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आपराधिक कानून

BNSS की धारा 163 में प्रावधानित आदेशों का अतिक्रमण करने पर FIR पंजीकरण

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 27-Feb-2025

स्रोत: द हिंदू 

परिचय 

इंदौर में हाल ही में एक विधिक घटनाक्रम हुआ, जिसमें जिला मजिस्ट्रेट द्वारा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 163 के अंतर्गत जारी निषेधाज्ञा का अतिक्रमण करने पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 223 के अंतर्गत दो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गईं। ये धाराएँ क्रमशः भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 188 और दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 144 के अनुरूप हैं। 

इंदौर में FIR दर्ज करने का क्या कारण था?

  • इंदौर जिला प्रशासन ने 2 जनवरी, 2025 को शहर को भिखारी मुक्त बनाने के उद्देश्य से निषेधाज्ञा जारी की। 
  • इन आदेशों के बाद दो FIR दर्ज की गईं:
    • एक व्यक्ति के विरुद्ध जिसने एक भिखारी को भीख दी थी।
    • दूसरा एक महिला भिखारी के बेटे के विरुद्ध जिसने उसे भिक्षाटन से रोकने की जिम्मेदारी ली थी, लेकिन फिर भी वह भीख मांगती पाई गई।
  • दोनों FIR भिक्षा उन्मूलन दल के अधिकारी की शिकायत के आधार पर दर्ज की गई थीं। 
  • प्रशासनिक कार्यवाही का उद्देश्य शहर की सीमा के अंदर भिक्षा देने और भिक्षाटन की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना था।

क्या भिक्षाटन से संबंधित मुद्दों के लिये BNSS की धारा 163 को लागू किया जा सकता है?

  • BNSS  की धारा 163 जिला मजिस्ट्रेट को केवल "उपद्रव या आशंका वाले खतरे के अत्यावश्यक मामलों में ही आदेश जारी करने का अधिकार देती है, जब कार्यवाही के लिये पर्याप्त आधार हो और तत्काल रोकथाम या त्वरित उपाय वांछनीय हो।" 
  • ऐसी परिस्थितियों में सक्षम कार्यकारी मजिस्ट्रेट निम्न कार्य कर सकता है:
    • किसी व्यक्ति को कुछ कार्यों से दूर रहने का निर्देश देना।
    • बाधा, परेशानी या चोट को रोकने के लिये आदेश जारी करना।
    • मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के लिये खतरे को रोकना।
    • सार्वजनिक शांति, दंगों या झगड़ों को रोकना।
  • सार्वजनिक रूप से भिक्षाटन से परेशानी हो सकती है या लोक शांति भंग हो सकती है, लेकिन इसे उचित रूप से "उपद्रव या आशंका वाले खतरे के तत्काल मामले" के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, जैसा कि विधि द्वारा अपेक्षित है। 
  • भिक्षाटन से संबंधित मामलों के लिये BNSS की धारा 163 का आह्वान विधिक रूप से संदिग्ध प्रतीत होता है।

BNS की धारा 223 का अतिक्रमण करने के लिये प्रत्यक्ष FIR पंजीकरण अनुचित क्यों है?

  • BNS की धारा 223 (धारा 188 IPC के अनुरूप) के अतिक्रमण के लिये FIR दर्ज करना BNSS की धारा 215 (CrPC की धारा 195 के अनुरूप) द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित है।
  • विशेष रूप से:
    • BNSS की धारा 215(1)(a) में यह प्रावधानित किया गया है कि "कोई भी न्यायालय (i) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 206 से 223 (दोनों सम्मिलित, परंतु धारा 209 को छोड़कर) के अंतर्गत दण्डनीय किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा..., सिवाय संबंधित लोक सेवक या किसी अन्य लोक सेवक, जिसके अधीन वह प्रशासनिक रूप से अधीनस्थ है या किसी अन्य लोक सेवक, जिसे संबंधित लोक सेवक द्वारा ऐसा करने के लिये अधिकृत किया गया है, की लिखित शिकायत के।"
  • यह प्रावधान एक प्रक्रियागत आवश्यकता बनाता है कि BNS की धारा 223 के अंतर्गत अपराध संज्ञेय होने के बावजूद, जिला मजिस्ट्रेट को शिकायत दर्ज करने के लिये लिखित रूप से न्यायालय से संपर्क करना चाहिये। ऐसे मामलों में पुलिस रिपोर्ट पर रोक है, जिससे FIR दर्ज करना अनुचित है।

इसी प्रकार के मामलों के संबंध में न्यायालयों ने क्या निर्णय दिया है?

कई न्यायिक उदाहरण IPC की धारा 188 (अब धारा 223 BNS) के अंतर्गत आदेशों के अतिक्रमण के लिये FIR दर्ज करने की अनुचितता को स्थापित करते हैं:

