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सांविधानिक विधि
भारतीय संविधान के अंतर्गत संपत्ति का अधिकार
« »05-Jun-2024
स्रोत: द हिंदू
परिचय:
कोलकाता नगर निगम एवं अन्य बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य (2023) के ऐतिहासिक मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 300A में निहित संपत्ति अधिकारों के मूल सिद्धांतों की पुष्टि की।
कोलकाता नगर निगम एवं अन्य बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण क्या था?
- न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की अध्यक्षता में न्यायालय ने संपत्ति के स्वामित्व के भीतर आवश्यक उप-अधिकारों को सावधानीपूर्वक रेखांकित किया तथा उचित क्षतिपूर्ति एवं वैध अधिग्रहण पर बल दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने सार्वजनिक पार्क बनाने के लिये नारकेलडांगा नॉर्थ रोड पर निजी भूमि अधिग्रहण करने के कोलकाता नगर निगम के निर्णय को रद्द कर दिया।
- इसमें कहा गया कि विधान, निकाय को भूमि अधिग्रहण करने का अधिकार नहीं देता है और अधिग्रहण अवैध है।
- कोलकाता नगर निगम मामले में लिया गया निर्णय प्रोफेसर पी.के. त्रिपाठी के भविष्यवाणी को सही सिद्ध करता है कि 44वें संशोधन को पारित करके एवं अनुच्छेद 19(1)(f) तथा 31 को हटाकर संसद ने अनजाने में ही नागरिकों की संपत्ति को वह सुरक्षा दे दी है जो उसे पहले कभी न तो ब्रिटिश काल में और न ही स्वतंत्र भारत में मिली थी।
संपत्ति के अधिकार के संबंध में प्रमुख संवैधानिक परिवर्तन क्या हैं?
- संपत्ति का अधिकार वर्ष 1978 तक मौलिक अधिकार था जो 19(1)(f) के अधीन प्रदान किया गया था।
- 44वें संशोधन में भाग III के अनुच्छेद 19(1)(f) से संपत्ति के अधिकार को हटाने और अनुच्छेद 300 A के अंतर्गत संवैधानिक अधिकार के रूप में इसे पुनर्स्थापित करने का प्रावधान था। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 31 को भी हटा दिया गया, जो क्षतिपूर्ति निर्धारण के संबंध में विवाद का विषय रहा था।
- केशवानंद भारती मामले में असहमति जताने वाले न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. के. मैथ्यू ने कहा कि संपत्ति के स्वामित्व का सभ्यता और संस्कृति के साथ सीधा संबंध है।
- उन्होंने मूल संरचना सिद्धांत के ढाँचे के भीतर भी, संवैधानिक आधार की सूची से संपत्ति के स्वामित्व एवं अधिग्रहण के मौलिक अधिकार को बाहर रखने के विरुद्ध तर्क दिया।
- वर्ष 1980 में एक प्रोफेसर ने एक प्रभावशाली लेख में कहा कि अनुच्छेद 31 को हटाना एक गलत कदम था।
- उन्होंने तर्क दिया कि समवर्ती सूची की प्रविष्टि 42 द्वारा प्रदत्त शक्ति “समापहरण” के स्थान पर “अधिग्रहण” से संबंधित है।
- प्रोफेसर ने कहा कि अनुच्छेद 31(2) के अंतर्गत केवल सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये अधिग्रहण एवं उसके साथ क्षतिपूर्ति की शर्तों को स्पष्ट रूप से शामिल करने से उन्हें अनुदान का अंतर्निहित आयाम मानने की आवश्यकता समाप्त हो गई।
- अनुच्छेद 300 A में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को विधिक प्राधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
- प्रोफेसर के अनुसार, इसका अर्थ यह है कि "विधि" को तब तक वैध नहीं माना जा सकता जब तक कि अधिग्रहण या अधियाचन सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति न करता हो तथा इसमें क्षतिपूर्ति का प्रावधान शामिल न हो।
- उन्होंने कहा कि "क्षतिपूर्ति" की व्याख्या वही रहेगी जो बेला बनर्जी मामले में की गई थी, क्षतिपूर्ति अधिग्रहण के समय संपत्ति के बाज़ार मूल्य को दर्शाती है।
- अनुच्छेद 19(1)(f) और 31 के उन्मूलन के बाद के वर्षों में, उच्चतम न्यायालय ने बल देकर कहा है कि संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक तथा मानव अधिकार, दोनों है।
- एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986) में न्यायालय ने कहा कि किसी विधि के वैध होने के लिये उसे न्यायसंगत, निष्पक्ष एवं उचित होना चाहिये। अतः मौलिक अधिकार के रूप में वर्गीकृत न होने के बावजूद, किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने वाली किसी भी विधि को अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 के आदेशों का पालन करना चाहिये।
- बी. के. रविचंद्र बनाम भारत संघ (2020) में न्यायालय ने अनुच्छेद 300 A और अनुच्छेद 21 तथा 265 के वाक्यांशों के बीच उल्लेखनीय समानता पर बल दिया।
- न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 300 A में निहित गारंटी को क्षीण नहीं किया जा सकता।
संविधान के 25वें संशोधन अधिनियम का संपत्ति अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ा?
