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सांविधानिक विधि
आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार
« »30-Aug-2023
परिचय
- आत्म-अभिशंसन (Self-incrimination) एक कानूनी सिद्धांत है जिसके तहत किसी व्यक्ति को आपराधिक मामले में जानकारी प्रदान करने या अपने खिलाफ गवाही देने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता। अमेरिका और भारत सहित विभिन्न न्यायक्षेत्रों में, आत्म-अभिशंसन के खिलाफ अधिकार संवैधानिक या कानूनी सुरक्षा के रूप में निहित है। यह सिद्धांत निम्नलिखित कानूनी कहावत पर आधारित है:
- निमो टेनेटेउर प्रोड्रे एक्यूसारे सीप्सम (Nemo teneteur prodre accussare seipsum) - इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति को आत्म-अभिशंसन करने वाला कोई भी बयान देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
मौलिक अधिकार के रूप में आत्म-अभिशंसन
- संविधान के निर्माताओं ने दुनिया के अन्य संविधानों से कई विशेषताएँ उधार ली हैं और भारत में मौलिक अधिकारों का मॉडल अमेरिका के संविधान से अपनाया गया है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका में, संविधान का पांचवाँ संशोधन आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार की गारंटी देता है, जबकि भारत में, आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत मान्यता दी गई है और संरक्षित किया गया है।
- अनुच्छेद 20 - अपराधों के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण - (3) किसी अपराध के लिये अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
उच्चतम न्यायालय में मामले
- नंदिनी सत्पथी बनाम पी.एल. दानी (1978), इस मामले में आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार के महत्त्व की पुष्टि की गई थी। न्यायालय ने माना कि यह अधिकार आरोपी व्यक्तियों और गवाहों दोनों को प्राप्त है तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि एक व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में स्वयं को दोषी ठहराने के लिये मज़बूर नहीं किया जा सकता है।
- सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने नार्कोएनालिसिस, BEAP (ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल) या ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट सहित विभिन्न तंत्रिका वैज्ञानिक जाँच तकनीकों की संवैधानिकता पर विचार किया। अदालत ने कहा कि आरोपी की सहमति के बिना नार्कोएनालिसिस परीक्षण आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार का उल्लंघन होगा।
- यद्यपि आरोपी से DNA के नमूने एकत्र करने की अनुमति है और यदि आरोपी नमूना देने से इनकार करता है, तो न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114 के तहत उसके खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष दे सकता है।
- रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2019), उच्चतम न्यायालय ने आवाज़ के नमूनों को शामिल करने के लिये लिखावट के नमूनों के मापदंडों को व्यापक बनाया और कहा है कि यह आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार का उल्लंघन नहीं करेगा। यह भी घोषित किया गया कि मजिस्ट्रेट के पास जाँच के दौरान किसी व्यक्ति को अनिवार्य रूप से आवाज़ के नमूने देने का निर्देश देने की शक्ति है।
- हालाँकि चंदा दीपक कोचर बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2023) वाद में न्यायालय ने कहा कि यदि आरोपी ने सहयोग नहीं किया है और सही-सही खुलासा नहीं किया है, तो यह उसे गिरफ्तार करने का कोई आधार नहीं बनता है।
गिरफ्तारी और आत्म-अभिशंसन
किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया जाता है। उल्लेखनीय है कि यद्यपि व्यक्तियों को चुप रहने और आत्म-अभिशंसन से बचने का अधिकार है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है या उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। व्यक्ति को ऐसी जानकारी प्रदान करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता जो सीधे तौर पर उसे दोषी ठहराए।
- डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) के ऐतिहासिक मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यक्तियों की गिरफ्तारी या हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पालन किये जाने वाले दिशानिर्देश दिये, जिनमें प्रमुख हैं:
- पुलिस कर्मियों की पहचान: गिरफ्तारी या पूछताछ करने वाले पुलिस कर्मियों को स्पष्ट और दृश्यमान पहचान पत्र पहनना होगा।
- गिरफ्तारी का ज्ञापन: गिरफ्तारी के समय गिरफ्तारी का एक ज्ञापन तैयार किया जाना चाहिये, जिसमें गिरफ्तारी का समय और तारीख तथा गिरफ्तार करने वाले अधिकारी की पहचान शामिल हो। यह ज्ञापन कम-से-कम एक गवाह, अधिमानतः परिवार के किसी सदस्य या क्षेत्र के स्थानीय व्यक्ति द्वारा सत्यापित होना चाहिये।
- सूचना देने का अधिकार: गिरफ्तार व्यक्ति को अपने दोस्त, रिश्तेदार या अपने किसी परिचित को गिरफ्तारी और हिरासत के स्थान के बारे में सूचित करने का अधिकार है।
- कानूनी सहायता का अधिकार: गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी प्रतिनिधित्व के अपने अधिकार के बारे में सूचित होने का अधिकार है। पुलिस को पूछताछ के दौरान व्यक्ति को वकील द्वारा प्रतिनिधित्व करने के अपने अधिकार के बारे में भी सूचित करना चाहिये।
- निकटतम रिश्तेदारों को सूचना: पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति के निकटतम रिश्तेदारों को उनकी गिरफ्तारी और हिरासत के स्थान के बारे में सूचित करना चाहिये।
- अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) के ऐतिहासिक फ़ैसले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक गिरफ्तारी को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 41 और 41A की अनिवार्यताओं को पूरा करना चाहिये। यह भी माना गया कि पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी करने के पीछे का कारण बताना होगा।
- सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2022) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तार करने की शक्ति का मतलब गिरफ्तार करने की बाध्यता नहीं है, इस मामले में पीठ ने CrPC की धारा 41A का अनुपालन न करने के प्रति सख्त रवैया अपनाया।
- धारा 41A के तहत आरोपी द्वारा नोटिस का पालन, प्रक्रिया में उसका सहयोग माना जाएगा और कोई भी गैर-अनुपालन आरोपी को जमानत देने का हकदार बना देगा।
CrPC की धारा 41 और 41A
- CrPC की धारा 41 के तहत एक पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराध में बिना वारंट के गिरफ्तारी कर सकता है।
- धारा 41A के अनुसार, जिन मामलों में गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, पुलिस अधिकारी को एक नोटिस जारी कर आरोपी को उसके सामने उपस्थित होने का निर्देश देना चाहिये। जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है और उसका अनुपालन करना जारी रखता है, तो उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, जब तक कि दर्ज किये जाने वाले कारणों से, पुलिस अधिकारी की राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
आत्म-अपराध का सिद्धांत कानूनी प्रणालियों के भीतर व्यक्तिगत अधिकारों और गरिमा की सुरक्षा का एक प्रमाण है। यह दुर्व्यवहार, जबरदस्ती और अन्यायपूर्ण अभियोजन के खिलाफ एक बाधा के रूप में खड़ा है।