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सांविधानिक विधि
समलैंगिक विवाह
»21-Aug-2023
परिचय:
- भारत में समलैंगिक विवाह की विधिक मान्यता उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।
- विधिक मान्यता की इस बहस में केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि भारतीय संविधान, 1950 के तहत मौलिक अधिकार के रूप में समलैंगिक विवाह भारतीय पारिवारिक परंपराओं के विपरीत है।
- इसके आगे सरकार ने कहा कि इस तरह के बंधन को विधिक मान्यता सौंपने से प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी क्योंकि भारतीय समाज एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बंधन को स्वीकार करता है।
- केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि ऐसे विवाह किसी भी संहिताबद्ध व्यक्तिगत कानून में सूचीबद्ध नहीं हैं।
समलैंगिक अधिकारों की सुरक्षा के लिये नियम
1. नाज़ फाउंडेशन बनाम NCT दिल्ली सरकार (वर्ष 2009)
- नाज़ फाउंडेशन एक ट्रस्ट है जिसने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 377 की वैधता पर सवाल उठाते हुए एक मामला दायर किया था।
- वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था कि दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाया गया यौन संबंध कानून की नज़र में वैध है।
- ऐसे कृत्य के लिये कोई भी सज़ा देना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 और अनुच्छेद-14 का उल्लंघन होगा।
2. सुरेश कुमार कौशल बनाम भारत संघ (2013)
- न्यायालय ने वर्ष 2013 में नाज़ फाउंडेशन मामले में अपना फैसला पलट दिया।
- पीठ ने कहा कि न्यायालय समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से पृथक नहीं कर सकती, कानून के अनुसार संसद को ऐसा करने का अधिकार है।
3. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014)
- उच्च न्यायालय ने समलैंगिकों के लिये स्व-पहचान (सेल्फ आइडेंटिफिकेशन) के अधिकार और लैंगिक पहचान की विधिक मान्यता प्रदान की।
4. नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018)
- 6 सितंबर, 2018 को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, डी. वाई. चंद्रचूड़, ए. एम. खानविलकर और इंदु मल्होत्रा की पाँच-न्यायाधीशों की पीठ ने IPC की धारा 377 को आंशिक रूप से अपराधमुक्त घोषित कर दिया।
- IPC की धारा 377 के अनुसार अप्राकृतिक संबंध गैर-कानूनी होते हैं।
- इस प्रावधान के तहत इस हद तक अपराधमुक्त कर दिया गया कि यह समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से पृथक मानने लगा।
- पीठ ने इसे भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद-19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद-21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन माना।
शफीन जहाँ बनाम के.एम. अशोकन (2018)
- इस मामले में उच्च न्यायालय ने माना कि बालिग व्यक्तियों के मामले में विवाह की वैधता का निर्णय न्यायालय द्वारा नहीं किया जा सकता है।
- भारतीय संविधान में विवाह करने के अधिकार का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इसकी व्याख्या अनुच्छेद-21 द्वारा निर्देशित की जा सकती है जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करती है।
समलैंगिकों की निजता का अधिकार
- न्यायमूर्ति के. एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (वर्ष 2017) के मामले में निजता के अधिकार को भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की एक विशेषता माना गया था।
- अनुच्छेद-21 में ‘नागरिक’ शब्द का प्रयोग किया गया है, समलैंगिक समुदाय से संबंधित व्यक्ति भी इसके दायरे में आते हैं।
- अतः वे निजता के अधिकार का लाभ उठाने के समान रूप से हकदार हैं।
- वर्ष 2017 में न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि यौन अभिविन्यास निजता के अधिकार का एक अनिवार्य गुण है।
समलैंगिक विवाह से संबंधित कुछ प्रमुख घटनाएँ
- वर्ष 1990 के दशक में समलैंगिक समुदाय के विरुद्ध होने वाले भेदभाव का सामना करने के लिये पहला समलैंगिक संगठन एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन (ABVA) दिल्ली में स्थापित हुआ।
- घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 एक जेंडर-न्यूट्रल कानून है, इसमें समलैंगिक जोड़े भी शामिल हैं।
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा, उनके कल्याण और संबंधित प्रासंगिक मामलों के लिये पारित किया गया था।
- मई 2023 में CJI डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, एस. रवींद्र भट, हिमा कोहली और पी.एस. नरसिम्हा की संविधान पीठ ने भारत में समलैंगिक जोड़ों के लिये वैवाहिक समानता की मांग करने वाली याचिकाओं के रूप में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
आगे की राह
- यद्यपि कानूनी बिरादरी (legal fraternity) समलैंगिकों के अधिकारों के लिये सक्रियता दिखा रही है लेकिन उनके खिलाफ समाज में प्रचलित पूर्वाग्रह और भेदभाव के मुद्दे से निपटने के लिये एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- समलैंगिक विवाह की मान्यता पर चल रही इस बहस को समाप्त करके न्यायपालिका समलैंगिक समुदाय को समानता का अधिकार प्रदान कर सकती है।
- स्वास्थ्य, यौन अभिविन्यास और समाज के समानांतर भागीदारी से संबंधित उनके अधिकारों के प्रत्येक पहलू को अस्पष्ट रूप से प्रचारित किया जाना चाहिये।
- विधायिका को एक अधिनियम पारित कर या मौजूदा कानून में कुछ नए प्रावधानों को शामिल कर इस मुद्दे पर न्यायपालिका के दृष्टिकोण को लागू करने में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये जो मूल रूप से समलैंगिक समुदाय के अधिकारों का समर्थन करेगा।