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आपराधिक कानून
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन ‘सार्वजनिक दृश्य’ की आवश्यकता
«03-Feb-2025
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन आरोपों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मामले की जाँच की । यह मामला जाति-आधारित दुर्व्यवहार और हमले के आरोपों पर केंद्रित था, जहाँ न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि कथित अपराध अधिनियम की धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के अधीन महत्त्वपूर्ण ‘सार्वजनिक दृश्य’ की आवश्यकता को पूरा करते हैं या नहीं ? यह मामला नातेदारी संबंधी विवाद था, जो जाति-आधारित हिंसा और अभित्रास के आरोपों में बदल गया ।
घटना क्या थी?
- एक महिला (परिवादी) ने एक व्यक्ति के साथ संबंध स्थापित कर लिया था, जिसने उससे विवाह करने का वचन दिया था ।
- तत्पश्चात् उस व्यक्ति ने अपना वचन भंग करते हुए किसी अन्य महिला से सगाई कर ली ।
- जब परिवादी उससे मिलने गई, तो उसके रिश्तेदारों ने कथित तौर पर उसके साथ मारपीट की ।
- उसके परिवाद के अनुसार, उस व्यक्ति के रिश्तेदारों (बहन, बहनोई, चचेरे भाई और दोस्त) ने उसके साथ जाति-आधारित दुर्व्यवहार किया ।
- इस दौरान रिश्तेदारों ने उसके साथ मारपीट भी की ।
- मुख्य आरोपी (जिसने विवाह का वचन दिया था) के विरुद्ध बलात्संग का मामला दर्ज किया गया ।
- अभिकथित किया गया कि यह घटना एक संकरी गली में घटी, यद्यपि परिवाद में किसी साक्षी का उल्लेख नहीं किया गया है ।
- परिवादी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता दोनों के अधीन आरोप दायर किये ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने अभिकथित किया कि “केवल अपमान करने या अपमानित करने के उद्देश्य से अभित्रास कारित करना” अनुसूचित जाति और अनुसूचित अधिनियम के अधीन अपराध नहीं है - इसे अभियोजन योग्य बनाने के लिये अतिरिक्त तत्त्व विद्यमान होने चाहिये ।
- यद्यपि, यह आवश्यक नहीं है कि घटना सार्वजनिक स्थान पर घटित हो, परंतु यह ‘सार्वजनिक दृश्य’ में घटित होनी चाहिये – अर्थात् वहाँ साक्षी उपस्थित होने चाहिये ।
- न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के हितेश वर्मा बनाम उत्तराखण्ड राज्य (2020) मामले के निर्णय का संदर्भ दिया, जिसमें अभिकथित किया गया था कि अधिनियम की धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के अधीन अपराध गठित करने के लिये स्वतंत्र तीसरे-पक्ष साक्षियों की उपस्थिति आवश्यक है ।
- साक्ष्यों की जाँच करते हुए न्यायालय ने उल्लिखित किया कि न तो आरोप-पत्र और न ही प्रथम सूचना रिपोर्ट में किसी ऐसे साक्षी का बयान शामिल है, जिसने कथित घटना देखी हो ।
- न्यायालय ने पाया कि घटना एक संकरी गली में घटित हुई थी, परंतु यह साबित करने के लिये कोई सारभूत साक्ष्य नहीं था कि यह सार्वजनिक स्थान पर घटित हुई थी ।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के आरोपों को खारिज़ करते हुए, न्यायालय ने चार आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के अधीन साधारण उपहति और आपराधिक अभित्रास कारित करने के आरोपों को बरकरार रखा तथा पाया कि मारपीट और उपहति कारित करने के “स्पष्ट और सुसंगत आरोप” हैं ।
- कुछ आरोपियों (सगाई वाली महिला के दादा और पिता) के विरुद्ध न्यायालय को विधिक रूप से ग्राह्य साक्ष्य नहीं मिला और उनके विरुद्ध सभी आरोपों को खारिज़ कर दिया गया ।
- न्यायालय ने ‘स्थान’ और ‘दृश्यता’ के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि कोई घटना सार्वजनिक स्थान पर भी घटित होती है, तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की सुसंगत धाराओं के अधीन उसे अन्य लोगों द्वारा देखा जाना चाहिये ।
संदर्भित पूर्वनिर्णीत मामले क्या हैं?
