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आपराधिक कानून

सतेंद्र कुमार अंतिल मामला

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 06-Mar-2024

स्रोत: द हिंदू

परिचय:

भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था चौंकाने वाले आँकड़ों से प्रभावित है, इसकी जेलों की आबादी में 75% से अधिक विचाराधीन कैदी शामिल हैं, जेलें आश्चर्यजनक रूप से 118% क्षमता पर काम कर रही हैं।

  • ये आँकड़े एक प्रणालीगत संकट को रेखांकित करते हैं जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2022) के मामले में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को पहचानने और ज़मानत देने में देश की ज़मानत प्रणाली की विफलताओं को स्वीकार किया।

सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम  केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो मामले का सारांश क्या है?  

  • समस्या:
    • भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों की अधिकता है, जिनमें दो-तिहाई से अधिक कैदी शामिल हैं।
    • कई लोगों को मामूली आरोपों के बावजूद अनावश्यक गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है, जिनमें अक्सर निर्धन, अशिक्षित, महिलाएँ भी शामिल हैं।
    • यह कानून प्रवर्तन में औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है, लोकतांत्रिक सिद्धांतों का खंडन करता है, गिरफ्तारी के कम उपयोग की आवश्यकता पर बल देता है।
  • विचारण की परिभाषा:
    • CrPC के तहत 'विचारण' शब्द की व्याख्या और परिभाषा नहीं की गई है।
      • जाँच के चरण और उसके बाद ज़मानत पर विस्तार के उद्देश्य से इस शब्द को एक विस्तारित अर्थ दिया जाना चाहिये।
    • जाँच के पहले चरण में, गहन जाँच के लिये गिरफ्तारी के बाद पुलिस हिरासत की आवश्यकता हो सकती है, जबकि बाद में विचारण के रूप में न्यायालय के समक्ष कार्यवाही काफी मायने रखती है।
    • इसी तरह, सज़ा के निलंबन पर ज़मानत पर विचार करते समय अपील या पुनरीक्षण को भी विचारण के एक पहलू के रूप में माना जाएगा।
  • ज़मानत की परिभाषा:
    • CrPC में "ज़मानत" शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, हालाँकि इसका उपयोग अक्सर किया जाता है।
    • ज़मानत और कुछ नहीं बल्कि अभियुक्त की ओर से निजी बॉण्ड सहित प्रतिभू है।
    • इसका अर्थ है किसी अभियुक्त व्यक्ति को न्यायालय के आदेश से या पुलिस द्वारा या जाँच एजेंसी द्वारा रिहा करना।
    • यह न्यायिक प्रक्रिया में किसी भी हस्तक्षेप को सक्षम करते हुए किसी संदिग्ध पर लगाए गए पूर्व-विचारण प्रतिबंधों का एक सेट है।
    • इस प्रकार, यह संदिग्ध द्वारा इस गंभीर वचन पर सशर्त रिहाई है कि वह जाँच और विचारण दोनों में सहयोग करेगा।

सारांश:

अपराध की प्रकृति

स्थितियाँ

न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया

7 वर्ष या उससे कम सज़ा वाले अपराध

1.     पूछताछ के दौरान अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं किया गया।

2.     जब भी बुलाया गया, जाँच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने सहित पूरी जाँच में सहयोग किया।

1. समन (अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थिति की अनुमति)

2. ज़मानतीय वारंट

वारंट रद्द करने के लिये अभियुक्त की उपस्थिति ज़रूरी नहीं।

अज़मानतीय वारंट के साथ गिरफ्तार अभियुक्त की ज़मानत अर्ज़ी पर उसे भौतिक हिरासत में लिये बिना निर्णय लिया जाएगा।

ऐसे अपराध जिनमें मृत्युदंड, आजीवन कारावास, 7 वर्ष या अधिक की सज़ा हो सकती है।

 

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प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में अभियुक्त की उपस्थिति पर ज़मानत आवेदन पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।

ज़मानत के लिये कड़े प्रावधान वाले विशेष अधिनियम।

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उपर्युक्त दिशानिर्देशों को ध्यान में रखा जाना चाहिये।

 

सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा क्या निर्देश दिये गए थे?

