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वाणिज्यिक विधि

क्रेडिट कार्ड ब्याज दरों पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय

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 30-Dec-2024

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

परिचय

उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) के वर्ष 2008 के आदेश को पलट दिया है, जिसमें क्रेडिट कार्ड की ब्याज दर को 30% प्रति वर्ष तक सीमित कर दिया गया था। यह निर्णय प्रभावी रूप से बैंकों को क्रेडिट कार्ड बकाया पर उच्च ब्याज दर वसूलने की स्वतंत्रता देता है, जबकि यह दृढ़ता से स्थापित करता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ऐसे मामलों को विनियमित करने का एकमात्र प्राधिकरण है। यह निर्णय उपभोक्ता संरक्षण, बैंकिंग विनियमन और भारत के वित्तीय क्षेत्र में बाज़ार की शक्तियों और नियामक निगरानी के बीच संतुलन के बारे में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।

हॉन्गकॉन्ग एंड शंघाई बैंकिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम आवाज़ एंड ऑर्स मामले की पृष्ठभूमि और न्यायालय की टिप्पणी क्या है?

पृष्ठभूमि:

  • यह मामला राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) के समक्ष दायर एक याचिका से उत्पन्न हुआ था, जिसमें यह तर्क दिया गया था कि बैंक क्रेडिट कार्ड बकाया पर 36% से 50% प्रति वर्ष तक की अत्यधिक ब्याज दर वसूल रहे हैं।
  • याचिका के अनुसरण में, NCDRC ने 7 जुलाई, 2008 के अपने आदेश के तहत क्रेडिट कार्ड ब्याज दरों पर 30% प्रति वर्ष की सीमा लगा दी, तथा कहा कि उक्त दर से अधिक ब्याज वसूलना उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत अनुचित व्यापार व्यवहार माना जाएगा।
  • NCDRC ने भारत में उच्च ब्याज दरों की अनुचित प्रकृति को स्थापित करने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका (9.99% से 17.99%), यूनाइटेड किंगडम (9.99% से 17.99%), और ऑस्ट्रेलिया (18% से 24%) जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में प्रचलित ब्याज दरों के साथ तुलना की।
  • आयोग ने आगे कहा कि दंडात्मक ब्याज केवल एक बार चूक की अवधि के लिये लिया जा सकता है, उसे पूंजीकृत नहीं किया जाएगा, तथा मासिक आधार पर ब्याज लेना अनुचित व्यापार व्यवहार माना जाएगा।

न्यायालय की टिप्पणी:

  •  माननीय उच्चतम न्यायालय ने NCDRC के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि ब्याज दरों और बैंकिंग व्यापार प्रथाओं से संबंधित नीतिगत निर्णय भारतीय रिज़र्व बैंक के विशेष वैधानिक क्षेत्राधिकार में आते हैं और राष्ट्रीय आयोग द्वारा न्यायिक जाँच के दायरे से बाहर हैं।
  • शीर्ष न्यायालय ने कहा कि बैंकों के प्रशासनिक नीतिगत निर्णय बैंकिंग के ऐसे प्रावधान/सुविधाएँ नहीं हैं जो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2(1)(o) के तहत परिभाषित 'सेवा' के अंतर्गत आ सकते हैं।
  •  न्यायालय ने निर्धारित किया कि क्रेडिट कार्ड धारक, जो सुविज्ञ और शिक्षित उपभोक्ता हैं तथा जिन्होंने संबंधित बैंकों द्वारा जारी शर्तों पर स्पष्ट रूप से सहमति व्यक्त की है, वे बाद में उपभोक्ता फोरम के समक्ष उसे चुनौती नहीं दे सकते, विशेषकर तब जब कार्ड जारी करने से पहले शर्तों और नियमों का स्पष्ट रूप से खुलासा कर दिया गया हो।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि राष्ट्रीय आयोग द्वारा क्रेडिट कार्ड सुविधाओं की शर्तों और नियमों में संशोधन करने तथा बैंकों द्वारा ली जाने वाली ब्याज दरों सहित उन्हें पुनः लिखने का प्रयास एक नई संविदा के गठन के समान है, जो कानून में अनुचित है तथा बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 21A के विपरीत है।
  •  उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी कार्य को अनुचित व्यापार व्यवहार मानने के लिये 'प्रवंचक व्यवहार' और 'अनुचित विधि' की आवश्यक पूर्वशर्तें स्थापित होनी चाहिये, जो वर्तमान मामले में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित थीं, क्योंकि बैंकों ने क्रेडिट कार्ड धारकों को धोखा देने के लिये कोई गलत बयानी नहीं की थी।

इस मामले में कौन-से कानूनी प्रावधान संदर्भित हैं?

