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सांविधानिक विधि

न्यायिक नियुक्तियाँ

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 03-Sep-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

भारत के संविधान में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये विशिष्ट प्रावधान हैं। यह प्रक्रिया समय के साथ उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए कई ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है, जिसके परिणामस्वरूप कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना हुई। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार का एक वर्तमान समय में किया गया प्रयास था, जिसे उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया।

भारत का संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति से कैसे करता है और इस प्रक्रिया में कॉलेजियम प्रणाली की क्या भूमिका है?

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(2) एवं 217 के अंतर्गत क्रमशः उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है।
  • अनुच्छेद 124(2) में कहा गया है कि "उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी" यह नियुक्ति उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के साथ "परामर्श" के उपरांत की जाएगी, "जैसा कि राष्ट्रपति आवश्यक समझें।"
  • अनुच्छेद 217 में कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल तथा मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाएगी।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की नियुक्ति के लिये 1970 के दशक के विवाद के बाद से ही वरिष्ठता के आधार पर नियुक्ति जाती रही है। राष्ट्रपति इसी प्रथा के आधार पर CJI की नियुक्ति करते हैं।
  • व्यवहार में, केंद्रीय विधि मंत्री "उचित समय" पर निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश से उनके उत्तराधिकारी के संबंध में अनुशंसा मांगेंगे।
    • जब मुख्य न्यायाधीश किसी भी नाम की अनुशंसा कर देते हैं, तो विधि मंत्री उस पत्र को प्रधानमंत्री के पास भेज देते हैं, जो फिर नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति को परामर्श देते हैं।
  • कॉलेजियम प्रणाली, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है तथा यह संसद के अधिनियम या संविधान के प्रावधान पर आधारित नहीं है।

प्रथम, द्वितीय और तृतीय न्यायाधीशों के मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों ने भारत में न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को किस प्रकार विकसित किया?

प्रथम न्यायाधीश मामला (1981):

  • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के "परामर्श" का तात्पर्य "सहमति" नहीं है। इसका अर्थ मात्र विचारों का आदान-प्रदान है।
  • न्यायालय ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा को कार्यपालिका द्वारा "ठोस कारणों" से अस्वीकार किया जा सकता है, जिससे न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को न्यायपालिका पर प्राथमिकता मिल जाती है।

द्वितीय न्यायाधीश मामला (1993):

  • उच्चतम न्यायालय ने प्रथम न्यायाधीश मामले में अपने पहले के निर्णय को पलट दिया।
  • इसने निर्णय दिया कि अब CJI के "परामर्श" का अर्थ "सहमति" है। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में CJI का परामर्श राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी है।
  • मुख्य न्यायाधीश अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श करके एक "कॉलेजियम" का गठन करेंगे, जिसकी अनुशंसा सरकार के लिये बाध्यकारी होगी।
  • यदि नामों को पुनर्विचार के लिये वापस भेजा जाता है तो कॉलेजियम सरकार के निर्णय पर वीटो लगा सकता है।
  • मूल विचार यह था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका को सरकार पर प्राथमिकता दी जाए।

तृतीय न्यायाधीश मामला (1998):

  • उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम का विस्तार कर इसे पाँच सदस्यीय कर दिया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और उनके चार वरिष्ठतम सहकर्मी शामिल हैं।
  • उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के लिये, मुख्य न्यायाधीश और चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों के नेतृत्व में उच्च न्यायालय का कॉलेजियम द्वारा दिये गए नामों की अनुशंसा करेगा, जिसके उपरांत सरकार के पास पहुँचने से पहले मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम से अनुमोदन की आवश्यकता होगी।

उच्चतम न्यायालय ने 99वें संशोधन और NJAC अधिनियम को क्यों रद्द कर दिया तथा NJAC के पक्ष और विपक्ष में तर्क क्या हैं?

  • वर्ष 2014 में भारतीय संसद ने दो नए विधान पारित किये:
    • संविधान (99वाँ संशोधन) अधिनियम, 2014
    • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम, 2014
  • 99वें संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में तीन नए अनुच्छेद (124A, 124B, और 124C) जोड़े गए।
  • NJAC अधिनियम ने उच्च न्यायपालिका (उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय) में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिये उत्तरदायी एक नए आयोग की स्थापना की।
  • NJAC का गठन निम्नलिखित व्यक्तियों के माध्यम से किया जाना था:
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश
    • उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश
    • केंद्रीय विधि मंत्री
    • नागरिक समाज के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति
  • वर्ष 2015 में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि 99वाँ संशोधन अधिनियम और NJAC अधिनियम दोनों असंवैधानिक थे।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि NJAC न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमज़ोर करता है, क्योंकि यह कार्यकारी शाखा (सरकार) को न्यायिक नियुक्तियों में हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है।
  • न्यायालय ने तर्क दिया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका, विशेषकर भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता संविधान के मूल ढाँचे का एक मौलिक भाग है, जिसका संसद ने NJAC के माध्यम से उल्लंघन किया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि NJAC नियुक्ति प्रक्रिया की निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को संकट में डाल सकती है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
  • हालाँकि पूर्व न्यायाधीशों सहित कई विधिक पेशेवरों ने तर्क दिया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये NJAC एक बेहतर प्रणाली है।