  • पृथक अधिनियमन:
    • भारत सरकार ज़मानत अधिनियम की प्रकृति में एक पृथक अधिनियमन लाने पर विचार कर सकती है ताकि ज़मानत की अनुमति देने को सुव्यवस्थित किया जा सके। 
  • CrPC की धारा 41 और 41A का अनुपालन:  
    • दिशानिर्देश:
      • जाँच एजेंसियाँ एवं उनके अधिकारी संहिता की धारा 41 व 41A के आदेश और अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य, (2014) मामले में इस न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का पालन करने के लिये कर्त्तव्यबद्ध हैं।
      • उनकी ओर से किसी भी लापरवाही को न्यायालय द्वारा उच्च अधिकारियों के संज्ञान में लाया जाना चाहिये और उसके बाद उचित कार्रवाई की जानी चाहिये। 
    • प्रावधान:
      • CrPC की धारा 41 के तहत एक पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराध में वारंट के बिना गिरफ्तार कर सकता है।
      • CrPC की धारा 41A के अनुसार, जिन मामलों में व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, पुलिस अधिकारी, उस व्यक्ति जिसके विरुद्ध युक्तियुक्त परिवाद किया गया है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या युक्तियुक्त संदेह विद्यमान है कि उसने संज्ञेय अपराध कारित किया है, को अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर जैसा कि नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपसंजात होने का निर्देश देने वाला नोटिस जारी करेगा।
  • अननुपालन पर डिफाॅल्ट ज़मानत:
    • न्यायालयों को CrPC की धारा 41 और 4A के अनुपालन पर स्वयं को संतुष्ट करना होगा। 
    • किसी प्रकार का अननुपालन अभियुक्त को ज़मानत का हकदार बना देगा। 
  • स्थायी आदेश:
    • सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को CrPC की धारा 41 व 41A के तहत पालन की जाने वाली प्रक्रिया के लिये स्थायी आदेशों को सुविधाजनक बनाने का निर्देश दिया गया था।
  • CrPC के अन्य प्रावधानों पर आवेदन:  
    • CrPC की धारा 88, 170, 204 और 209 के तहत आवेदन पर विचार करते समय ज़मानत आवेदन पर ज़ोर देने की आवश्यकता नहीं है।
  • सिद्धार्थ बनाम यू.पी. राज्य (2021) मामले का अनुपालन:
    • सिद्धार्थ बनाम यू.पी. राज्य (2021) मामले में इस न्यायालय के निर्णय में निर्धारित शासनादेश का कड़ाई से अनुपालन करने की आवश्यकता है। 
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "अगर जाँच के दौरान, अभियुक्त को गिरफ्तार करने का कोई कारण नहीं है, केवल इसलिये कि आरोप-पत्र दायर किया गया है, तो याचिकाकर्त्ता को गिरफ्तार करने का कोई वास्तविक कारण नहीं होगा"।
  • सरकारों के लिये निर्देश:
    • राज्य और केंद्र सरकारों को विशेष न्यायालयों के गठन के संबंध में समय-समय पर इस न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का पालन करना होगा।
    • उच्च न्यायालय को राज्य सरकारों के परामर्श से विशेष न्यायालयों की आवश्यकता पर विचार करना होगा। विशेष न्यायालयों में पीठासीन अधिकारियों के रिक्त पदों को शीघ्र भरा जाना चाहिये।
  • उच्च न्यायालयों को निर्देश:
    • उच्च न्यायालयों को उन विचाराधीन कैदियों का पता लगाने का निर्देश दिया जाता है जो ज़मानत शर्तों का पालन करने में सक्षम नहीं हैं। ऐसा करने के बाद रिहाई की सुविधा के लिये संहिता की धारा 440 के आलोक में उचित कार्रवाई करनी होगी। 
  • CrPC की धारा 440:
    • ज़मानतदारों पर ज़ोर देते समय CrPC की धारा 440 के आदेश को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
  • भीम सिंह बनाम भारत संघ (2015) मामले का अनुपालन:  
    • ज़िला न्यायपालिका स्तर और उच्च न्यायालय में CrPC की धारा 436A के आदेश का पालन करने के लिये इसी तरह एक अभ्यास किया जाना चाहिये, जैसा कि भीम सिंह बनाम भारत संघ (2015) में इस न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया था, जिसके बाद उचित आदेश दिये गए थे। 
    • इस मामले में, CrPC की धारा 436A विधायी नीतियों को संबोधित करने और जेल में भीड़भाड़ को कम करने के लिये, न्यायालय ने क्षेत्राधिकार वाले मजिस्ट्रेटों को 1 अक्तूबर, 2014 से दो महीने के लिये जेलों में साप्ताहिक सत्र आयोजित करने का निर्देश दिया।
      • वे रिहाई मानदंडों को पूरा करने वाले विचाराधीन कैदियों की पहचान करेंगे और तुरंत उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को रिपोर्ट सौंपेंगे।
      • जेल अधीक्षकों को न्यायालय की बैठकों की सुविधा प्रदान करनी चाहिये। अनुपालन हेतु आदेश प्रसारित किये गये।
  • ज़मानत देने की अवधि:
    • सिवाय इसके कि यदि प्रावधान अन्यथा अनिवार्य हों, हस्तक्षेप करने वाले आवेदन को छोड़कर, ज़मानत आवेदनों का निपटारा दो सप्ताह के भीतर किया जाना चाहिये।
    • किसी भी हस्तक्षेप आवेदन को छोड़कर अग्रिम ज़मानत के आवेदनों का छह सप्ताह के भीतर निपटारा किया जाना चाहिये।

