ध व्यक्ति पर कार्डियो-कफ या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरणों का प्रयोग करना।
    • सत्यता निर्धारित करने के लिये शारीरिक प्रतिक्रियाओं को संख्यात्मक मान प्रदान करना।
  • नार्को-विश्लेषण:
    • इसमें आरोपी को सोडियम पेंटोथल नामक दवा का इंजेक्शन दिया जाता है।
    • यह एक सम्मोहन या बेहोशी की स्थिति उत्पन्न करता है।
    • यह इस धारणा पर आधारित है कि इस अवस्था में व्यक्ति कम संकोची होता है और जानकारी प्रकट करने की अधिक संभावना होती है।
    • इसे अक्सर "सत्य सीरम" के रूप में संदर्भित किया जाता है।
  • ब्रेन मैपिंग:
    • यह तंत्रिका गतिविधि, विशेष रूप से मस्तिष्क तरंगों को मापता है।
    • चेहरे और गर्दन से जुड़े इलेक्ट्रोड का उपयोग करता है।
    • इस सिद्धांत पर आधारित है कि परिचित उत्तेजनाओं के संपर्क में आने पर मस्तिष्क विशिष्ट मस्तिष्क तरंगें उत्पन्न करता है।

समय के साथ प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षणों पर भारतीय न्यायालयों की स्थिति किस प्रकार परिवर्तित हुई है?

  • मद्रास उच्च न्यायालय में दिनेश डालमिया बनाम राज्य (2006):
    • जाँच एजेंसियों को उचित समय के भीतर जाँच पूरी करने का निर्देश दिया गया।
    • यदि अभियुक्त अभिरक्षा में पूछताछ के दौरान सहयोग नहीं करता है तो सुझाए गए वैज्ञानिक जाँच तरीके (DDT) आवश्यक हो सकते हैं।
  • गुजरात उच्च न्यायालय में संतोकबेन शर्मा भाई जडेजा बनाम गुजरात राज्य (2007):
    • यह माना गया कि DDT का संचालन जाँच का एक भाग है।
    • निर्णय दिया गया कि इन परीक्षणों के लिये अभियुक्त की सहमति आवश्यक नहीं है।
  • शैलेंद्र शर्मा बनाम राज्य (2008) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय:
    • नार्को-विश्लेषण के अनैच्छिक क्रियान्वयन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा।
    • उन्होंने कहा कि समाज की आवश्यकताओं को उचित जाँच के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
    • ध्यान दिया गया कि नार्को-विश्लेषण के दौरान दिये गए आत्म-दोषसिद्धि बयानों का उपयोग अभियोजन पक्ष द्वारा नहीं किया जा सकता।
  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) में उच्चतम न्यायालय:
    • निर्णय दिया गया कि सहमति के बिना DDT का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
    • 'आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार' (अनुच्छेद 20(3)) और 'क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के विरुद्ध अधिकार' (अनुच्छेद 21 से व्याख्यायित) के उल्लंघन के विषय में चिंता व्यक्त की गई।
    • साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अनुसार, स्वैच्छिक परीक्षण परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई सूचना या सामग्री को स्वीकार करने की अनुमति दी गई।
  • सिद्धू यादव @ सिद्धार्थ बनाम दिल्ली राज्य (2017) में उच्चतम न्यायालय:
    • नार्को-विश्लेषण के लिये स्वेच्छा से आवेदन करने वाले एक व्यक्ति की याचिका अस्वीकार कर दी गई।
    • कहा गया कि जाँच पुलिस के क्षेत्राधिकार में आती है और न्यायालय जाँच के तरीके एवं पद्धति के विषय में आदेश नहीं दे सकता।
  • वर्ष 2020 में उच्चतम न्यायालय (हाथरस मामला):
    • 2010 के निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा गया कि DDT का अनैच्छिक प्रशासन किसी व्यक्ति की मानसिक गोपनीयता में घुसपैठ है।

पॉलीग्राफ टेस्ट की विधिक स्वीकार्यता क्या है?

  • पॉलीग्राफ परीक्षण, नार्को-विश्लेषण और ब्रेन-मैपिंग जैसी अन्य विधियों के साथ, पुलिस द्वारा शारीरिक हिंसा न करते हुए जाँच को सुविधाजनक बनाने के लिये उपयोग किया जाता है।
  • ये विधियाँ मुख्य रूप से अभियुक्त से जानकारी प्राप्त करने तथा संभावित रूप से उसे दोषी सिद्ध करने पर निर्भर करती हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(3) के अनुसार, किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता, जिससे पॉलीग्राफी परीक्षण के परिणाम न्यायालय में साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य हो जाते हैं।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता अधिकारों की रक्षा करते हुए अनुच्छेद 21 के अनुसार पॉलीग्राफी परीक्षण आयोजित करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
  • इन दिशा-निर्देशों से पहले, परीक्षण अक्सर बलपूर्वक किये जाते थे और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करते थे। दिशा-निर्देशों के बावजूद, कुछ एजेंसियाँ NHRC की अनुशंसाओं का पूरी तरह से पालन नहीं कर सकती हैं।
  • पॉलीग्राफी परीक्षण की सटीकता के विषय में प्रश्न, क्योंकि पूछताछ के दौरान भय या घबराहट के कारण परिणाम अविश्वसनीय हो सकते हैं।
  • इससे निर्दोष व्यक्तियों को गलत तरीके से दण्ड मिलने का संकट उत्पन्न हो जाता है, जो दबाव में आकर गलत आरोपों पर सहमति दे सकते हैं।