- हितेश वर्मा बनाम उत्तराखण्ड राज्य (2020) – उच्चतम न्यायालय का निर्णय:
- यह स्थापित किया गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के अधीन अपमान और अभित्रास सार्वजनिक रूप से होना चाहिये |
- घटना के समय तीसरे-पक्ष साक्षियों की उपस्थिति अनिवार्य है |
- घटना को देखने वाले स्वतंत्र साक्षियों की उपस्थिति को आवश्यक बनाया गया |
- शिवलिंगप्पा बी. केराकलामट्टी बनाम कर्नाटक राज्य (सितंबर 2023) - कर्नाटक उच्च न्यायालय मामला:
- साइकिल चेन से हमला और जाति-आधारित गाली-गलौज अंतर्वलित था |
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दुर्व्यवहार सार्वजनिक स्थान या सार्वजनिक दृश्य वाले स्थान पर होना चाहिये |
- यह स्थापित किया गया कि केवल ‘अनुसूचित जाति’ से होना अपराध साबित करने के लिये पर्याप्त नहीं है |
- यह अभिकथित किया गया कि किसी की जाति के कारण उसका अपमान करने का विशेष आशय होना चाहिये |
- उच्चतम न्यायालय का निर्णय (दिसंबर 2024):
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन साशय अपमान करने के आरोपों को अपास्त कर दिया गया |
- निर्णय दिया गया कि घर का पिछला भाग “सार्वजनिक दृश्य वाला स्थान” नहीं है |
- इस निर्वचन को और मजबूत किया गया कि केवल ‘स्थान’ ही पर्याप्त नहीं है - जनता के लिये ‘दृश्यता’ महत्त्वपूर्ण है |
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराधों के लिये विधिक आवश्यकताएँ क्या हैं?
- धारा 3(1)(द):
- अपमानित करने के उद्देश्य से अपमान या अभित्रास कारित करने को दण्डित करती है |
- अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य के विरुद्ध होना चाहिये |
- अपराध ‘सार्वजनिक दृश्य’ में होने चाहिये |
- धारा 3(1)(ध):
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य से जाति-आधारित दुर्व्यवहार करने को दण्डित करती है |
- ‘सार्वजनिक दृश्य’ में किसी स्थान पर होना चाहिये |
- साक्षियों की उपस्थिति आवश्यक है |
- धारा 3(1):
- अपराधों की सूची बनाने वाली सामान्य धारा |
- उन व्यक्तियों पर लागू होता है, जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्य नहीं हैं |
- भेदभाव और अत्याचार के विभिन्न रूपों को शामिल करती है |
क्या जाति-आधारित दुर्व्यवहार को अपराध मानने के लिये ‘सार्वजनिक दृश्य’ और ‘साक्षियों की उपस्थिति’ की आवश्यकता होती है?
- कर्नाटक उच्च न्यायालय (2023) ने स्थापित किया कि जाति-आधारित गालियाँ सार्वजनिक स्थान या सार्वजनिक दृश्य वाले स्थान पर दी जानी चाहिये तथा स्पष्ट किया कि केवल ‘अनुसूचित जाति से होना’ ही अपराध स्थापित नहीं करता है - जाति पहचान के आधार पर अपमान करने का स्पष्ट आशय होना चाहिये ।
- उच्चतम न्यायालय के दिसंबर 2024 के निर्णय ने इस बात को पुष्ट किया कि भले ही कोई घटना सार्वजनिक स्थान (जैसे किसी के घर के पिछले भाग) पर घटित होती है, तो भी वह अधिनियम के अधीन स्वतः “सार्वजनिक दृश्य” के रूप में योग्य नहीं हो जाती।
- विधि के अनुसार न केवल स्थान सार्वजनिक होना चाहिये, अपितु स्वतंत्र साक्षियों की उपस्थिति भी आवश्यक है, जिन्होंने वास्तव में घटना को देखा हो, तभी धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के अधीन अपराध माना जा सकता है ।
- इस बात के दस्तावेज़ी साक्ष्य (प्रथम सूचना रिपोर्ट, आरोप-पत्र या साक्षियों के बयानों में) होने चाहिये, जो यह स्थापित करें कि घटना सार्वजनिक दृश्यता में हुई और साक्षी उपस्थित थे ।
- न्यायालयों ने निरंतर “सार्वजनिक स्थान” और “सार्वजनिक दृश्य” के बीच अंतर स्पष्ट किया है तथा अभिकथित किया है कि सार्वजनिक स्थान पर किसी घटना का घटित होना, प्रत्यक्षदर्शी अवलोकन के बिना पर्याप्त नहीं है ।
निष्कर्ष
न्यायालय का निर्णय इस स्थापित विधिक सिद्धांत की पुष्टि करता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(1)(द) और 3(1)(ध) के अधीन अपराधों के लिये, “सार्वजनिक दृश्य” की आवश्यकता को स्थापित करने के लिये तीसरे-पक्ष साक्षियों की उपस्थिति आवश्यक है । जबकि न्यायालय ने “सार्वजनिक दृश्य” के संबंध में साक्ष्य की कमी के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन आरोपों को खारिज़ कर दिया और भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अन्य आपराधिक आरोपों को बरकरार रखा, जो यह दर्शित करता है कि कथित पीड़ितों के पास अभी भी वैकल्पिक विधिक प्रावधानों के माध्यम से उपचार उपलब्ध है, भले ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की विशिष्ट आवश्यकताएँ पूरी न हुई हों ।