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सांविधानिक विधि
अवसर की मौलिक समानता
« »06-Aug-2024
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
भारत के उच्चतम न्यायालय ने 6:1 बहुमत के ऐतिहासिक निर्णय में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) कोटा के उप-वर्गीकरण पर निर्णय दिया, जो समानता न्यायशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण विकास को दर्शाता है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बहुमत के पक्ष में निर्णय लिखते हुए "मौलिक समानता" की अवधारणा पर ज़ोर दिया, जो विधियों का प्रवर्तन करते समय ऐतिहासिक अन्याय एवं भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की आवश्यकता को पहचानता है। यह निर्णय आरक्षण की सीमाओं का विस्तार करता है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि इसका लाभ सबसे अधिक वंचित व्यक्तियों तक पहुँच सके।
अवसर की समानता क्या है?
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में अवसर की समानता से संबंधित है।
- इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी नागरिकों को, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, सरकारी सेवाओं में रोज़गार पाने का समान अवसर प्राप्त हो।
- अनुच्छेद 15(4) और 16(4) का उद्देश्य सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये अवसर की समानता सुनिश्चित करना है, किसी वर्ग (चाहे वह अन्य पिछड़ा वर्ग हो या अनुसूचित जाति या जनजाति) के भीतर उप-वर्गीकरण का मानदंड सामाजिक पिछड़ेपन का सूचक होना चाहिये।
- अवसर की समानता को दो विषय वस्तुओं के अधीन समान प्रतिनिधित्व की भाषा में तैयार किया गया था।
- न्यायमूर्ति के. के. मैथ्यू ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया।
- एक मानदंड जो वस्तु (अर्थात् सेवाओं) के आवंटन के लिये प्रासंगिक है, उसे अपनाया जाना चाहिये;
- यह निर्धारित किया जाना चाहिये कि क्या यह प्रासंगिक मानदंड किसी निश्चित वर्ग के पूर्वानुमेय बहिष्कार की ओर ले जाता है।
- राज्य को यह चिह्नित करना होगा कि क्या सभी वर्गों के व्यक्तियों के पास चुने गए मानदंडों को पूरा करने का समान अवसर है।
- यदि प्रासंगिक मानदंड पूर्वानुमेय बहिष्करण की ओर ले जाता है तो यह समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन है।
- ऐसी स्थिति में हानि की भरपाई के लिये प्रतिपूरक प्रावधान किया जाना चाहिये।
अवसर की मौलिक समानता क्या है?
- मौलिक समानता की अवधारणा औपचारिक समानता से आगे जाती है, क्योंकि इसमें यह मान्यता दी गई है कि ऐतिहासिक प्रतिकूलताओं और सामाजिक असमानताओं के कारण सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करने से वास्तविक समानता प्राप्त नहीं हो सकती है।
- समान अवसर: अनुच्छेद 16(1) सार्वजनिक रोज़गार के मामलों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता को सुनिश्चित करता है।
- भेदभाव का निषेध: अनुच्छेद 16(2) धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान या निवास के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।
- मौलिक समानता: यद्यपि यह अनुच्छेद औपचारिक समानता सुनिश्चित करता है, परंतु यह विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से मौलिक समानता भी प्रदान करता है:
- अनुच्छेद 16(4) राज्य सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न पाने वाले पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 16(4A) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 16(4B) रिक्त आरक्षित रिक्तियों को आगे बढ़ाने से संबंधित है।
- अपवाद: इस अनुच्छेद में कुछ पदों के लिये अपवाद भी शामिल हैं, जैसे धार्मिक संस्थान या विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता वाले पद।
अवसर की समानता के मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के क्या विचार थे?
