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सांविधानिक विधि

धर्मनिरपेक्षता एवं शासन

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 16-Sep-2024

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

हाल ही में हुए एक सार्वजनिक धार्मिक समारोह में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और प्रधानमंत्री दोनों ने भाग लिया, जिससे सरकार में धर्म की भूमिका पर प्रश्न उठाया गया है। प्रश्न यह है कि क्या यह घटना भारत में धर्मनिरपेक्षता एवं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांतों के अनुरूप है और क्या उच्च पदस्थ अधिकारी अपने संवैधानिक कर्त्तव्यों से समझौता किये बिना सार्वजनिक रूप से धार्मिक आयोजनों में भाग ले सकते हैं।

वर्तमान घटना का मुख्य मुद्दा क्या है?

  • पद की शपथ एवं धर्मनिरपेक्षता:
    • पहला मुद्दा यह है कि क्या प्रधानमंत्री को आमंत्रित अतिथि के रूप में शामिल करते हुए एक धार्मिक समारोह (गणेश पूजा) में मुख्य न्यायाधीश का सार्वजनिक रूप से भाग लेना, पद की शपथ और भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के अनुरूप है।
  • शक्तियों का पृथक्करण:
    • दूसरा मुद्दा न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के विषय में चिंता है, क्योंकि सार्वजनिक रूप से यह देखा गया कि मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री एक साथ धार्मिक समारोह में भाग ले रहे हैं।
    • यह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने पहले भी कहा है कि नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिये सरकार की इन शाखाओं के बीच स्पष्ट पृथक्करण होना चाहिये।
  • संवैधानिक सिद्धांत:
    • तीसरा मुद्दा एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले का उदाहरण देता है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक मूलभूत विशेषता है और राज्य को "किसी भी धर्म का समर्थन, स्थापना या पालन नहीं करना चाहिये।"
  • न्यायपालिका की निष्पक्षता:
    • दूसरा मुद्दा यह है कि क्या मुख्य न्यायाधीश द्वारा धार्मिक संबद्धता का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन निष्पक्षता की धारणा को प्रभावित करेगा, विशेष रूप से गैर-हिंदू वादियों के लिये।
  • पूर्वनिर्णय एवं औचित्य:
    • भारत के न्यायिक इतिहास में यह पहला ज्ञात उदाहरण है, जब एक कार्यरत मुख्य न्यायाधीश ने एक कार्यरत प्रधानमंत्री को धार्मिकता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिये आमंत्रित किया है, जिससे संस्थागत मानदंडों एवं औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं।

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994)

  • धर्मनिरपेक्षता एक मूलभूत विशेषता:
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की एक मूलभूत विशेषता है।
    • इसका अर्थ यह है कि यह संविधान की पहचान का अभिन्न अंग है और इसे संविधान संशोधनों के माध्यम से भी नहीं परिवर्तित किया जा सकता।
  • राज्य का धर्म से संबंध:
    • न्यायालय ने कहा कि संविधान में "धर्मनिरपेक्षता" का तात्पर्य यह है कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन, स्थापना या पालन नहीं करेगा।
    • राज्य को सभी धर्मों के साथ समानता और सम्मान का व्यवहार करना चाहिये।
  • व्यक्तिगत अधिकार:
    • प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण एवं धर्म की स्वतंत्रता का समान अधिकार है।
    • यह अधिकार मौलिक है और संविधान के अंतर्गत संरक्षित है।
  • धर्म और राज्य शक्ति का पृथक्करण:
    • संविधान धर्म एवं राज्य शक्ति के मिश्रण को मान्यता, अनुमति या स्वीकृति नहीं देता।
    • धर्म और राज्य शक्ति दोनों को अलग रखा जाना चाहिये।
  • राज्य की भूमिका:
    • राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और उसे सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना चाहिये।
    • राज्य को धर्म के मामलों में तटस्थ रहना चाहिये और धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिये।
  • धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता:
    • यद्यपि व्यक्तियों को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है, परंतु इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।
    • विशेष रूप से सार्वजनिक अधिकारियों को अपनी सार्वजनिक भूमिकाओं में इस संतुलन को बनाए रखने के प्रति सचेत रहना चाहिये।
  • संवैधानिक अधिदेश:
    • धर्मनिरपेक्षता केवल धार्मिक सहिष्णुता का निष्क्रिय रवैया नहीं है, बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार की सकारात्मक अवधारणा है।

निष्कर्ष:

शीर्ष अधिकारियों द्वारा धार्मिक प्रथाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन भारत में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के विषय में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। जबकि व्यक्तिगत आस्था की रक्षा की जाती है, इस मामले में CJI और PM की कार्यवाहियाँ निजी मान्यताओं एवं सार्वजनिक उत्तरदायित्वों के बीच की रेखाओं को अस्पष्ट कर सकता है। यह स्थिति इस बात पर प्रश्न उठाती है कि संवैधानिक पदाधिकारियों को अपनी व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता को धर्मनिरपेक्ष राज्य को बनाए रखने के अपने कर्त्तव्य के साथ कैसे संतुलित करना चाहिये।