वर्ष 2010 से पहले प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षणों (DDT) पर भारतीय न्यायालयों का रुख किस प्रकार विकसित हुआ?

  • भारतीय न्यायालय DDT के उपयोग के पक्ष में थे तथा प्रायः इन परीक्षणों के लिये अभियुक्त की सहमति को अप्रासंगिक मानते थे।
  • महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ:
    • रोजो जॉर्ज बनाम पुलिस उपाधीक्षक (2006)- केरल उच्च न्यायालय:
      • उन्होंने कहा कि अपराध करने की तकनीकें "बहुत परिष्कृत और आधुनिक" हो गई हैं।
      • प्रभावी जाँच के लिये आवश्यक माने गए वैज्ञानिक परीक्षण (DDT)।
      • उन्होंने कहा कि जब ये परीक्षण सख्त विशेषज्ञ पर्यवेक्षण के अंतर्गत किये जाते हैं तो ये नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं।
    • दिनेश डालमिया बनाम राज्य (2006)- मद्रास उच्च न्यायालय:
      • यह पाया गया कि जाँच एजेंसियों द्वारा DDT पर निर्भरता "प्रशंसा-पत्र देने की बाध्यता" नहीं है।
      • DDT को "जाँच के वैज्ञानिक तरीकों" के रूप में प्रस्तुत किया गया।
      • DDT को अभिरक्षा में हिंसा के एक सुरक्षित विकल्प के रूप में चित्रित किया गया, जिसका प्रयोग अक्सर सूचना प्राप्त करने के लिये किया जाता है।
    • श्री शैलेंद्र शर्मा बनाम राज्य एवं अन्य (2008)- दिल्ली उच्च न्यायालय:
      • व्यक्तिगत अधिकारों के विरुद्ध गहन एवं उचित जाँच के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
      • उन्होंने कहा कि नार्को-विश्लेषण परीक्षण "किसी भी संवैधानिक दुर्बलता से ग्रस्त नहीं है"।
      • DDT को "जाँच में सहायता हेतु एक कदम" बताया।
      • नार्को-विश्लेषण परीक्षण की अनुमति दी गई।
  • DDT को समर्थन देने का औचित्य:
    • न्यायालयों ने आपराधिक तकनीकों की विकासशील प्रकृति को मान्यता दी।
    • DDT को प्रभावी आधुनिक जाँच के लिये आवश्यक उपकरण के रूप में देखा गया।
    • इन परीक्षणों को संभावित हिंसक पूछताछ विधियों से बेहतर माना गया।
    • न्यायालयों का उद्देश्य व्यक्तिगत अधिकारों के साथ गहन जाँच की सामाजिक आवश्यकताओं को संतुलित करना था।
  • विधिक परिप्रेक्ष्य:
    • सामान्यतः न्यायालयों ने DDT को उचित रूप से लागू किये जाने पर मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना।
    • DDT के प्रयोग को बाध्यकारी साक्षी का रूप नहीं माना गया।
    • व्यक्तिगत सहमति की चिंताओं की तुलना में जाँच संबंधी आवश्यकताओं को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति थी।
  • यह स्थिति वर्ष 2010 के बाद के विधिक परिदृश्य से बिल्कुल विपरीत है, जहाँ सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने DDT के प्रति दृष्टिकोण को महत्त्वपूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया था तथा सहमति और संवैधानिक सुरक्षा पर ज़ोर दिया था।

वर्ष 2010 के बाद प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षण (DDT) पर भारतीय न्यायालयों का रुख किस प्रकार विकसित हुआ?