- CJI चंद्रचूड़ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 15(4) के अंतर्गत लाभार्थी वर्गों के लिये मूल उद्देश्य, सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करना है।
- उन्होंने कहा कि इन संवैधानिक प्रावधानों का प्राथमिक उद्देश्य सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिये मात्र औपचारिक समानता के बजाय अवसर की वास्तविक समानता सुनिश्चित करना है।
- मुख्य न्यायाधीश ने व्याख्या की कि अनुच्छेद 16(4) में लाभार्थी वर्ग, जो सार्वजनिक रोज़गार में आरक्षण से संबंधित है, प्रभावी रूप से अनुच्छेद 15(4) में उल्लिखित सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल करता है, जो शैक्षिक आरक्षण से संबंधित है।
- मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने पिछड़े वर्गों के लिये अवसर की समानता प्राप्त करने के लिये आरक्षित श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण सहित सकारात्मक कार्यवाही पर विचार किया।
- वह पिछड़े वर्गों के भीतर उप-वर्गीकरण करने के राज्य के अधिकार को मान्यता देते हैं, विशेष रूप से कुछ जातियों या समूहों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व जैसे कारकों के आधार पर।
- हालाँकि मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर ज़ोर दिया कि राज्य पर यह स्थापित करने का दायित्व है कि प्रतिनिधित्व में कोई भी अपर्याप्तता सीधे तौर पर संबंधित जाति या समूह के पिछड़ेपन से जुड़ी है।
- यह व्याख्या पिछड़ेपन की सूक्ष्म समझ का सुझाव देती है तथा यह स्वीकार करती है कि यह व्यापक रूप से परिभाषित पिछड़े वर्गों के भीतर भी भिन्न हो सकता है।
- मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के विचार का तात्पर्य है कि वास्तविक समानता के लिये व्यापक वर्गीकरण से आगे जाने और पिछड़े वर्गों के भीतर उप-समूहों द्वारा अनुभव की जाने वाली विशिष्ट हानियों को दूर करने की आवश्यकता है।
- उनका दृष्टिकोण पिछड़ेपन और अल्प प्रतिनिधित्व के विभिन्न स्तरों को संबोधित करने के लिये सकारात्मक कार्यवाही उपायों के अधिक परिष्कृत एवं लक्षित अनुप्रयोग का समर्थन करता है।
- मुख्य न्यायाधीश का पक्ष, समानता प्रावधानों की गतिशील व्याख्या का समर्थन करता है, जिससे वास्तविक समानता के लक्ष्य को बेहतर ढंग से प्राप्त करने के लिये आरक्षण नीतियों में समायोजन की अनुमति मिलती है।
- यह दृष्टिकोण समानता पर विकसित हो रहे न्यायशास्त्र के अनुरूप है, जो सभी के लिये एक जैसा दृष्टिकोण अपनाने से हटकर आरक्षण नीतियों के अधिक अनुकूलित और संदर्भ-विशिष्ट अनुप्रयोग की ओर अग्रसर है।
- मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की व्याख्या इस विचार को पुष्ट करती है कि समानता का संवैधानिक अधिदेश केवल औपचारिक समानता से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि ऐतिहासिक और सामाजिक प्रतिकूलताओं को दूर करने के लिये सक्रिय उपायों की आवश्यकता होती है।
- मुख्य न्यायाधीश का दृष्टिकोण सकारात्मक कार्यवाही नीतियों के निरंतर मूल्यांकन एवं परिशोधन की आवश्यकता को रेखांकित करता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे सामाजिक पिछड़ेपन के बदलते परिदृश्य को प्रभावी ढंग से संबोधित कर सकें।
- मुख्य न्यायाधीश का दृष्टिकोण आरक्षण नीतियों के लिये अधिक साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण का समर्थन करता है, जिसके अंतर्गत राज्यों को पिछड़ेपन और अल्प प्रतिनिधित्व पर अनुभवजन्य आँकड़ों के साथ उप-वर्गीकरण को उचित ठहराने की आवश्यकता होती है।
- अवसर की मौलिक समानता की यह व्याख्या सकारात्मक कार्यवाही की अधिक लचीली तथा उत्तरदायी प्रणाली की अनुमति देती है, जो भारत में सामाजिक असमानता की सूक्ष्म वास्तविकताओं को संबोधित करने में सक्षम है।
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के अनुसार अवसर की मौलिक समानता के लिये प्रक्रियाएँ क्या थीं?
- राज्य सरकार, विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के प्रतिनिधित्व के विषय में व्यापक डेटा संग्रह करेगी। यह डेटा पिछड़ेपन के संकेतक के रूप में काम करेगा तथा नीतिगत निर्णयों को सूचित करेगा।
- अनुच्छेद 16(1) को सार्वजनिक रोज़गार में औपचारिक और मौलिक समानता को बढ़ावा देने के रूप में समझा जाएगा।
- अनुच्छेद 16(4) राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 335 की व्याख्या एक सीमा के रूप में नहीं, बल्कि सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के दावों पर विचार करने की आवश्यकता को सुदृढ़ करने के रूप में की जाएगी।
- प्रशासनिक दक्षता की अवधारणा अनुच्छेद 16(1) की भावना के अनुरूप समावेशिता और समानता को बढ़ावा देने के लिये की जाएगी।
- एकत्रित आँकड़ों और संवैधानिक व्याख्या के आधार पर, राज्य अल्प प्रतिनिधित्व की समस्या को दूर करने के लिये सकारात्मक कार्यवाही नीतियों को विकसित एवं कार्यान्वित करेगा।
- राज्य समय-समय पर इन उपायों की प्रभावशीलता की समीक्षा करेगा तथा मौलिक समानता की दिशा में प्रगति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक समायोजन करेगा।
- भेदभाव या इन प्रावधानों के अपर्याप्त कार्यान्वयन से संबंधित शिकायतों के समाधान के लिये एक सुदृढ तंत्र स्थापित करना।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों को उपलब्ध अवसरों के विषय में सूचित करने के लिये जनसंपर्क कार्यक्रम आयोजित करना तथा चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखना।
- सार्वजनिक सेवा परीक्षाओं और नौकरी के प्रदर्शन में उनकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने के लिये अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को आवश्यक प्रशिक्षण तथा सहायता प्रदान करना।
भारत में अवसर की समानता की अवधारणा कैसे विकसित हुई?