अन्य देशों में न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया किस प्रकार भिन्न है?

  • यूनाइटेड किंगडम:
    • वर्ष 2005 के संवैधानिक सुधार अधिनियम ने न्यायाधीशों के चयन की देखरेख के लिये दो आयोग स्थापित किये।
    • इंग्लैंड और वेल्स के न्यायिक नियुक्ति आयोग में 15 सदस्य हैं, जिनमें एक गैर-न्यायिक अध्यक्ष, छह न्यायिक सदस्य, दो पेशेवर सदस्य (बैरिस्टर या सॉलिसिटर), पाँच गैर-न्यायिक सदस्य और एक गैर-विधिक रूप से योग्य न्यायिक सदस्य शामिल हैं।
  • दक्षिण अफ्रीका:
    • न्यायिक सेवा आयोग (JSC) न्यायिक नियुक्तियों पर राष्ट्रपति को परामर्श देता है।
    • JSC में मुख्य न्यायाधीश, अपीलीय उच्चतम न्यायालय के अध्यक्ष, एक न्यायाधीश, न्याय मंत्री, अधिवक्ता, एक विधि प्रोफेसर, राष्ट्रीय सभा के सदस्य, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति तथा प्रांतीय राष्ट्रीय परिषद के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
  • फ्राँस:
    • गणराज्य के राष्ट्रपति का संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करें, परंतु वह सीधे तौर पर न्यायाधीशों का चयन नहीं करते हैं।
    • न्यायाधीशों का चयन न्यायपालिका की उच्च परिषद की भागीदारी वाली प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है, अथवा निचले न्यायालयों के लिये, न्याय मंत्री द्वारा उच्च परिषद के परामर्श से किया जाता है।

भारत में न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता, दक्षता और स्वतंत्रता के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है?

  • NJAC का प्रस्ताव न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाने के लिये किया गया था।
  • वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली के विपरीत, जहाँ केवल मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठ उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ही नियुक्तियों पर निर्णय लेते हैं, NJAC में हितधारकों की एक व्यापक श्रेणी को शामिल किया गया होगा, जिससे न्यायिक नामांकन में तीव्रता आ सकेगी।
  • हालाँकि NJAC को नियुक्ति प्रक्रिया में संभवतः राजनीति को शामिल करने और न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा पहुँचाने के लिये आलोचना का सामना करना पड़ा।
  • इसके विपरीत, कॉलेजियम प्रणाली की यह आलोचना की जाती रही है कि यह अपारदर्शी और अस्पष्ट है, जिससे पक्षपात को बढ़ावा मिलता है तथा योग्य अभ्यर्थियों की नियुक्ति में बाधा उत्पन्न होती है।
  • इन मुद्दों को हल करने के लिये एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। किसी भी नई प्रणाली का उद्देश्य न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए पारदर्शिता एवं दक्षता में सुधार करना होना चाहिये।
  • ऐसी प्रणाली तैयार करना महत्त्वपूर्ण है जो न्यायपालिका में जनता का विश्वास बहाल करे और न्याय में विलंब को कम करे।
  • प्रभावी समाधान खोजने के लिये विभिन्न दृष्टिकोणों को शामिल करते हुए सहयोगात्मक प्रयास आवश्यक हो सकता है।

निष्कर्ष:

भारत में न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शिता, दक्षता और न्यायिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन का सामना करती है। कॉलेजियम प्रणाली की अपारदर्शी होने के लिये आलोचना की गई है, जबकि NJAC को प्रक्रिया में संभावित रूप से राजनीति को शामिल करने के रूप में देखा गया था। एक सुधार प्रणाली जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए इन चिंताओं को संबोधित करती है, जनता का विश्वास बहाल करने और समय पर न्याय सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है। इसके लिये प्रभावी समाधान खोजने हेतु विभिन्न हितधारकों को शामिल करते हुए एक सहयोगी प्रयास की आवश्यकता हो सकती है।