  • निर्णयज विधियाँ: सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010)- उच्चतम न्यायालय
    • सहमति की आवश्यकता:
      • DDT को आरोपी की सहमति के बिना नहीं किया जाना चाहिये।
      • यह आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध मौलिक अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 20(3)) के अनुरूप है।
    • निजता का अधिकार:
      • बयान देने या चुप रहने का अधिकार निजता के अधिकार का अभिन्न अंग है।
      • किसी व्यक्ति को बयान देने के लिये बाध्य करना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
    • विश्वसनीयता संबंधी चिंताएँ:
      • न्यायालय ने DDT की विश्वसनीयता का समर्थन करने वाले अनुभवजन्य साक्ष्य की कमी पर गौर किया।
      • परीक्षण के परिणामों को "स्वीकारोक्ति" के रूप में देखने के प्रति आगाह किया गया।
    • साक्ष्य की स्वीकार्यता:
      • DDT के परिणामों को सीधे तौर पर साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
      • हालाँकि स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण के परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई किसी भी सूचना या सामग्री को न्यायालय में स्वीकार किया जा सकता है।
    • प्रक्रियात्मक सुरक्षा:
      • DDT के लिये स्वेच्छा से काम करने वाले व्यक्तियों को अधिवक्ता की सुविधा अवश्य मिलनी चाहिये।
      • विषयों को परीक्षण के शारीरिक, भावनात्मक और विधिक निहितार्थों के विषय में अवश्य बताया जाना चाहिये।
      • सहमति को न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष औपचारिक रूप से दर्ज किया जाना चाहिये।
      • इन परीक्षणों के संचालन के लिये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (2000) द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये।
  • निहितार्थ:
    • वर्ष 2010 से पूर्व के रुख में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन, व्यक्तिगत अधिकारों एवं सहमति को प्राथमिकता देना।
    • गोपनीयता और आत्म-दोषसिद्धि के विरुद्ध सुरक्षा में वृद्धि।
    • DDT परिणामों के उपयोग और स्वीकार्यता के लिये अधिक कठोर आवश्यकताएँ।
    • स्वैच्छिक भागीदारी और सूचित सहमति पर अधिक ज़ोर दिया जाएगा।
    • जाँच प्रक्रियाओं में DDT की संभावित अविश्वसनीयता की पहचान।

उच्चतम न्यायालय की चेतावनियों के बावजूद भारत में अभी भी लाइ डिटेक्टर टेस्ट का उपयोग क्यों किया जाता है?

  • उच्चतम न्यायालय ने लाइ डिटेक्टर परीक्षणों के प्रयोग के विरुद्ध चेतावनी दी है, यद्यपि भारत में इनका प्रयोग अभी भी आम है।
  • यह कई अन्य देशों से अलग है जहाँ ये परीक्षण कम लोकप्रिय हो रहे हैं।
  • हाल के वर्षों में, इन परीक्षणों का उपयोग भारत में कुछ बड़े मामलों में किया गया है, जैसे:
    • हाथरस में वर्ष 2020 का सामूहिक बलात्कार मामला
    • 2012 का शीना बोरा लापता मामला
    • 2022 का श्रद्धा वाकर हत्याकांड
  • इस विषय पर पुस्तक लिखने वाली जिनी लोकनीता का कहना है कि ये परीक्षण बहुत आक्रामक हैं।
    • उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या पुलिस अभिरक्षा में मौजूद लोग वास्तव में इन परीक्षणों के लिये स्वतंत्र और सूचित सहमति दे सकते हैं।
    • लोकनीता ने ऐसे मामलों का भी उल्लेख किया है जहाँ लोगों को ये परीक्षण करने के लिये बाध्य किया गया तथा उनके साथ शारीरिक दुर्व्यवहार किया गया।
    • ऐसा 2007 के मक्का मस्जिद विस्फोट मामले और 2006 के मुंबई विस्फोट मामले में हुआ था।
    • इन मामलों में, इन परीक्षणों का उपयोग लोगों से झूठा बयान दिलवाने के लिये किया गया था।
  • वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन का कहना है कि ये लाइ डिटेक्टर परीक्षण वैज्ञानिक होने का दिखावा करते हैं, परंतु वे वैज्ञानिक परीक्षण नहीं हैं।
    • वह एक समस्या की ओर भी ध्यान आकर्षित करतीं हैं: यदि कोई व्यक्ति इन परीक्षणों को करवाने से इनकार कर देता है, तो अक्सर इसका प्रयोग न्यायालय में उसके विरुद्ध किया जाता है।
    • अभियोजन पक्ष कह सकता है कि इस इनकार का अर्थ है कि व्यक्ति दोषी है या कुछ छिपा रहा है। जॉन का कहना है कि यह अनुचित है क्योंकि व्यक्तियों को इन परीक्षणों से इनकार करने का संवैधानिक अधिकार है।

निष्कर्ष:

वर्ष 2010 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए उस निर्णय के बावजूद जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि प्रवंचना अभिज्ञान परीक्षण (DDT) का प्रयोग केवल व्यक्ति की सहमति से ही किया जाना चाहिये और इसे प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर भी भारत में इन परीक्षणों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे परीक्षणों में व्यक्तिगत अधिकारों और गोपनीयता का सम्मान किया जाना चाहिये, परंतु उनकी आक्रामक प्रकृति तथा विश्वसनीयता के विषय में चिंताएँ बनी हुई हैं। आलोचकों का तर्क है कि पुलिस के दबाव में दी गई सहमति वास्तव में स्वैच्छिक नहीं हो सकती है और इन परीक्षणों से गुज़रने से इनकार करने का न्यायालय में व्यक्तियों के विरुद्ध अनुचित रूप से प्रयोग किया जा सकता है।