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सिविल कानून
चलचित्र अधिनियम की सामान्य रूपरेखा
« »09-Dec-2024
स्रोत: द हिंदू
परिचय
तमिल फिल्म एक्टिव प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (TFAPA) ने एक अनूठी मांग करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय से अनुरोध किया है। उन्होंने फिल्म रिलीज़ होने के पश्चात् पहले तीन दिनों के लिये सोशल मीडिया पर फिल्मों की समीक्षा किये जाने पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया है। उनकी मुख्य चिंताओं में रिव्यू बॉम्बिंग, फेक रिव्यू और सोशल मीडिया अकाउंट के माध्यम से फिल्म की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने के साशय प्रयास शामिल हैं।
मुख्य मुद्दे और न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- तमिल फिल्म एक्टिव प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (TFAPA) ने मद्रास उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की, जिसमें फिल्म की रिलीज़ के बाद पहले तीन दिनों के लिये सोशल मीडिया पर फिल्म समीक्षा पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई।
- उनकी प्राथमिक चिंताओं में रिव्यू बॉम्बिंग, समीक्षाओं में हेरफेर करने के लिये अत्यधिक टिकट खरीदना और फिल्मों को नकारात्मक रूप से चित्रित करने के लिये फेक सोशल मीडिया अकाउंट बनाना शामिल था।
- निर्माताओं ने तर्क दिया कि इस प्रकार की परिपाटी फिल्म की प्रतिष्ठा को अनुचित रीति से नुकसान पहुँचाती हैं और सर्जनात्मक परिवेश को प्रभावित करती हैं।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने वाक् स्वतंत्रता के संरक्षण के पक्ष में निर्णय किया तथा पूर्ण समीक्षा प्रतिबंध के बारे में संदेह व्यक्त किया।
- न्यायालय पूर्ण सेंसरशिप लागू करने के स्थान पर लक्षित हमलों और साशय रिव्यू बॉम्बिंग को रोकने के लिये दिशानिर्देश जारी करने के पक्ष में था।
- केरल उच्च न्यायालय की 2021 की सिफारिशों जैसे पूर्व के मामलों में 48 घंटे की कूलिंग-ऑफ अवधि और सम्मानजनक समीक्षा के संबंध में दिशानिर्देश जैसे संभावित वैकल्पिक दृष्टिकोण का सुझाव दिया गया था।
- याचिका में डिजिटल युग में फिल्म निर्माताओं, आलोचकों और दर्शकों की प्रतिक्रिया के बीच जटिल संबंधों को उजागर किया गया।
- न्यायालय की टिप्पणियों से फिल्म निर्माताओं की चिंताओं और दर्शकों के विचार व्यक्त करने के अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करने में एक सूक्ष्म दृष्टिकोण का संकेत मिलता है।
- याचिका का अंतिम समाधान अभी लंबित है जिसमें संभावना यह है कि न्यायालय व्यक्तियों की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से बाधित किये बिना सुरक्षात्मक उपाय निष्कर्षित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।
समीक्षक अथवा समीक्षाकार कौन होता है?
- समीक्षक का तात्पर्य फिल्म पारिस्थितिकी तंत्र के विविध मतों से हैं, जिनमें पेशेवर आलोचकों सहित नैमित्तिक दर्शक वर्ग शामिल है जो फिल्म देखने के पश्चात् उनके बारे में अपनी राय साझा करते हैं।
- आधुनिक समीक्षकों में माइक्रोफोन वाले पोस्ट-स्क्रीनिंग पत्रकार, यूट्यूब के स्वतंत्र रूप से कंटेंट निर्माता और सोशल मीडिया उपयोगकर्त्ता शामिल हैं जो तत्काल प्रतिक्रिया एवं विस्तृत आलोचना प्रदान करते हैं।
- डिजिटल युग में, समीक्षक अब पारंपरिक मीडिया तक सीमित नहीं हैं, फिल्म आलोचना के जनतंत्रीकरण के साथ भावुक फिल्म प्रेमियों को विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर अपने दृष्टिकोण साझा करने की सुविधा मिलती है।
- फिल्म उद्योग समीक्षकों को दोधारी तलवार के रूप में देखता है पहला जब समीक्षा सकारात्मक होती है तो उनका स्वागत किया जाता है किंतु प्रायः कानूनी धमकियाँ दी जाती हैं या आलोचना के प्रतिकूल होने पर उन्हें "प्रचार समूहों" का हिस्सा करार दिया जाता है।
- एक पेशेवर फिल्म आलोचक और एक अप्रवीण समीक्षक के बीच का अंतर क्षीण हो गया है, जिसमें मुख्य अंतर फिल्म विश्लेषण के लिये तमक, संकल्प और अनुभव है।