विचाराधीन कैदियों के पास सुरक्षा उपायों का अभाव कैसे है?

  • हालाँकि, मनमाने ढंग से की गई गिरफ़्तारियों के विरुद्ध सुरक्षा उपाय सैद्धांतिक रूप से मौजूद हैं, लेकिन वे कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा करने में असफल हो जाते हैं।
  • गिरफ्तारियों के अस्पष्ट औचित्य प्रवासियों और सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचितों को असंगत रूप से लक्षित करते हैं।

वर्तमान ज़मानत व्यवस्था में क्या चुनौतियाँ हैं?  

  • वर्तमान ज़मानत व्यवस्था धन और सामाजिक पूंजी की त्रुटिपूर्ण धारणाओं पर आधारित है, जिससे कई विचाराधीन कैदियों के लिये सामान्य नियम बेल है, जेल नहीं (Basic rule is bail, not jail) अर्थहीन हो जाती है।
  • सुधार प्रयासों को इन उपधारणाओं को चुनौती देनी चाहिये और सभी के लिये समनता एवं न्याय तक पहुँच को प्राथमिकता देनी चाहिये।
  • वित्तीय बाधाओं से लेकर कानूनी जटिलताओं से निपटने तक संरचनात्मक बाधाएँ, विचाराधीन कैदियों की ज़मानत शर्तों को पूरा करने की क्षमता में बाधा उत्पन्न करती हैं।

ज़मानत के मामलों में सुधार लाने की संभावित आगे की राह क्या हो सकती है?  

  • ज़मानत सुधार अत्यावश्यक है, लेकिन यह अनुभवजन्य समझ और प्रणालीगत सुधार में निहित होना चाहिये।
  • डायवर्ज़न कार्यक्रम विकसित करना जो ज़मानत के विकल्प के रूप में परामर्श, सामुदायिक सेवा, या पुनर्स्थापनात्मक न्याय प्रथाओं की पेशकश करते हैं।
  • न्यायाधीशों को प्रत्येक मामले की व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुरूप ज़मानत की शर्तें तय करने में अधिक विवेकाधिकार की अनुमति देना।

निष्कर्ष:

भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था में विचाराधीन कैदियों का संकट तत्काल और ठोस कार्रवाई की मांग करता है। सार्थक सुधार के लिये पुरातन धारणाओं से हटकर सभी के लिये समता और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। ज़मानत से संबंधित अन्य ऐतिहासिक निर्णयों के साथ-साथ सतेंद्र कुमार अंतिल मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए दिशानिर्देशों का पालन करना न्यायालयों के लिये उल्लेखनीय है।