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सांविधानिक विधि

जेलों में जाति-आधारित पृथक्करण को समाप्त करना

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 13-Nov-2024

स्रोत: द हिंदू  

परिचय 

भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें कैदियों के बीच उनकी सामाजिक स्थिति या जाति के आधार पर भेदभाव करने वाले नियमों को खारिज कर दिया गया। यह निर्णय भारतीय जेलों में समानता के मौलिक अधिकार को सुदृढ़ करता है और कैदियों को उनके सामाजिक वर्ग या पृष्ठभूमि के आधार पर अलग करने की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को चुनौती देता है। जहाँ आधार तर्कहीन, मनमाना या निषिद्ध आधार था, वह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता संहिता की जांच का सामना नहीं कर सकता था।

न्यायपालिका ने सामाजिक स्थिति, जाति और आर्थिक स्थिति के आधार पर कैदियों की वर्गीकरण की संवैधानिक असंगतियों को किस प्रकार चुनौती दी है?

  • भारत की दंड व्यवस्था में कैदियों के वर्गीकरण की प्रथा सामाजिक स्थिति, जाति और आर्थिक स्थिति के आधार पर स्थापित की गई है, जो औपनिवेशिक काल की गहरी जड़ों को दर्शाती है।
  • इस कानून को प्रारंभ में सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, जिसे स्वतंत्रता के पश्चात भी विभिन्न राज्य जेल मैनुअल (निर्देशिका) के माध्यम से जारी रखा गया।
  • यह निरंतरता अनुच्छेद 14 और 15 के तहत संवैधानिक सुरक्षा के पूर्ण विपरीत थी, जो क्रमशः कानून के समक्ष समानता और भेदभाव के निषेध की सुनिश्चितता प्रदान करती हैं।
  • ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से जेल सुधार न्यायशास्त्र का विकास यह दर्शाता है कि न्यायपालिका की प्रगतिशील दृष्टि के अनुसार संवैधानिक अधिकार जेल के भीतर भी जारी रहते हैं।
  • प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन (1980)
    • न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि सामाजिक या आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार संविधान के अनुसार स्वीकार्य नहीं है।
    • इस निर्णय में विशेष रूप से कैदियों को उनके सामाजिक वर्गीकरण के आधार पर हथकड़ी लगाने की प्रथा को चुनौती दी गई और यह स्पष्ट किया गया कि सुरक्षा उपायों को सामाजिक पूर्वाग्रहों के बजाय वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित होना चाहिये।

भारतीय न्यायालयों ने कैदियों के अभिव्यक्ति और समान व्यवहार के अधिकारों से संबंधित भेदभाव और प्रतिबंधों का समाधान कैसे किया है?

  • मधुकर भगवान जंभाले बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984):
    • कैदियों के बीच पत्र लिखने पर प्रतिबंध से संबंधित मुद्दों का समाधान किया गया।
    • महाराष्ट्र की जेल नियमावली ने कैदियों के बीच संवाद पर रोक लगा दी थी।
    • न्यायालय ने इसे इसलिये खारिज कर दिया क्योंकि इसका कोई तार्किक आधार नहीं था
    • यह पाया गया कि इससे कैदियों के अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन हुआ।
  • इनासियो मैनुअल मिरांडा बनाम राज्य (1988) मामला:
    • कैदी कल्याण पत्रों में भेदभाव को संबोधित किया गया
    • प्रथम श्रेणी के कैदी मासिक चार पत्र लिख सकते थे
    • द्वितीय श्रेणी के कैदियों को केवल दो पत्रों तक सीमित रखा गया
    • न्यायालय ने इस वर्गीकरण को अनुचित और भेदभावपूर्ण माना।
    • यह निर्णय दिया गया कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत समान व्यवहार के अधिकार का उल्लंघन है।
  • सुकन्या शांता बनाम भारत संघ (2024):
    • भारतीय जेलों में गैर-भेदभाव के सिद्धांत की पुनः अभिपुष्टि की गई
    • जेल मैनुअल में जाति के आधार पर कैदियों के विभाजन से संबंधित नियमों को समाप्त कर दिया गया है।
    • सभी कैदियों के साथ समानता के आधार पर व्यवहार किया जाना चाहिये, चाहे उनकी सामाजिक स्थिति कैसी भी हो।
    • जेलों में भेदभावपूर्ण व्यवहार को संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन माना गया है।

सुकन्या शांता निर्णय का विश्लेषण क्या है? 