- समीक्षक मूलतः दर्शकों के प्रतिनिधि होते हैं, जो ऐसी अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं जो संभावित रूप से जनमत और फिल्म की व्यावसायिक सफलता को प्रभावित कर सकती है, भले ही उन्हें फिल्म निर्माताओं की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़े।
चलचित्र अधिनियम, 1952
- परिचय
- भारत में फिल्मों के विनियमन के नियंत्रण से संबंधित प्राथमिक विधान चलचित्र अधिनियम, 1952 है।
- यह अधिनियम सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये फिल्मों के प्रमाणन हेतु रूपरेखा प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) की स्थापना की गई है, और यह फिल्मों की सामग्री के आधार पर उनकी समीक्षा और प्रमाणन करता है।
- CBFC फिल्मों को विभिन्न दर्शकों के लिये उनकी उपयुक्तता के आधार पर U (यूनिवर्सल), UA (पैरेंटल गाइडेंस), A (वयस्क) और S (विशेष) जैसी विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत करता है।
- अधिनियम का प्रयोजन (धारा 1):
- प्रदर्शन के लिये सिनेमैटोग्राफ फिल्मों का प्रमाणन प्रदान करने के लिये एक अधिनियम।
- चलचित्रों के माध्यम से चलचित्र प्रदर्शनों को नियंत्रित करता है।
- कुछ क्षेत्रीय विविधताओं के साथ, संपूर्ण भारत पर क्रियान्वित।
- फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया (धारा 4):
- फिल्म प्रमाणन के लिये आवेदकों को बोर्ड के पास आवेदन करना होता है।
- बोर्ड:
- अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये फिल्म को मंजूरी प्रदान कर सकता है।
- केवल वयस्कों के प्रदर्शन हेतु फिल्म को स्वीकृत कर सकता है।
- विशिष्ट व्यावसायिक/वर्ग प्रदर्शनी के लिये फिल्म को स्वीकृत कर सकता है।
- प्रमाणीकरण से पहले प्रत्यक्ष संशोधन का निदेश दे सकता है।
- सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये फिल्म को मंजूरी देने से इंकार कर सकता है।
- फिल्म प्रमाणन बोर्ड (धारा 3):
- केंद्र सरकार द्वारा स्थापित।
- इसमें एक अध्यक्ष और 12-25 सदस्य होते हैं।
- अध्यक्ष को वेतन तथा अन्य सदस्यों को भत्ता/शुल्क प्राप्त होता है।
- फिल्म प्रमाणन के सिद्धांत (धारा 5B):
- फिल्मों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता यदि वे:
- भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिये खतरा हैं
- राज्य की सुरक्षा को प्रभावित करती हैं
- विदेशी संबंधों को नुकसान पहुँचाती हैं
- सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करती हैं
- शिष्टता या नैतिकता के विरुद्ध है
- न्यायालय की मानहानि या अवमान होता है
- किसी अपराध के किये जाने का उद्दीपन संभाव्य है
- फिल्मों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता यदि वे:
- अपील प्रक्रिया (धारा 5C):
- आवेदक 30 दिनों की अवधि में बोर्ड के निर्णय के खिलाफ अपील कर सकता है
- वह अपील कर सकता है:
- प्रमाणपत्र देने से इंकार करने के विरुद्ध
- केवल 'A' या 'S' या 'UA' प्रमाणपत्र प्रदान किये जाने के विरुद्ध
- संशोधन के लिये निर्देशन किये जाने के विरुद्ध
- दंड (धारा 7):
- 3 वर्ष तक का कारावास
- 100,000 रुपए तक का जुर्माना
- अपराध निरंतर रहने पर अतिरिक्त दैनिक जुर्माना
- वीडियो फिल्म उल्लंघनों पर सख्त दंड
- चलचित्र प्रदर्शनों का अनुज्ञप्त किया जाना (धारा 10-12):
- चलचित्र प्रदर्शनों के लिये अनुज्ञापन की आवश्यकता होती है
- लाइसेंसिंग प्राधिकारी ज़िला मजिस्ट्रेट होता है
- लाइसेंस के लिये संरक्षा पूर्वोपाय की आवश्यकता होती है
- राज्य सरकार वैकल्पिक लाइसेंसिंग प्राधिकारियों को निर्दिष्ट कर सकती है
निष्कर्ष:
मद्रास उच्च न्यायालय लक्षित हमलों की रोकथाम करने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए, फिल्म समीक्षाओं पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध अधिरोपित करने का पक्षधर नहीं है। पूर्व के संबंधित मामलों, जैसे-केरल उच्च न्यायालय में, कूलिंग-ऑफ अवधि और अपमानजनक भाषा का परिहरण करने जैसे दिशा-निर्देशों का सुझाव दिया गया था। फिल्म निर्माताओं के हितों एवं दर्शकों के विचार व्यक्त करने के अधिकार के बीच जारी तनाव को उजागर करने वाली इस याचिका पर स्पष्ट निर्णय आना अभी लंबित है।