  •  उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986:
    • धारा 2(1)(o) - 'सेवा' की परिभाषा:
    •  यह धारा उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत 'सेवा' क्या होती है, को परिभाषित करती है।
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ब्याज दरों के संबंध में बैंकों के प्रशासनिक नीतिगत निर्णय इस परिभाषा के अंतर्गत नहीं आते।
    •  न्यायालय ने कहा कि ये नियामक मामले हैं जो उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे से बाहर होते हैं।
  • बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949:
    •  धारा 21A - न्यायालय की शक्तियों पर प्रतिबंध:
    • अत्यधिक ब्याज दरों के आधार पर बैंकिंग लेनदेन को फिर से खोलने से न्यायालयों को स्पष्ट रूप से रोकता है।
    •  ब्याज दर के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप के विरुद्ध वैधानिक निषेध बनाता है।
    •  RBI के दिशा-निर्देशों के भीतर ब्याज दरें निर्धारित करने के लिये बैंकों की संविदात्मक स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
  •  धारा 35A - RBI की शक्तियाँ:
    •  RBI को बैंकिंग कंपनियों को बाध्यकारी निर्देश जारी करने का अधिकार प्रदान करती है।
    •  बैंकिंग प्रथाओं के लिये RBI को प्राथमिक नियामक के रूप में स्थापित करती है।
    •  ब्याज दर विनियमन पर RBI को विशेष अधिकार प्रदान करती है।
    •  बैंकिंग परिचालनों की निगरानी और नियंत्रण के लिये RBI को सशक्त बनाती है।
  •  RBI के निर्देश (मई 2007):
    • पहला निर्देश:
      •  इसने माना कि ब्याज दरों को अविनियमित कर दिया गया है।
      • यह माना कि कुछ स्तरों से अधिक दरों को अत्यधिक माना जा सकता है।
      • बैंकों से यह सुनिश्चित करने को कहा गया कि दरें सामान्य बैंकिंग प्रथाओं के अनुरूप हों।
    •  दूसरा निर्देश:
      •  बैंकों को ब्याज दरों के लिये आंतरिक सिद्धांत स्थापित करने का आदेश दिया गया।
      •  अत्यधिक ब्याज शुल्क को रोकने के लिये आवश्यक प्रक्रियाएँ।
      •  ऋणों पर उचित प्रसंस्करण और अन्य शुल्क लगाने का आह्वान किया गया।
  •  कानूनी मिसाल: सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया बनाम रवींद्र एवं अन्य (2001):
    •  यह स्थापित किया गया कि धारा 21 और 35A के अंतर्गत RBI की शक्तियों में निम्नलिखित शामिल हैं:
      •  निर्देश जारी करके कार्य करने का कर्तव्य।
      •  ब्याज पूंजीकरण को विनियमित करने का अधिकार।
      •  पूंजी राशि से अत्यधिक ब्याज को बाहर करने की शक्ति।
      • ब्याज शुल्क के उपचार का निर्धारण करने की क्षमता।
  •  उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019:
    •  वर्ष 1986 के अधिनियम को प्रतिस्थापित किया गया।
    •  सेवाओं के संबंध में समान प्रावधान बनाए रखता है।
    •  RBI के विनियामक प्राधिकरण को संरक्षित करते हुए उपभोक्ता संरक्षण ढाँचे को अद्यतन करता है।

निष्कर्ष

उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भारत में क्रेडिट कार्ड की ब्याज दरों के विनियमन के तरीके में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है। हालाँकि यह निर्णय बैंकिंग संस्थानों के पक्ष में प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह निर्णय अनिवार्य रूप से बैंकिंग क्षेत्र में वित्तीय स्थिरता और उपभोक्ता हितों के प्राथमिक संरक्षक के रूप में RBI की भूमिका को पुष्ट करता है। हालाँकि, यह निर्णय उपभोक्ताओं पर क्रेडिट कार्ड की शर्तों और नियमों के बारे में अधिक सतर्क रहने की अधिक ज़िम्मेदारी भी डालता है, साथ ही RBI को यह सुनिश्चित करने की चुनौती देता है कि उसका नियामक ढाँचा बाज़ार की गतिशीलता को बाधित किये बिना उपभोक्ता हितों की पर्याप्त रूप से रक्षा करे