- अनुच्छेद 31 (2) में "क्षतिपूर्ति" शब्द से उत्पन्न जटिलताओं के उत्तर में, संसद ने संविधान का 25वाँ संशोधन अधिनियम, 1971 प्रस्तुत किया।
- इस संशोधन ने "क्षतिपूर्ति" के स्थान पर "राशि" शब्द को प्रतिस्थापित कर दिया, जिससे इसे न्यायिक व्याख्या से प्रभावी रूप से अलग कर दिया गया।
- परिणामस्वरूप, संपत्ति अधिग्रहण उचित क्षेत्र के अधीन आगे बढ़ सकता है, जिसमें भूमि मालिक अब "क्षतिपूर्ति" के स्थान पर "राशि" के अधिकारी होंगे।
- इस संशोधन ने प्रदान की गई "राशि" की पर्याप्तता की न्यायिक जाँच को रोक दिया।
- केशवानंद भारती बनाम भारत संघ (1973) मामले में जहाँ उच्चतम न्यायालय ने संविधान के 25वें संशोधन अधिनियम, 1971 की वैधता को यथावत् रखा, वहीं उच्चतम न्यायालय ने व्याख्या के माध्यम से इसके इच्छित प्रभाव को कम कर दिया।
- केशवानंद भारती मामले में बहुमत से यह निर्णय दिया गया कि यद्यपि भुगतान की गई राशि की पर्याप्तता की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती, फिर भी न्यायालय क्षतिपूर्ति निर्धारित करने वाले सिद्धांतों की प्रासंगिकता का मूल्यांकन कर सकते हैं।
- आर. सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970) के उपरांत, संसद को यह विश्वास हो गया था कि संपत्ति का अधिकार समाजवादी राज्य की प्राप्ति में एक बड़ी बाधा बना हुआ है, क्योंकि समाजवादी दृष्टिकोण से इसे पूंजीपति वर्ग का गढ़ माना जाता था।
संपत्ति के अधिकार के उप-अधिकार क्या हैं?
- अधिग्रहण की सूचना का अधिकार:
- राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति को उसकी संपत्ति अधिग्रहण करने के अपने आशय के विषय में स्पष्ट, ठोस एवं सार्थक अधिसूचना के माध्यम से सूचित करे।
- सुनवाई का अधिकार:
- अधिसूचना के उपरांत, संपत्ति धारक को अपनी आपत्तियों एवं चिंताओं को बताने का अधिकार है, जिस पर सुनवाई निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक होनी चाहिये।
- तर्कपूर्ण निर्णय का अधिकार:
- प्राधिकारी को एक सूचित निर्णय लेना चाहिये और उसे एक तर्कसंगत आदेश के माध्यम से आपत्तिकर्त्ता को सूचित करना चाहिये।
- केवल सार्वजनिक प्रयोजन के लिये अधिग्रहण करने का कर्त्तव्य:
- अधिग्रहण, सार्वजनिक उद्देश्य के लिये होना चाहिये, जो अधिग्रहण के उद्देश्य को निर्धारित करता है तथा व्यापक संवैधानिक लक्ष्यों के अनुरूप होना चाहिये।
- प्रतिपूर्ति या उचित क्षतिपूर्ति का अधिकार:
- संपत्ति के अधिकार से वंचित करना केवल प्रतिपूर्ति के आधार पर ही स्वीकार्य है, चाहे वह मौद्रिक क्षतिपूर्ति हो, पुनर्वास हो अथवा इसी प्रकार का कोई अन्य साधन हो।
- किसी भी अधिग्रहण प्रक्रिया के लिये उचित एवं तर्कसंगत क्षतिपूर्ति अनिवार्य शर्त है।
- कुशल एवं शीघ्र प्रक्रिया का अधिकार:
- प्रशासन को उचित समय के भीतर अधिग्रहण प्रक्रिया को पूरा करने में कुशल होना चाहिये, क्योंकि विलंब संपत्ति धारक के लिये कष्टकारी होता है।
- निष्कर्ष का अधिकार:
- अधिग्रहण प्रक्रिया की परिणति सिर्फ क्षतिपूर्ति का भुगतान ही नहीं है, बल्कि वास्तविक कब्ज़ा प्राप्त करना और संपत्ति को अंतिम रूप से राज्य में निहित करना भी है।
निष्कर्ष:
कोलकाता नगर निगम बनाम बिमल कुमार शाह (2024) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने अनुच्छेद 300 A के अधीन संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा की पुष्टि की है, जिसमें उचित क्षतिपूर्ति एवं वैध अधिग्रहण पर बल दिया गया है। इन अधिकारों को कम करने वाले विधायी परिवर्तनों के बावजूद, न्यायालय ने न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में उनकी आवश्यक भूमिका को यथावत् रखा है।