  • वर्गीकरण की संवैधानिक वैधता:  
    • न्यायालय ने निर्णायक रूप से माना है कि किसी भी वर्गीकरण प्रणाली को बोधगम्य भिन्नता और प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य के साथ तर्कसंगत संबंध के दोहरे परीक्षण को पूरा करना होगा।
    • सामाजिक स्थिति या जाति के आधार पर पारंपरिक वर्गीकरण इस परीक्षण में विफल हो जाता है क्योंकि यह किसी भी वैध दंडात्मक उद्देश्य की पूर्ति किये बिना सामाजिक पदानुक्रम को कायम रखता है
    • न्यायालय ने टिप्पणी की कि यद्यपि प्रशासनिक उद्देश्यों के लिये वर्गीकरण आवश्यक हो सकता है, लेकिन यह सुरक्षा आवश्यकताओं, पुनर्वास आवश्यकताओं या स्वास्थ्य स्थितियों जैसे वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित होना चाहिये।
  • गरिमा का अधिकार:  
    • यह निर्णय कैदियों के अधिकारों के संदर्भ में अनुच्छेद 21 के दायरे को महत्त्वपूर्ण रूप से विस्तारित करता है।
    • यह स्वीकार करते हुए कि गरिमापूर्ण जीवन-स्थितियाँ एक मौलिक अधिकार हैं, न्यायालय ने यह आदेश दिया है कि उचित बैडिंग, लेखन सामग्री तक पहुँच और मुलाकात के अधिकार जैसी बुनियादी सुविधाएँ सामाजिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग आवंटित नहीं की जा सकतीं।
    • यह व्याख्या अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों और कैदियों के उपचार के लिये संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियमों (नेल्सन मंडेला नियम) के अनुरूप है।
  • सुधारात्मक न्याय:
    • न्यायालय द्वारा कारावास के सुधारात्मक पहलू पर दिया गया ज़ोर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 
    • जाति के आधार पर शारीरिक श्रम निर्धारित करने वाले प्रावधानों को निरस्त करके, निर्णय में यह माना गया है कि ऐसी प्रथाएँ सामाजिक कलंक को बनाए रखती हैं और पुनर्वास में बाधा डालती हैं। 
    • कौशल विकास और शिक्षा के लिये समान अवसर प्रदान करने के न्यायालय के निर्देश कारावास के सुधारात्मक उद्देश्य को पुष्ट करते हैं।

गौर नारायण चक्रवर्ती एवं अन्य (2012)

  • राजनीतिक कैदी की स्थिति व अधिकार:
    • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि "राजनीतिक आंदोलनों में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों" को राजनीतिक कैदी के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये, जिसमें UAPA के तहत आरोपित व्यक्ति भी शामिल हैं। यह निर्णय इस बात को दर्शाता है कि गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न होना स्वचालित रूप से राजनीतिक कैदी का दर्जा समाप्त नहीं करता, जब तक कि उनके कार्य पूरी तरह से आतंकवादी प्रवृत्ति के न हों और वे राजनीति से प्रेरित हों।
  • संवैधानिक संरक्षण व बुनियादी सुविधाएँ:
    • निर्णय में यह स्पष्ट किया गया कि बुनियादी सुविधाएँ जैसे कुर्सी, मेज़, बिजली, लोहे की खाट, गद्दा, लेखन सामग्री, पुस्तकें और समाचार पत्र सभी कैदियों के लिये मौलिक अधिकार हैं। ये सुविधाएँ केवल राजनीतिक कैदियों तक सीमित नहीं होनी चाहिये, बल्कि सभी कैदियों के लिये सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध होनी चाहिये, ताकि इन्हें जेल प्रणाली के भीतर बुनियादी मानव अधिकारों के रूप में मान्यता प्राप्त हो सके।
  • जेल वर्गीकरण सुधार:
    • न्यायालय ने निर्देश दिया है कि राज्य प्रशासन को पश्चिम बंगाल सुधार सेवा अधिनियम, 1992 के अंतर्गत कैदियों के वर्गीकरण की पुनः समीक्षा करनी चाहिये। इसके साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि कैदियों के वर्गीकरण के आधार पर उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं और सम्मानजनक व्यवहार में कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिये, ताकि पारंपरिक पदानुक्रमित जेल प्रणाली को प्रभावी रूप से चुनौती दी जा सके।
  • कार्यान्वयन ढाँचा:  
    • निर्णय में मॉडल जेल मैनुअल 2016 में संशोधन का सुझाव देकर जेल सुधार के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रदान की गई, जिसमें बुनियादी सुविधाओं के एकसमान अनुप्रयोग का निर्देश दिया गया तथा इस बात पर बल दिया गया कि जीवन स्थितियों में सुधार से जेलों के भीतर भेदभावपूर्ण वर्गीकरण प्रणाली स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाएगी।
  • न्यायिक उदाहरण:
    • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका पर गुणागुण के आधार पर कोई निर्णय नहीं लिया, फिर भी उच्च न्यायालय का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि जेल प्राधिकारियों को सभी कैदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करना अनिवार्य है। यह भविष्य में जेल सुधार से संबंधित मुकदमेबाज़ी और भारत भर में सुधार सुविधाओं में प्रशासनिक परिवर्तनों के लिये एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण स्थापित करेगा।

निष्कर्ष 

हालाँकि उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करके जेल सुधार में महत्त्वपूर्ण प्रगति को दर्शाता है, लेकिन असली चुनौती इसके कार्यान्वयन में निहित है। यह निर्णय सभी कैदियों के साथ अधिक सम्मानजनक व्यवहार को सुनिश्चित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि कैदियों की सामाजिक या आर्थिक स्थिति की परवाह किये बिना बुनियादी सुविधाएँ समान रूप से उपलब्ध कराई जाएँ। यह भारत में एक अधिक मानवीय और न्यायसंगत जेल प्रणाली की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।