- मद्रास राज्य बनाम चंपकम दोराईराजन (1951):
- उच्चतम न्यायालय ने प्रारंभ में औपचारिक दृष्टिकोण अपनाया तथा आरक्षण को समान अवसर के अपवाद के रूप में माना।
- न्यायालय ने माना कि शैक्षणिक संस्थानों में सीटों का आरक्षण स्पष्ट प्रावधान के बिना असंवैधानिक था।
- वेंकटरमण बनाम मद्रास राज्य (1951):
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि केवल हरिजन और पिछड़े हिंदुओं को ही सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण के लिये "पिछड़ा वर्ग" माना जा सकता है।
- पहला संविधान संशोधन (1951):
- संसद ने पिछड़े वर्गों के लिये शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की अनुमति देने हेतु अनुच्छेद 15(4) को सम्मिलित करते हुए पहला संशोधन पारित किया।
- एम. आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962):
- उच्चतम न्यायालय ने प्रथम बार आरक्षण के लिये 50% की अधिकतम सीमा निर्धारित की।
- केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस (1975):
- न्यायालय ने समानता संहिता का "व्यापक और सारगर्भित अध्ययन" किया तथा केरल के उस विधान को यथावत रखा, जिसमें सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये योग्यता मानदंडों में ढील दी गई थी।
- इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) (मंडल निर्णय):
- न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के विशेष प्रावधान, समानता के सिद्धांत के अपवाद हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि पदोन्नति में आरक्षण से प्रशासन की कार्यकुशलता कम होगी।
- संविधान (सत्तरवां) संशोधन अधिनियम, 1995:
- पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देने और "कैच-अप नियम" को समाप्त करने के लिये अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा गया।
- 2006 का निर्णय:
- परिणामी वरिष्ठता संबंधी विधान को यथावत रखा गया, जिसमें कहा गया कि इस नियम से प्रशासन की कार्यकुशलता में केवल ढील दी गई है, उसे "नष्ट" नहीं किया गया है।
- CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ के हालिया निर्णय:
- कोटा बनाम दक्षता के प्रश्न को पुनः परिभाषित करते हुए तर्क दिया गया कि आरक्षण, संविधान में मूलभूत समानता के आदेश को प्रतिबिंबित करता है, न कि समानता नियम का अपवाद को।
- दक्षता पर CJI चंद्रचूड़ का मत: तर्क दिया गया कि किसी परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त करना आवश्यक रूप से उच्च दक्षता में योगदान नहीं देता है और कुशल प्रशासन बनाए रखने के लिये न्यूनतम योग्यताएँ पूरी करना पर्याप्त है।
- दक्षता की पारंपरिक धारणा पर संभावित प्रभाव के बावजूद, आरक्षण को वास्तविक समानता सुनिश्चित करने के साधन के रूप में देखा जाता है।
- आरक्षण बनाम योग्यता की द्विआधारी अवधारणा को अस्वीकार कर दिया गया है तथा संवैधानिक संशोधनों को इस द्विआधारी अवधारणा का "पुरज़ोर खंडन" माना गया है।
निष्कर्ष:
भारत में अवसरों की समानता की अवधारणा औपचारिक दृष्टिकोण से अधिक सूक्ष्म प्रकार में महत्त्वपूर्ण रूप से विकसित हुई है। उच्चतम न्यायालय विशेष रूप से CJI चंद्रचूड़ के नेतृत्व में, अब अनुच्छेद 15(4) और 16(4) की व्याख्या, सामाजिक पिछड़ेपन को संबोधित करने तथा समानता के सिद्धांत के अपवादों के बजाय वास्तविक समानता सुनिश्चित करने के लिये एक उपयुक्त उपकरण के रूप में करता है। यह परिवर्तन सामाजिक पिछड़ेपन के विभिन्न स्तरों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये आरक्षित श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण सहित सकारात्मक कार्यवाही के लिये अनुरूप दृष्टिकोण की आवश्यकता को पहचानता है। वर्तमान व्याख्या डेटा-संचालित नीति निर्माण, आवधिक समीक्षा एवं समावेशिता के संदर्भ में योग्यता और दक्षता की पुनर्परिभाषा पर ज़ोर देती है, जो भारत के समानता न्यायशास्त्र में एक परिवर्तनकारी चरण को चिह्नित करती है।