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आपराधिक कानून

किशोरावस्था संबंधी दावा कभी भी किया जा सकता है

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 10-Oct-2024

स्रोत: द हिंदुस्तान टाइम्स 

परिचय

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में हत्या के मामले में अपने ही दोषसिद्धि को उलट दिया, क्योंकि उसे पता चला कि अपराध के समय व्यक्ति किशोर था। अपराध और अंतिम दोषसिद्धि के दो दशक बाद दावा किये जाने के बावजूद, न्यायालय ने कहा कि किशोर होने का दावा विधिक कार्यवाही के किसी भी चरण में किया जा सकता है, जिससे किशोर न्याय में एक महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम होती है।

मध्य प्रदेश राज्य बनाम रामजी लाल शर्मा एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • पृष्ठभूमि  
    • यह मामला 17 जनवरी, 2002 को पुलिस स्टेशन एजेके भिंड, मध्य प्रदेश में दर्ज एक FIR से उत्पन्न हुआ था।
    • भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास) और 34 (सामान्य आशय से कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कृत्य) के साथ-साथ SC/ST अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत आरोप दर्ज किये गए थे।
    • मूल मुकदमे में भिंड के विशेष न्यायाधीश ने 24 फरवरी, 2006 को अभियुक्तों को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई तथा 5,000 रुपए का जुर्माना लगाया।
    • दोषी व्यक्तियों ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील की, जहाँ 13 दिसंबर, 2018 को उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया।
    • इसके बाद राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। ​​9 मार्च, 2022 को उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के बरी करने के निर्णय को पलट दिया और मूल दोषसिद्धि और सज़ा को बहाल कर दिया।
    • इसके बाद, अभियुक्तों में से एक, बृजनंदन उर्फ ​​ब्रजेश शर्मा ने एक आवेदन दायर कर दावा किया कि अपराध के समय वह किशोर (18 वर्ष से कम आयु का) था।
    • अभियुक्त की जन्मतिथि में विसंगतियाँ थीं - स्कूल रिकॉर्ड में जन्मतिथि 4 अक्तूबर, 1984 दर्शाई गई थी, जबकि उसके आधार कार्ड में जन्मतिथि 10 मार्च, 1984 दर्शाई गई थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने भिंड के सत्र न्यायालय को किशोर होने के दावे की जाँच करने का आदेश दिया। जाँच में अभियुक्त, उसकी माँ और उसके स्कूल के प्रधानाध्यापक से पूछताछ शामिल थी।
  • न्यायालय की टिप्पणी:
    • उच्चतम न्यायालय ने आवेदक (बृजनंदन उर्फ ​​ब्रजेश शर्मा) द्वारा किये गए किशोर होने के दावे को बरकरार रखा।
    • न्यायालय ने आवेदक के विरुद्ध आपराधिक अपील संख्या 293/2022 में पहले दर्ज की गई सज़ा को रद्द कर दिया।
    • न्यायालय ने अपराध के समय आवेदक की सिद्ध किशोर स्थिति के आधार पर उसे औपचारिक रूप से बरी कर दिया।
    • न्यायालय ने आवेदक की ज़मानत बॉण्ड रद्द कर दी, क्योंकि वह पहले से ही 16 मई, 2024 के आदेश के अनुसार अंतरिम ज़मानत पर था।
    • न्यायालय ने सत्र न्यायाधीश की रिपोर्ट को स्वीकार किया, जिसमें आवेदक की जन्मतिथि 4 अक्तूबर, 1984 निर्धारित की गई थी, जिससे 17 जनवरी, 2002 को अपराध के समय वह किशोर (17 वर्ष, 3 माह और 13 दिन का) था।
    • न्यायालय ने आवेदक द्वारा किशोरावस्था के आधार पर अनुतोष मांगने के लिये दायर विविध आवेदन को स्वीकार किया।
    • न्यायालय ने किशोर होने का दावा विलंब से दायर करने तथा विभिन्न दस्तावेजों में आवेदक के नाम में विसंगतियों के संबंध में राज्य की आपत्तियों को खारिज कर दिया।
    • न्यायालय ने पुष्टि की कि दोषसिद्धि और सज़ा के निर्णय और अंतिम आदेश के बाद भी किशोर होने का दावा करने वाला आवेदन किया जा सकता है।