  • उच्चतम न्यायालय का निर्वचन: उच्चतम न्यायालय ने माना है कि CrPC की धारा 195 (धारा 215 BNSS ) न्यायिक मजिस्ट्रेटों की धारा 190 के अंतर्गत संज्ञान लेने की शक्तियों को सीमित करती है। ऐसे मामलों में संज्ञेय अपराध पर आरोप-पत्र एक शिकायत नहीं बल्कि एक पुलिस रिपोर्ट है, जिस पर विशेष रूप से रोक है।
  • सी. मुनियप्पन एवं अन्य बनाम तमिलनाडु राज्य (2010): उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 195 के प्रावधान अनिवार्य हैं, और गैर-अनुपालन अभियोजन पक्ष को प्रभावित करेगा।
  • उत्तर प्रदेश राज्य बनाम माता भीख एवं अन्य (1994): उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस धारा का उद्देश्य व्यक्तियों को विद्वेष, दुर्भावना या तुच्छता से प्रेरित व्यक्तियों द्वारा अपर्याप्त सामग्री या अपर्याप्त आधार पर परेशान करने वाले अभियोजन से बचाव करना है।
  • जीवनानंदम और अन्य बनाम राज्य और अन्य (2018): मद्रास उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना कि एक पुलिस अधिकारी IPC की धारा 172 से 188 (अब धारा 206 से 223 BNS) के अंतर्गत आने वाले अपराधों के लिये FIR दर्ज नहीं कर सकता है। हालाँकि, पुलिस अधिकारी आगे के अतिक्रमण को रोकने के लिये अपनी उपस्थिति में ऐसे अपराध किये जाने पर कार्यवाही कर सकते हैं। 
  • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का मामला: हाल ही में एक और निर्णय में, उच्च न्यायालय ने एक मेडिकल स्नातक के विरुद्ध IPC की धारा 188 के अंतर्गत दर्ज FIR को खारिज कर दिया, जो कोविड-19 महामारी के दौरान जिला मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसार मुख्य चिकित्सा अधिकारी को अपने आगमन की सूचना देने में विफल रही थी। न्यायालय ने माना कि IPC की धारा 188 के अंतर्गत अपराध के लिये कोई FIR दर्ज नहीं की जा सकती।

BNSS की धारा 163 आदेशों के अतिक्रमण को संबोधित करने की सही प्रक्रिया क्या है?

  • BNSS की धारा 163 के अंतर्गत जारी आदेशों के अतिक्रमण को संबोधित करने की सही प्रक्रिया है:
    • पुलिस को BNS की धारा 223 के अंतर्गत दोषपूर्ण तरीके से दर्ज की गई किसी भी FIR को बंद करना चाहिये तथा तदनुसार जिला मजिस्ट्रेट को सूचित करना चाहिये। 
    • यदि जिला मजिस्ट्रेट अतिक्रमणकर्त्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहता है, तो उन्हें BNSS की धारा 215 के अंतर्गत लिखित रूप में न्यायालय से संपर्क करना चाहिये । 
    • संबंधित लोक सेवक या उनके प्रशासनिक वरिष्ठ को सीधे न्यायालय में लिखित शिकायत दर्ज करनी चाहिये। 
    • पुलिस कार्यवाही उन स्थितियों तक सीमित है जहाँ अपराध अधिकारी की उपस्थिति में किया जाता है या जहाँ ऐसे अपराधों को रोकने के लिये तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता होती है।

भिक्षाटन से संबंधित चिंताओं के समाधान के लिये क्या विकल्प मौजूद हैं?

FIR के माध्यम से भिक्षाटन को अपराध घोषित करने के बजाय, अधिक उपयुक्त विकल्प निम्नलिखित हैं:

  • विधायी विकल्प: राज्य सरकार धारा 215(1) के प्रतिबंधों को संशोधित करने के लिये BNSS में संशोधन प्रारंभ कर सकती है या भिक्षाटन से संबंधित स्थानीय विधान बना सकती है। हालाँकि, आम तौर पर सिविल अपराधों को आपराधिक अपराधों में बदलना उचित नहीं है। 
  • पुनर्वास पर ध्यान: भिखारियों को अभियोजन के बजाय पुनर्वास की आवश्यकता है। भिक्षा देने या प्राप्त करने वालों के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही अंतर्निहित सामाजिक मुद्दों को हल करने के बजाय उन्हें और बढ़ा सकती है। 
  • सामाजिक कल्याण हेतु दृष्टिकोण की आवश्यकता: भिक्षाटन के मूल कारणों को संबोधित करने के लिये व्यापक सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को लागू करना दण्डात्मक उपायों की तुलना में अधिक प्रभावी होगा। 
  • लक्षित हस्तक्षेप: भिक्षाटन में लगे लोगों के लिये कौशल विकास, आश्रय एवं रोजगार के अवसरों पर ध्यान केंद्रित करने वाले कार्यक्रम स्थायी समाधान प्रदान करेंगे।

निष्कर्ष 

BNSS की धारा 163 के अंतर्गत जारी निषेधाज्ञा के अतिक्रमण के लिये BNS की धारा 223 के अंतर्गत FIR दर्ज करना विधिक रूप से अनुचित है तथा स्थापित न्यायिक पूर्वनिर्णयों का खंडन करता है। सही प्रक्रिया के लिये जिला मजिस्ट्रेट को FIR के माध्यम से पुलिस कार्यवाही शुरू करने के बजाय सीधे न्यायालय में लिखित शिकायत दर्ज करनी होगी। जबकि भिक्षाटन से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने का आशय भले ही नेक हो, लेकिन दृष्टिकोण विधिक आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिये । इसके अतिरिक्त, दण्डात्मक दृष्टिकोण के बजाय पुनर्वास दृष्टिकोण भिक्षाटन के सामाजिक उद्देश्य को बेहतर ढंग से पूरा करेगा। विधि प्रवर्तन एजेंसियों को विधि के अक्षर और उसकी मानवीय भावना दोनों से निर्देशित होना चाहिये, विशेषकर जब वे कमजोर आबादी से निपट रहे हों।