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015

  • अधिनियम की धारा 9 ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से संबंधित है, जिसे इस अधिनियम के तहत सशक्त नहीं किया गया है।
  • अधिनियम के अंतर्गत सशक्त न होने वाले मजिस्ट्रेटों के संबंध में: 
    • कोई भी मजिस्ट्रेट जो बोर्ड की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए अधिकृत नहीं है, उसे तुरंत अपनी राय प्रस्तुत करनी चाहिये यदि उसे यह संदेह हो कि अभियुक्त एक बालक है।
    • मजिस्ट्रेट को बालक और सभी कार्यवाही अभिलेखों को बिना किसी देरी के उचित बोर्ड को भेजना चाहिये।
    • इससे किशोरों के मामलों को उचित प्राधिकारियों तक पहुँचाने के लिये तत्काल स्थानांतरण तंत्र का निर्माण होता है।
  • अन्य न्यायालयों में किशोरावस्था के दावों के संबंध में: 
    • किशोरावस्था का दावा किसी भी न्यायालय में किया जा सकता है, केवल किशोर न्यायालय में ही नहीं।
    • इस प्रकार के दावे निम्नलिखित तरीके से किये जा सकते हैं:  
      • स्वयं अभियुक्त द्वारा 
      • न्यायालय का अपना अवलोकन द्वारा 
    • यह दावा निम्नलिखित पर लागू होता है:
      • बालक की वर्तमान स्थिति
    • कथित अपराध के समय बालक की स्थिति
  • आयु निर्धारण में न्यायालय की ज़िम्मेदारी: 
    • जब किशोरावस्था का दावा किया जाता है तो न्यायालयों को उचित जाँच करनी चाहिये। 
    • उन्हें एफिडेविट को छोड़कर आवश्यक साक्ष्य एकत्र करने चाहिये। 
    • उन्हें व्यक्ति की आयु यथासंभव सटीक बताते हुए एक विशिष्ट निष्कर्ष दर्ज करना चाहिये।
  • किशोरावस्था संबंधी दावों का समय: 
    • कार्यवाही के किसी भी चरण में दावे किये जा सकते हैं। 
    • अंतिम मामले के निपटारे के बाद भी दावे वैध रहते हैं। 
    • यदि व्यक्ति किशोर नहीं रह गया है, तब भी दावे किये जा सकते हैं। 
    • यदि व्यक्ति अधिनियम लागू होने से पूर्व 18 वर्ष का हो गया है, तब भी दावे वैध रहते हैं।
  • किशोरावस्था दावे के बाद की प्रक्रिया: 
    • यदि न्यायालय पाता है कि अपराधी अपराध के समय किशोर था: 
    • व्यक्ति को बोर्ड के पास भेजा जाना चाहिये।
    • बोर्ड उचित आदेश पारित करेगा।
    • न्यायालय द्वारा पहले से पारित कोई भी सज़ा अमान्य हो जाती है।
  • पूछताछ के दौरान संरक्षात्मक अभिरक्षा: 
    • यदि किशोर होने के दावे की पूछताछ के दौरान अभिरक्षा की आवश्यकता होती है तो व्यक्ति को "सुरक्षित स्थान" में रखा जा सकता है। 
    • यह जाँच अवधि के दौरान एक अस्थायी उपाय होता है।
  • साक्ष्य आवश्यकताएँ: 
    • साक्ष्य ठोस होने चाहिये, केवल एफिडेविट नहीं।
    • जाँच गहन और उचित होनी चाहिये।
    • आयु निर्धारण यथासंभव सटीक होना चाहिये।
  • अधिकारिता का हस्तांतरण: 
    • नियमित न्यायालयों को किशोर न्याय बोर्ड को अधिकारिता हस्तांतरित करना चाहिये।
    • यह तब लागू होता है जब किशोरावस्था की पुष्टि हो जाती है।
    • हस्तांतरण विवेकाधीन नहीं, बल्किअनिवार्य होता है।

प्रासंगिक निर्णयज विधि

  • अशोक बनाम मध्य प्रदेश राज्य,(2020)
    • वर्ष 1999 में हत्या के लिये दोषी ठहराए गए (वर्ष 1997 की घटना के लिये) और आजीवन कारावास की सज़ा पाए एक व्यक्ति ने पहली बार उच्चतम न्यायालय में किशोरावस्था का दावा किया, जिसमें कहा गया कि अपराध के समय वह केवल 16 वर्ष का था, जबकि उसकी अपील को उच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में पहले ही खारिज कर दिया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार करते हुए कि विधिक कार्यवाही के किसी भी स्तर पर किशोरावस्था का दावा किया जा सकता है, स्कूल और ग्राम पंचायत प्रमाण पत्रों के बीच याचिकाकर्त्ता की जन्मतिथि के दस्तावेज़ीकरण में विसंगतियों पर ध्यान दिया।
    • ट्रायल कोर्ट द्वारा याचिकाकर्त्ता की आयु 16 वर्ष बताए जाने तथा उसकी अभिरक्षा की अवधि तीन वर्ष की अधिकतम किशोर सज़ा से अधिक होने के आधार पर, उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम ज़मानत प्रदान की तथा सत्र न्यायालय द्वारा किशोरावस्था के दावे की नए सिरे से जाँच करने का आदेश दिया।
  • राहुल कुमार यादव बनाम बिहार राज्य, 2024
    • एक मामला उच्चतम न्यायालय में पहुँचा, जहाँ उच्च न्यायालय ने उचित जाँच के बिना ही किशोरावस्था की दलील को खारिज कर दिया, बावजूद इसके कि अभियुक्त ने सबसे पहले अवसर पर दावा कर दिया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों ने अपराध के समय अपीलकर्त्ता के किशोरावस्था के दावे पर पर्याप्त रूप से विचार न करके चूक की थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किशोर न्याय अधिनियम, 2015 किशोरावस्था संबंधी दावों पर विचार करने के लिये एक व्यापक तंत्र प्रदान करता है, जिसे विधिक कार्यवाही के किसी भी चरण में, यहाँ तक ​​कि अंतिम मामले के निपटान के बाद भी किया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, दरभंगा, को किशोर न्याय अधिनियम, 2015 और उससे संबंधित नियमों में उल्लिखित प्रक्रियाओं का पालन करते हुए अपीलकर्त्ता की आयु/जन्मतिथि की गहन जाँच करने का निर्देश दिया।
  • अबुज़र हुसैन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, (2012)  
    • आपराधिक कार्यवाही में किशोरावस्था का दावा उठाने का मुद्दा।
    • यह मामला भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष इस बात पर परस्पर विरोधी निर्णयों को हल करने के लिये आया कि ऐसे दावे कब किये जा सकते हैं और किस साक्ष्य पर विचार किया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि किशोरावस्था का दावा वास्तव में आपराधिक कार्यवाही के किसी भी चरण में किया जा सकता है, यहाँ तक कि अंतिम दोषसिद्धि के बाद भी।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किशोर न्याय कानूनों का सार बालकों की सुरक्षा करना है, और इसलिये, तकनीकी विसंगतियों को ऐसे दावों पर विचार करने से नहीं रोकना चाहिये।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि जबकि दस्तावेज़ी साक्ष्य को प्राथमिकता दी जाती है, निर्णायक दस्तावेजों की अनुपस्थिति में मौखिक साक्ष्य और चिकित्सा परीक्षाओं पर विचार किया जा सकता है।

निष्कर्ष 

यह निर्णय इस बात को पुष्ट करता है कि भारत की न्याय व्यवस्था में किशोर अधिकार सर्वोपरि होते हैं और प्रक्रियागत देरी या तकनीकी पहलुओं के कारण इनसे समझौता नहीं किया जा सकता। इस निर्णय ने न केवल एक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा की, बल्कि एक शक्तिशाली मिसाल भी कायम की कि न्यायालयों को दोषसिद्धि और सज़ा सुनाए जाने के बाद भी किशोरावस्था के किसी भी साक्ष्य पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि किशोरों के लिये न्याय समय की परवाह किये बिना सुलभ बना रहे।